Tuesday, April 8, 2008

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 8

मुल्ला पहुंचा अपने शहरः मिली वालिद के मौत की खबर

(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला अपने गधे पर

मुल्ला नसरुद्दीन का गधा बहुत ही होशियार था। हर बात को अच्छी तरह समझता था। उसके कानों में शहर के फाटक से आती हुई पहरेदारों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ चुकी थीं। वह सड़क की परवाह किए बिना सरपट भागा चला जा रहा था, इतनी तेज़ रफ्तार से कि उसके मालिक को अपने पैर ऊँचे उठाने पड़ रहे थे। उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे। वह जी़न से चिपका हुआ था। भारी आवाज से भौंकते हुए कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे। मुर्ग़ियों के चूजे भयभीत होकर तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगे थे और सड़क पर चलने वाली दीवारों से चिपटे अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे।

......मुल्ला गधे पर भागता हुआ अपने शहर में दाखिल होता है।)

उसके आगे

मुल्ला अपने शहर में

बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला। वह मकान, जहाँ उसने जन्म लिया था। न वह छायादार बगीचा ही मिला, जहाँ सर्दी के मौसम में पेड़ों की पीली-पीली पत्तियाँ सरसराती हुई झूलती थीं। जहाँ मक्खियाँ मुरझाते हुए फूलों के रस की अंतिम बूँद चूसती हुई भनभनाया करती थीं और सिंचाई के तालाब में झरना रहस्यपूर्ण अंदाज में बच्चों को कभी ख़त्म न होने वाली अनोखी कहानियाँ सुनाया करता था। वह स्थान अब ऊसर मैदान में बदल गया था। उस पर बीच-बीच में मलबे के ढेर लगे थे। टूटी हुई दीवारें खड़ी थी। वहाँ मुल्ला नसरुद्दीन को न तो एक चिड़ियाँ दिखाई दी और न ही एक मक्खी। केवल पत्थरों के ढेर के नीचे से, जहाँ उसका पैर पड़ गया था, अचानक ही एक लंबी तेल की धार उबल पड़ी थी और धूप में हल्की चमक के साथ पत्थरों के दूसरे ढेर में जा छिपी थी। वह एक साँप था; अतीत में इन्सान के छोड़े हुए वीरान स्थानों का एकमात्र और अकेला निवासी।

मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने पीछे मुड़कर देखा। परेशानियों और ग़रीबों से दोहरा एक बूढ़ा उस बंजर धरती को लाँघते हुए उसी ओर आ रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया, ‘मैं उनसे एक मुद्दत से परिचित था। शेर मुहम्मद सुप्रसिद्ध मुल्ला नसरुद्दीन के पिता थे। और ऐ मुसाफि़र, तुमने मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में ज़रूर बहुत कुछ सुना होगा।’ ‘हाँ, कुछ सुना तो है। लेकिन आप यह बताइए कि मुल्ला नसरुद्दीन के पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद और उनके घरवाले कहाँ गए?’ ‘इतने जोर से मत बोलो मेरे बेटे। बुखारा में हजा़रों जासूस हैं। अगर वे हम लोगों की बातचीत सुन लेंगे तो हम परेशानियों में पड़ जाएँगे।...हमारे शहर में मुल्ला नसरुद्दीन का नाम लेने की सख़्त मुमानियत है। उसका नाम लेना ही जेल में ठूँस दिए जाने के लिए काफ़ी है। मैं तुम्हें बताता हूँ कि शेर मुहम्मद का क्या हुआ।’

बूढ़े ने खाँसते हुए कहना शुरू किया,‘यह घटना पुराने अमीर के ज़माने की है। मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है। यह अफ़वाह अमीर के महल तक भी पहुँच गई। सिपाहियों ने मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत खोजा, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्‍तारी का हुक्म दे दिया। साथ ही यह भी हुक्म दे दिया कि उन लोगों को तब तक यातानाएँ दी जाएँ जब तक कि वे नसरुद्दीन का पता न बता दें। अल्लाह का शुक्र है कि उसने उन लोगों को खामोश रहने और यातनाओं को सहने की ताक़त दे दी। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया। उसके रिश्तेदारों और दोस्त अमीर के गुस्से से बचने के लिए बुखारा छोड़कर भाग गए। किसी को पता नहीं कि वे कहाँ हैं?....

‘लेकिन उन पर जोर-जुल्म क्यों किए गए?’मुल्ला नसरुद्दीन ने ऊँची आवाज़ में पूछा। उसकी आँखों में आँसू बह रहे थे। लेकिन बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा।

‘उन्हें क्यों सताया गया? मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मुल्ला नसरुद्दीन उस समय बुखारा में नहीं था।’‘यह कौन कह सकता है?’ बूढ़े ने कहा, ‘मुल्ला नसरुद्दीन की जब जहाँ मर्जी होती है, पहुँच जाता है। हमारा बेमिसाल मुल्ला नसरुद्दीन हर जगह है, और कहीं भी नहीं है।’ यह कहकर बूढ़ा खाँसते हुए आगे बढ़ गया। नसरुद्दीन ने अपने दोनों हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और गधे की ओर बढ़ने लगा। उसने अपनी बाँहें गधे की गर्दन में डाल दीं और बोला, ‘ऐ मेरे अच्छे और सच्चे दोस्त, तू देख रहा है मेरे प्यारे लोगों में से तेरे सिवा और कोई नहीं बचा। अब तू ही मेरी आवारागर्दी में मेरा एकमात्र साथी है।’गधा जैसे अपने मालिक का दुख समझ रहा था। वह बिल्कुल चुपचाप खड़ा रहा।

घंटे भर बाद मुल्ला नसरुद्दीन अपने दुख पर काबू पा चुका था। उसके आँसू सूख चुके थे।

‘कोई बात नहीं,’गधे की पीठ पर धौल लगाते हुए वह चिल्लाया,‘कोई चिंता नहीं। बुखारा के लोग मुझे अब भी याद करते हैं। किसी-न-किसी तरह हम कुछ दोस्तों को खोज ही लेंगे और अमीर के बारे में ऐसा गीत बनाएँगे-ऐसा गीत बनाएँगे कि वह गुस्से से अपने तख्त़ पर ही फट जाएगा और उसकी गंदी आँतें महल की दीवारों पर जा गिरेंगी। चल मेरे वफ़ादार गधे!आगे बढ़।

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