Saturday, April 19, 2008

सभी गुनाह धुल गये

सभी गुनाह धुल गये सज़ा ही और हो गयी
मिरे वजूद पर तिरी गवाही और हो गयी

रफ़ूगरान-ए-शहर1 भी कमाल लोग थे मगर
सितारासाज़ हाथ में क़बा ही और हो गई

बहुत से लोग शाम तक किवाड़ खोलकर रहे
फ़क़ीर-ए-शहर की मगर सदा ही और हो गई

अँधेरे में थे जब तलक ज़माना साजगार2 था
चिराग़ क्या जला दिया, हवा ही और हो गई।

बहुत सँभल के चलने वाली थी पर अब के बार तो
वो गुल खिले कि शोख़ी-ए-सबा3 ही और हो गई

न जाने दुश्मनों की कौन बात याद आ गई
लबों तक आते-आते बद्दुआ ही और हो गई

ये मेरे हाथ की लकीरें खिल रहीं थीं या कि खुद
शगुन की रात खुशबू-ए-हिना4 ही और हो गई

ज़रा-सी कर्गसों5 को आब-ओ-दाना की जो शह मिली
उकाब6 से ख़िताब की अदा ही और हो गई
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1.नगर के रफूगर। 2.अनुकूल। 3.मन्द समीर की चपलता। 4.मेहँदी की सुगन्ध। 5.गिद्ध। 6.गरुड़, एक शिकारी चिड़िया।

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