Saturday, April 19, 2008

तुमको इससे क्या

टूटी है मेरी नींद मगर, तुमको इससे क्या
बजते रहे हवाओं से दर, तुमको इससे क्या

तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा1 घूमते फिरो
कट जाएँ मेरी सोच के पर, तुमको इससे क्या

औरों के हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या

अब्र-ए-गुरेज़-पा2 को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या

तुमने तो थक के दश्त3 में ख़ेमे लगा लिए
तनहा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या

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1.मन्द समीर के समान। 2.भगोड़ा बादल। 3.अरण्य।





क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी

जिसके माथे पे मिरे बख़्त1 का तारा चमका
चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी

मैंने हाथों को ही पतवार बनाया वरना
एक टूटी हुई कश्ती मेरे किस काम की थी

वो कहानी कि सभी सूईयाँ निकली भी न थीं
फ़िक्र हर शख़्स को शहज़ादी के अंजाम की थी

ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी

बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं माँ ! तेरी ये उम्र तो आराम की थी
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1.प्रारब्ध।

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