Tuesday, April 8, 2008

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:2

एक शानदार रात की याद

(आपने इससे पहले पढ़ा: सरदारों-अमीरों की नजरों से बचता हुआ, मुल्ला दर-दर भटक रहा था। उन कठिन दिनों में भी मुल्ला मौज-मस्ती करने का मौका छोड़ता नहीं था। उन्हीं मौकों में से वह याद करता है वह खूबसूरत रात, जो उसने अपने एक दुश्मन अमीर(सरदार) के घर पर बिताई थी....)


पिछली रात भी उसने एक अमीर के हरम में ही बिताई थी। अमीर अपने सिपाहियों के साथ दुनिया के सबसे बड़े आवारा, बदनाम और बागी मुल्ला नसरुद्दीन की तलाश में सरायों और कहवाख़ानों की खाक छानता फिर रहा था ताकि उसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दे और बादशाह से इनाम और पद प्राप्त कर सके।

जालीदार ख़ूबसूरत झरोखों से आकाश के पूर्वी छोर पर सुबह की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सुबह की सूचना देनेवाली हवा धीरे-धीरे ओस से भीगे पेड़-पौधों को सुलाने लगी थी। महल की खिड़िकयों पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ चोंच से अपने पंखों को सँवारने लगी थीं। आँखों की नींद का खुमार लिए अलसायी हुई बेगम का मुँह चूमते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, “वक्त़ हो गया, अब मुझे जाना चाहिए।”


‘अभी रुको।’ अपनी मरमरी बाहें उसकी गर्दन में डालकर बेगम ने आग्रह किया। ‘नहीं दिलरूबा, मुझे अब जाने दो। अलविदा’!
क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अँधेरा फैलने लगेगा, मैं बूढ़ी नौकरानी को भेंज दूंगी ’



‘नहीं, मेरी मलिका। मुझे अपने रास्ते जाने दो। देर हो रही है।’ नसरुद्दीन ने उसकी कमलनाल जैसी बाहों को अपने गले में से निकालते हुए कहा, एक ही मकान में दो रातें बिताना कैसा होता है, मैं एक अरसे से भूल चुका हूँ। बस मुझे भूल मत जाना। कभी-कभी याद कर लिया करना ”

‘लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो? क्या किसी दूसरे शहर में कोई जरूरी काम है?’

‘पता नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी मलिका, सुबह का उजाला फैल चुका है। शहर के फाटक खुल चुके हैं। कारवाँ अपने सफ़र पर रवाना हो रहे हैं। उनके ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज तुम्हें सुनाई दे रही है ना? घंटियों की आवाज़ों को सुनते ही जैसे मेरे पैरों में पंख लग गए हैं। अब नहीं रुक सकता। ’

‘तो फिर!’ अपनी लंबी-लंबी पलकों में आँसू छिपाने की कोशिश करते हुए बेगम ने नाराज़गी के साथ कहा, ‘लेकिन जाने से पहले अपना नाम तो बताते जाओ।’

‘मेरा नाम?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उसकी आँसू भरी नजरों में नजरें डालते हुए कहा, ‘सुनो, तुमने यह रात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बिताई थी। मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ। अमन में खलल डालने वाला, बगावत और झगड़े फैलाने वाला-मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ, जिसका सिर काटकर लाने वाले को भारी इनाम देने की घोषणा की गई है। मेरा जी चाहा था कि इतनी बड़ी क़ीमत पर मैं खुद ही अपना सिर इनके हवाले कर दूँ। ’

मुल्ला नसरुद्दीन की इस बात को सुनते ही बेगम खिल-खिलाकर हंस पड़ी।


‘तुम हंस रही हो मेरी नन्हीं बुलबुल?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने दर्द-भरी आवाज़ में कहा, ‘लाओ, आख़िरी बार अपने इन गुलाबी होठों को चूम लेने दो। जी तो चाहता था कि तुम्हें अपनी कोई निशानी देता जाऊँ-कोई जेवर। लेकिन ज़ेवर मेरे पास है नहीं। निशानी के रूप में पत्थर का यह सफेद टुकड़ा दे रहा हूँ। इसे सँभालकर रखना और इसे देखकर मुझे याद कर लिया करना।’

इसके बाद मुल्ला ने अपनी फटी खलअत पहन ली, जो अलाव की चिंगारियों से कई जगह से जल चुकी थी। उसने एक बार फिर बेगम का चुंबन लिया और चुपचाप दरवाज़े से निकल आया दरवाज़े पर महल के ख़जाने का रखवाला, आलसी और मूर्ख खोजा लंबा पग्गड़ बाँधे, सामने से ऊपर की ओर मुड़ी जूतियाँ पहने खर्राटे भर रहा था। सामने ही ग़लीचों और दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया लगाए पहरेदार सोए पड़े थे।

इसके पहले:

No comments:

Post a Comment

1