Tuesday, April 8, 2008

वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन

मध्यपूर्व के मुस्लिम देशों में 13वीं शताब्दी में हुए मुल्ला नसरुद्दीन, अपने समय का सर्वाधिक बुद्धिमान और खुशमिज़ाज व्यक्ति था।

तरह-तरह की तिकड़मबाजियों से वह धन जमा करता और उसे गरीबों, जरूरतमंदों में बांट देता। इसलिए समाज के गरीब और बेसहारा लोगों के बीच वह काफी लोकप्रिय था।
लोगों में उसकी लोकप्रियता से बादशाह और सरदार उससे चिढ़ते थे। वे उसे सदा सजा देने की ताक में रहते, पर हर बार अपनी चालाकियों से वह बच निकलता।

शासकों की नजर से बचने के लिए वह सदा एक शहर से दूसरे शहर वेश बदल कर घूमता रहता। रास्ते में आने वाली मुश्किलों से घबराने की बजाय वह उसका जम कर मजे लेता। उसकी कहानियां अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की जैसे मध्यपूर्व के देशों में काफी प्रचलित हैं।


वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन...


शाम के सूरज की किरणें बुखारा शरीफ के अमीर के महल के कंगूरों और मस्जिदों की मीनारों को चूमकर अलविदा कह रही थीं। रात के कदमों की धीमी आवाज दूर से आती सुनाई देने लगी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ऊंटों के विशाल कारवाँ के पीछे-पीछे अपने सुख-दुख के एकमात्र साथी गधे की लगाम पकड़े पैदल आ रहा था।

उसने हसरत-भरी निगाह बुखारा शहर की विशाल चारदीवारी पर डाली, उसने उस खूबसूरत मकान को देखा, जिसमें उसने होश की आँखें खोली थीं, जिसके आँगन में खेल-कूदकर बड़ा हुआ था। किंतु एक दिन अपनी सच्चाई, न्यायप्रियता, गरीबों तथा पीड़ितों के प्रति उमड़ती बेपनाह मुहब्बत और हमदर्दी के कारण उसे अमीर के शिकारी कुत्तों जैसे खूँखार सिपाहियों की नजरें बचाकर भाग जाना पड़ा था।

जिस दिन से उसने बुखारा छोड़ा था, न जाने वह कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा था- बगदाद, इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शी सराय, तिफ़िलस, दमिश्क, तरबेज और अखमेज और इन शहरों के अलावा और भी दूसरे शहरों तथा इलाकों में। कभी उसने अपनी रातें चरवाहों के छोटे से अलाव के सहारे-ऊँघते हुए गुजा़रीं थीं और कभी किसी सराय में, जहाँ दिन भर के थके-हारे ऊँट सारे रात धुँधलके में बैठे, अपने गले में बँधी घंटियों की रुनझुन के बीच जुगाली करने, अपने बदन को खुजाने, अपनी थकान मिटाने की कोशिश किया करते थे।

कभी धुएँ और कालिख से भरे कहवाख़ानों में, कभी भिश्तियों, खच्चर और गधे वाले ग़रीब मजदूरों और फकीरों के बीच, जो अधनंगे बदन और अधभरे पेट लिए नई सुबह के आने की उम्मीद से सारी रात सोते-जागते गुजा़रा देते थे और पौ फटते ही जिनकी आवाज़ों से शहर की गलियाँ और बाजा़र फिर से गूँजने लगते थे।

नसरुद्दीन की बहुत-सी रातें ईरानी रईसों के शानदार हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर भी गुज़री थीं उनकी वासना की प्यासी बेगमें किसी भी मर्द की बाहों में रात गुज़ारने के लिए बेबसी से हरम के जालीदार झरोखों में खड़ी किसी अजनबी की तलाश करती रहती थीं।

No comments:

Post a Comment

1