Sunday, April 6, 2008

मुल्ला नसरुद्दीन-18

पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला बना मसीहा )

… ऐ मेहरबान और दानी मुसाफिर, मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो? हो सकता है तुम फ़क़ीर बहाउद्दीन हो और ग़रीबों की मदद करने के लिए अपनी क़ब्र से उठकर आ गए हो। या फिर ख़लीफा़ हारून रशीद हो। मैंने तुमसे इसलिए मदद नहीं माँगी कि तुम काफ़ी रुपया ख़र्च कर चुके हो। मेरा क़र्ज सबसे ज्यादा है।’ .....उसके आगे )


मुल्ला की दरियादिली

मुल्ला नसरुद्दीन के लिए धार्मिक किताबें बेकार थीं। लेकिन बूढे के दिल को ठेस न पहुँचे, इसलिए उसने किताब ले ली। किताब को उसने जी़न से लगे थैले में रखा और गधे पर सवार हो गया।

‘तुम्हारा नाम? तुम्हारा नाम क्या है?’ कई लोग एक साथ पूछने लगे, ‘अपना नाम तो बताते जाओ। ताकि नमाज पढ़ते वक्त़ तुम्हारे लिए दुआ माँग सकें।’

आप लोगों को मेरा नाम जानने की कोई जरूरत नहीं। सच्ची नेकी के लिए शोहरत की जरूरत नहीं होती। रहा दुआ माँगने का सवाल, सो अल्लाह के बहुत से फ़रिश्ते हैं, जो लोगों के नेक कामों की ख़बर उसे देते रहते हैं। अगर फ़रिश्ते आलसी और लापरवाह हुए और नर्म बादलों में सोते रहे, उन्होंने इस दुनिया के पास और नापाक कामों का हिसाब न रखा तो आपकी इबादत का कोई असर नहीं होगा।’

बूढ़ा चौंककर मुल्ला नसरुद्दीन को घूरने लगा। ‘अलविदा!’ खुदा करे तुम अमन-चैन से रहो।’ इस दुआ के साथ मुल्ला नसरुद्दीन सड़क के मोड़ पर पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।

अंत में बूढ़े ने खा़मोशी भंग करते हुए गंभीर आवाज़ में कहा, ‘सारी दुनिया में केवल एक ही आदमी ऐसा है, जो यह काम कर सकता है। जिसकी रूह की रोशनी और गर्मी से ग़रीबों और मजलूमों को राहत मिलती है। और वह इन्सान है हमारा...।’

‘ख़बरदार, जुबान बंद करो,’ दूसरे आदमी ने उसे जल्दी से डाँटा, ‘क्या तुम भूल गए हो कि दीवारों के भी कान होते हैं?’ पत्थरों के भी आँखें होती हैं? और सैकड़ों कुत्ते सूँघते-सूँघते उसे तलाश कर सकते हैं।’

‘तुम सच कहते हो,’ तीसरे आदमी ने कहा, ‘हमें अपना मुँह बंद रखना चाहिए। ऐसा वक्त़ है जबकि वह तलवार की धार पर चल रहा है। जरा़-सा भी धक्का उसके लिए खतरनाक बन सकता है।’

बीमार बच्चे की माँ बोली, ‘भले ही लोग मेरी जुबान खींच लें लेकिन मैं उसका नाम नहीं लूँगी।’

‘मैं भी चुप रहूँगी।’ दूसरी औरत ने कहा, ‘मैं भले ही मर जाऊँ लेकिन ऐसी गल़ती नहीं करूँगी, जो उसके गले का फंदा बन जाए।’

संगतराश चुप रहा। उसकी अक्ल कुछ मोटी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यदि वह मुसाफ़िर कसाई या गोश्त बेचने वाला नहीं है तो कुत्ते उसे सूँघकर कैसे तलाश कर लेंगे? अगर वह रस्से पर चलने वाला नट है तो उसका नाम लेने में क्या हर्ज है? उसने जो़र से नथुने फटकारे, गहरी साँस भरी और निश्चय किया कि इस मामले में वह और ज़्यादा नहीं सोचेगा। वरना वह पागल हो जाएगा।


इस बीच मुल्ला नसरुद्दीन काफ़ी दूर जा चुका था। लेकिन उसकी आँखों के आगे अब भी उन ग़रीबों के मुरझाए चेहरे नाच रहे थे। बीमार बच्चे की ओर उसके सूखे होठों तथा तमतमाए गालों की उसे बराबर याद आ रही थी। उसकी आँखों के आगे उस सफेद बालों वाले बूढ़े की तस्वीर नाच रही थी, जिसे उसके घर से निकाल दिया गया था।

वह क्रोध से भर उठा और गधे पर अधिक देर तक बैठा न रह सका। कूदकर नीचे आ गया और गधे के साथ-साथ चलते हुए ठोकरों से रास्ते के पत्थरों को हटाने लगा।


‘सूदख़ोरों के सरदार ठहर जा, मैं तुझे देख लूँगा।’ वह बड़बड़ा रहा था। उसकी आँखों में शैतानी चमक थी। ‘एक न एक दिन तेरी मेरी मुलाक़ात ज़रूर होगी, तब तेरी शामत आएगी। अमीर, तू काँप और थर्रा, क्योंकि मैं मुल्ला नसरुद्दीन बुखारा में आ पहुँचा हूँ।’

मक्कार और शैतान जोको, तुमने दुखी जनता का ख़ून चूसा है। लालची लकड़बग्घो, घिनौने गीदड़ो, तुम्हारी दाल हमेशा नहीं गलेगी। सूदख़ोर जाफ़र, तेरे नाम पर लानत बरसे। मैं तुझसे उन तमाम दुखों और मुसीबतों का हिसाब ज़रूर चुकाऊँगा, जो तू ग़रीबों पर लादता रहा है।’

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