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Monday, February 20, 2012

माता-पिता की महिमा

 माता-पिता की महिमा

माता तो सर्वोच्च है, महिमा अगम अपार!
माँ के गर्भ से ही यहाँ, प्रकट हुए अवतार!!
माँ की महत्ता तो मनुज, कभी न जानी जाय!
माँ का ऋण सबसे बड़ा, कैसे मनुज चुकाय!!
मात-पिता भगवान-से, करो भक्ति भरपूर!
मात-पिता यदि रुष्ट हों, ईश समझलो दूर!!
पिता दिखाए राह नित, दे जीवन का दान!
मान पिता को दे नहीं, अधम पुत्र को जान!!
रोम-रोम में माँ रहे, नाम जपे हर साँस!
सेवा कर माँ की सदा, पूरी होगी आस!!
माँ प्रसन्न तो प्रभु मिलें, सध जाएँ सब काम!
पिता के कारण जगत में, मिले मनुज को नाम!!
मात-पिता का सुख सदा, चाहा श्रवण कुमार!
मात-पिता के भक्त को, पूजे सब संसार!!
माँ के सुख में सुख समझ, मान मोद को मोद!
सारा जग मिल जाएगा, मिले जो माँ की गोद!!
माँ के चरणों में मिलें, सब तीरथ,सब धाम!
जिसने माँ को दुःख दिए, जग में मरा अनाम!!
माँ है ईश्वर से बड़ी, महिमावान अनंत!
माँ रूठे पतझड़ समझ, माँ खुश, मान वसंत!!







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Tuesday, August 9, 2011

नादान भोला ये बचपन।

बचपन हॉ हॉ ये बचपन।
नादान भोला ये बचपन।
कहीं ऑसु से भीगा ये बचपन।
कहीं पैसों में भीगा ये बचपन।
धूल-मिट्टी में खोया ये बचपन।
फ़ुटपाथसडक पर संजोया ये बचपन।
रेंकडी पर जुतों की पोलिश पर चमकता ये बचपन।
कहीं कुडेदान में खेलता ये बचपन।
कहीं गरम सुट में घुमता ये बचपन।
कहीं फ़टे कपडों में नंगा घुमता ये बचपन।
 कहीं मर्सीडीज़ कारों में घुमता ये बचपन।
कहीं कारो  केशीशे पोंछता  ये बचपन।
कहीं मेगेज़ीन बेचता ये बचपन।
कही  महेलों में   ज़ुलता ये बचपन।
कहीं फ़टी साडी में ज़ुलता ये बचपन।
कहीं केडबरीज़ के  रेपर में खोया ये बचपन।
कहीं सुख़ी रोटी की पोलीथीन में खोया ये बचपन।
कहीं एरोड्राम पर टहलता ये बचपन।
कहीं नट बनकर दोरी पर चलता ये बचपन।
पर……
कहीं बाई के हाथों में पलता ये बचपन।
तो कहीं ममता की छाया में संभलता ये बचपन।
बचपन हॉ हॉ ये बचपन।

कानों में गुनगुनातीं हैं वो माँ की लोरियाँ।

कानों में गुनगुनातीं हैं वो माँ की लोरियाँ।
बचपन में ले के जाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
लग जाये जो कभी किसी अनजान सी नज़र,
नजरें उतार जाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
भटकें जो राह हमारा कभी अपनों के साथ से,
आके हमें मिलाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
हो ग़मज़दा जो दिल कभी करता है याद जब,
हमको बड़ा हँसाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
अफ़्सुर्दगी कभी हो या तनहाई हो कभी,
अहसास कुछ दिलाती है वो माँ की लोरियाँ।
पलकों पे हाथ फ़ेरके ख़्वाबों में ले गइ,
मीठा-मधुर गाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
दुनिया के ग़म को पी के जो हम आज थक गये,
अमृत हमें पिलाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
माँ ही हमारी राहगीर ज़िंदगी की है,
जीना वही सिखाती है वो माँ की लोरियाँ।
अय “राज़” माँ ही एक है दुनिया में ऐसा नाम,
धड़कन में जो समाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
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