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Tuesday, December 14, 2010

अनोखा रिश्ता

अनोखा रिश्ता

मोहन को अपने बाबा से बहुत प्यार है। घर में असके माता-पिता भी हैं, पर मोहन को अपने बाबा के साथ रहना अच्छा लगता है। बाबा मोहन को कहानियाँ सुनाते हैं, उसके साथ गाँव घूमने जाते हैं और कभी भूले से भी उसे डांटते नहीं।


आज बाबा अपने पोते मोहन के लिए टोकरा भर आम लाए हैं। आम देखते ही मोहन खुश हो गया। बाबा ने आम बाल्टी में डालकर धोए। उसके बाद दोनों ने जी भरकर मीठे-मीठे आम खाए।

मोहन ने बाबा से कहा, ”बाबा, अगर हमारे घर में एक आम का पेड़ होता तो कितना अच्छा होता! जब जी चाहता, आम तोड़कर खाते।“

”हाँ, मोहन बेटा, आम का पेड़ फल के अलावा और भी बहुत-सी चीजें हमें देता है।“

”आम का पेड़ और कौन-सी चीजें देता है, बाबा?“

”देखो बेटा, आम का पेड़ जब बड़ा हो जाता है तो ठंडी छाया देता है। आम की पत्तियों से बंदनवार बनाई जाती है।“

”रामू भैया की शादी में इसीलिए उनके घर में बंदनवार और पानी के कलश पर आम की पत्तियाँ लगाई गई थीं!“

”अरे तुम भूल गए, आम की पत्तियों से तुम पीपनी बनाकर बाजा भी तो बजाते हो।“ बाबा ने हॅंसते हुए कहा।

”आम का पेड़ सच में बहुत अच्छा होता है, बाबा। हम अपने घर के आँगन में आम का पेड़ ज़रूर लगाएंगे।“

”ठीक है। मैं कल ही तुम्हारे लिए आम का पौधा ले आऊंगा।“

अगले दिन बाबा सुबह-सुबह आम का पौधा ले आए। बाहर के दरवाजे से ही आवाज दी,

”मोहन, तुम्हारे लिए आम का पौधा ले आया हूँ। जब यह पौधा पेड़ बन जाएगा तो इस पर तोते, कोयल, मैना और न जाने कितने तरह के पक्षी आया करेंगे।“

”वाह! तब तो बड़ा मजा आएगा। कोयल की आवाज कितनी मीठी होती है!“

”हाँ, मोहन, पेड़ इंसान और पक्षियों के सबसे अच्छे दोस्त होते है। पंछी तो पेड़ों पर ही बसेरा करते हैं।“

”बाबा, पेड़ तो बात नहीं करते, फिर वे हमारे दोस्त कैसे बन सकते हैं?“

”देखो बेटा, जिस तरह दोस्त तुम्हारी मदद करते हैं, उसी तरह बिना तुमसे बात किए पेड़ भी तुम्हारी मदद करते हैं।“

”वह कैसे, बाबा?“

”यह बात ठीक से समझ लो। पेड़ वातावरण से जहरीली कार्बन डाईआक्साइड गैस लेते हैं और हमें साफ़ हवा यानी आक्सीजन देते हैं। आक्सीजन न हो तो हम सांस नहीं ले सकते, यानी जिंदा ही नहीं रह सकते।“

”तब तो पेड़ बहुत अच्छे होते हैं। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती। फिर भी लोग पेड़ों को काटते हैं, भला क्यों?“ मोहन ने भोलेपन से पूछा।

”पैसों के लालच में। वे नहीं जानते कि पेड़ों को काटने से हवा में जहरीली गैस बढ़ती जाती है।“

”मैं समझ गया, बाबा। पेड़ हमारे सबसे पक्के दोस्त हैं।“

”ये लो, लगा दिया आम का पोधा,“ बाबा ने इतना कहते हुए पौधे के आसपास थोड़ा पानी डाला।

”बाबा, मैं इस पौधे को रोज पानी दूंगा। जब इसमें आम लगेंगे तो हम दोनों जी भरकर खाएंगे।“

”मेरे बच्चे, हो सकता है, तेरा बाबा आम के फल न खा सके, पर तुझे जरूर मीठे आम मिलेंगे।“

”क्यों बाबा, आप आम क्यों नहीं खाएंगे?“

”अरे, तेरा बाबा बूढ़ा जो हो गया है, पर मेरी सौगात तुझे जरूर मिलती रहेगी।“

”नहीं, बाबा। आप आम जरूर खाएंगे।“ मोहन ने दृढता से कहा।

बाबा ने प्यार से मोहन का सिर सहलाकर उसे आशीर्वाद दिया, और कहा-

”भगवान तुझे खुश रखे। इस पेड़ को अपने बाबा की तरह ही प्यार करना, मोहन!“

समय बीतता गया। मोहन रोज आम के पौधे को पानी देता। पौधा धीरे-धीरे पेड़ का रूप लेकर बड़ा होने लगा। उसके हरे-हरे पत्ते सबको अच्छे लगते। कुछ समय बाद आम के पेड़ में बौर आ गया। कोयल आकर आम के पेड़ पर ‘कू-हू’ ‘कू-हू’ गीत गाने लगी। और भी कई प्रकार के पक्षियों का पेड़ पर जमघट लगा रहता। मोहन बहुत खुश था, पर तभी भगवान ने उसके बाबा को अपने पास बुला लिया।

बाबा की मौत पर मोहन बहुत रोया। तभी उसे याद आया, बाबा ने कहा था ‘आम के इस पेड़ को अपने बाबा की तरह ही प्यार करना!’

मोहन अब आम के पेड़ के नीचे बैठकर पाठ याद करता। उसे लगता यह आम का पेड़ नहीं, उसके सिर पर बाबा का साया है। मोहन जब भी बाबा के लगाए पेड़ के आम खाता, उसे बाबा बहुत याद आते। मोहन की माँ कहती, ”बाबा मोहन को आम खाते देखकर खुश होते होंगे।“

मोहन के पिता को एक परेशानी थी। आम में जब फल लगते, बाहर से बच्चे पत्थर मारकर आम तोड़ने की कोशिश करते। एक दिन घर की खिड़की का शीशा टूट गया। कुछ दिन बाद मोहन की माँ का माथा पत्थर लगने से फट गया। रोज-रोज की इन घटनाओं से तंग आकर मोहन के पिता ने आम का पेड़ कटवाने का निश्चय कर लिया।

माँ ने भी कहा, ”आम की लकड़ी से घर की कई चीजें बन जाएंगी।“

एक दिन पेड़ काटने वाले कुल्हाड़ी लेकर आ गए। मोहन ने पेड़ काटने से मना किया,

”मैं इस पेड़ को नहीं काटने दूंगा। इसे बाबा ने लगाया था।“

मोहन के पिता ने बहुत समझाया कि वह मोहन को बाजार से आम ला देंगे। पेड़ की वजह से खिड़की-दरवाजे के शीशे टूटते हैं। आम तोड़ने के लिए फेंके गए पत्थर से तुम्हारा सिर भी तो एक बार फट चुका है। भूल गए क्या? तुम्हारी माँ का माथा तो अभी उसी दिन फटा है।

मोहन भागकर पेड़ के तने से लिपट गया, और रोते हुए बोला, ”पिताजी, यह आम का पेड़ बाबा की तरह हमें प्यार करता है। इसे मत कटवाओ।“

पिता हॅंस पड़े। भला बेजान पेड़ मोहन के बाबा की तरह प्यार कैसे कर सकता है?

मोहन कहता गया,  ”जब पेड़ की डालियाँ हिलती हैं तो मुझे लगता है जैसे बाबा मेरा सिर सहला रहे हैं। पेड़ की चिड़ियाँ, बाबा की तरह मुझसे बातें करती हैं।“

माँ ने भी मोहन को समझाना चाहा,  ”देखो बेटा, ये बेकार की बातें हैं। तुम पेड़ से अलग हो जाओ।“

”नहीं, माँ। यह पेड़ हमारा दोस्त है। सारी जहरीली गैस लेकर यह हमें साफ़ हवा देता है। ठंडी छाया और मीठे फल देता है। बदले में हमसे कुछ भी नहीं लेता।“ मोहन ने पेड़ के तने को प्यार से सहलाया और राते-रोते हिचकियाँ लेने लगा।

माँ सोचने लगी - मोहन कहता तो ठीक है। ये पेड़ तो बस हमें देते ही हैं, लेते कुछ नहीं। ये दाता हैं।

फिर क्यों न मोहन की बात मान ली जाए?

तभी पड़ोस की गंगा ताई आई। उनकी बेटी की शादी में आम के पत्तों से बंदनवार बनानी थी। उन्हें आम के पत्ते चाहिए थे।

मोहन ने माँ से कहा, ”देखो माँ, आम के पेड़ की हर चीज काम आती है। लकड़ी से मेज-कुर्सी बनती है, पत्ते खुशी के मोकों पर सजाए जाते हैं। साफ हवा और ठंडी छाया भी हमें आम ही देता है।“

”तुम ठीक कहते हो, मोहन! अब मैं आम का पेड़ नहीं कटने दूंगी। साथ ही, हम अमरूद और लीची के पेड़ भी आँगन में लगवाएंगे।“

”हाँ, बेटा, हम गलती पर थे। पेड़ सचमुच हमारे दोस्त हैं। हमें पेड़ों से प्यार करना चाहिए।“ अब पिता ने भी मोहन की बात मान ली। आम का पेड़ कटवाने की बात सोचने पर उन्हें पछतावा भी हुआ। वैसे, पेड़ कटवाने की बात सोचकर उन्हें भी दुख हुआ था, पर रोज-रोज की घटनाओं से वह तंग आ गए थे।

”हमारी किताब में लिखा है कि पेड़ पानी बरसाने और बाढ़ रोकने में भी हमारी मदद करते हैं। पेड़ काटना ठीक नहीं है।“ माता-पिता को मानते देख मोहन बहुत खुश था।

”किताब में ठीक लिखा हुआ है, मोहन!  अब हम पेड़ काटने की ग़लती नहीं करेंगे। पेड़ों से प्यार का रिश्ता जोड़ना ही ठीक है।“

”तभी तो मैं आम के पेड़ को अपना बाबा मानता हूँ।“

”ठीक कहते हो, मोहन!  तुम्हारे बाबा तुम्हें यह पेड़ सौगात में देकर गए हैं। इसके मीठे फलों में जरूर तुम्हारे बाबा का प्यार छुपा है।“

”मेरी अच्छी माँ,  मेरे अच्छे पिताजी!“ मोहन ने अपनी माँ का हाथ चूमा और आंसू पोंछकर खेलने भाग गया। आम के पेड़ से कोयल ने भी खुशी का गीत गाया-कूहू..........कूहू....।

Wednesday, November 10, 2010

एक का चार... एक का चार...

एक का चार... एक का चार...

आइए! मेरे पास आइए। एक का तीन... एक का तीन। क्या कहा कम है! तो लो- एक का चार... एक का चार। आपके पैसे को चार गुना कर दूंगा। देर किस बात की! आप आइए अपने पडोसी को भी लाइए। पडोसी ही नहीं अपने रिश्तेदारों को भी लाइए। बूढें भी आए जवान भी। निरोगी भी आए रोगी भी। अमीर भी आए गरीब भी। पढे-लिखे भी आए अनपढ़ भी। सबके पैसे चार गुने हो जाएंगे। महज कुछ दिन में । इस मौके को लाभ उठाइए। पहले आए पहले पाए।

अगले दिन-

ऐ भाई ! मेरे पैसे ले लो। पहले मेरे पैसे ले लो। नहीं मेरे! नहीं पहले मेरे... बारी बारी से! एक एक करके! सबकी बारी आएगी। अधीर मत हो आप लोग। मैं तो इस धरती पर आप सबका कल्याण करने ही आया हूं। चेली! तू एक- एक कर सबसे पैसे ले लें। देख कोई भी छूटने न पाए। जी महाराज... सबके पैसे ले लूंगी। हूंह..अलख निंरजन.. आखिर उन्नति पर सबका अधिकार है। सत्य वचन महाराज। चेली के साथा भक्तगण बोले। महाराज की जय हो! महाराज की जय! बडे क़ृपालू है महाराज! बडे दयालू है बाबा! ऐ तू क्या सोच रहा है बालक! महाराज! आज्ञा हों तो एक सवाल पूछू... पूछो बत्स! महाराज, आप इतनी जल्दी पैसें को कैसे चार गुना कर सकते है! ओह! ये बात है। मैं चाहूं बच्चा एक के आठ कर दूं। कैसे महराज! ये देख, मेरी जादू की छड़ी। इस छड़ी से चाहूं तो सब कुछ कर सकता हूं। तुझे गधा भी बना सकता हूं। ये ले हवा से भभूत लें। चमत्कार! चमत्कार! नहीं महराज मुझे गघा नहीं बनाइएगा। क्षमा करें महाराज। गलती हो गई। मेरे पैसे भी ले ले। महाराज की जय हो! चेली! जी महाराज! ले लिया... जी महाराज। अति सुंदर। बाबा कितनें दिनों बाद आए हम सब! जब मन आए तब आना। जी महाराज। बोलो, महराज जी की जय।

भीड़ की प्रतिक्रिया-

भीड़ में खुसर-फुसर । माहराज जी को दिव्य शक्ति मिली है। वो तो देवी जी के भक्त है। देखा नहीं वो जादूई छड़ी! सोने की है सोने की! लाखों की होगी लाखों की! बडे सिध्द पुरुष है! अरे,साक्षात् भगवान कहो भगवान!

महाराज और चेली संवाद-

आज कितना क्लेकशन हुआ? आज तो चमत्कार हो गया! कितना आया.. पूरे के पूरे पचास लाख। तू बस देखती जा! पैसे देने भी तो होगे! हां, शुरूआत में देने तो पडेग़े वरना हम अरबपति कैसे बनेगे! ठीक कहते हो! अच्छा बहुत थका गया हूं मेरे लिए पैग बना! हमेशा अपने बारे में ही सोचते हो! अच्छा बाबा हम दोनों के लिए पैग बना...

अगले दिन-

महाराज की जय! चमत्कारी बाबा की जय! ठीक है... ठीक है... आप लोग अपना पैसा ले ले। चेली! जी महाराज! सबके पैसे देदे! जैसी आज्ञा महाराज! लो भाई एक के चार लो। मेरे दस थे... मेरे पांच... सबको मिलेगा। मिल गया। मिल गए। मेरे तो चार गुना हो गए। मेरे भी और मेरे भी। परन्तु बाबा हम लोगो को आपने पैसे नहीं दिए? कई लोग अभी बाकी रह गए है बाबा! आप लोगो को भी मिलेगा। धैर्य रखें। देखा नहीं इन लोगो को मिला। क्यों भाइयों! हां, मिला भाई! चार गुना मिला। महाराज की जय! जय! जय!

महाराज और चेली संवाद-

आज तो बहुत कम पैसे बचे! कल देखना कल! चल अब पैग बना दे। मुझे घूर क्यों रही है! अरे, हम दोनों के लिए कह रहा हूं। हा हा हा...ही ही ही...

अगले दिन-

महाराज की जय! बाबा की जय! पैसे वाले बाबा की जय। मां भगवती के अवतार की जय! श्री श्री श्री महाराज की जय। बाबा मेरे पैसे भी लो। मेरे भी। मेर भी।मेरे,मेरे मेरे! पहले मेरे, नहीं पहले मेरे। मेरे,मेरे,मेरे।

महाराज और चेली संवाद-

आज तो कमाल हो गया! एक दिन में इतना क्लेकशन! बाप रे बाप। मैंने कहा था न! आज जितना पैसा मिला उतना तो सारी जिंदगी कमाते तो भी न मिलता। सारी जिंदगी... अगर सातों जनम कमाते तब भी इतना कमा न पाते,पगली। सही कहते हो जानूं मगर अब क्या! चलते है कही और! क्या करगें... यही करेगें। मगर इस बार सोने की छड़ी से नहीं भभूत से पैसे बनाएगें। वो भी एक का चार नहीं...एक का दस बनाएगें। लोग विश्वास करेगें! अरे करेगें कैसे नहीं! चमत्कार को नमस्कार करने वालो की कमी नहीं यहां पर। ला पैग ला। पूरी बोतल पीओ न सरकार!

अगले दिन-

भीड़ में खुसर-फुसर। बाबा कहां गए! चेली कहां गई! हाय! मेरे पैसे! हाय! मेरे पैसे। हम लुट गए! लुट गए! लोभी निकले दोनों। ढोंगी निकले दोनो। महाराज ने हमारे विष्वास का छला। हाय! अब हम क्या करे! जो था वो भी गया। हम भोलेभाले लोगो को ठग गया। अच्छा नहीं किया। गरीबों की हाय लगेगी, हाय! तभी बादल गरजे, बिजली चमकी और आकाशवाणी हुई।

आकाशवाणी-

ये भोलेभाले क्या लगा रखा है! तुम सब भोलेभाले नहीं मूर्ख हो। तूम सब गरीब भी नहीं। अगर गरीब होते तो मेहनत को कैसे भूल जाते। आज जिसे तुम ढोंगी कह रहे हो, वो तुम्हारा लोभी मन है। तुम्हारे ही मन का अतिषय लोभ। तुम सब जनक हो उस ढोंगी के। वो स्वयंभू नहीं है। यदि जनक न भी मानो स्ंवय को पोषक तो अवष्य मानना ही पडेग़ा। चाहकर भी तुम सब इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते हो। जरा अपनी तादात तो देखों। कितने सारे हो। तुम्हारी तादात देख कर डर लगता है। जाओ सब लौट जाओ। प्रतीक्षा करो! भूल सुधार! प्रतीक्षा नहीं पैदा करो! एक और नए चमत्कारी बाबा को।

भीड़ की प्रतिक्रिया-

हम भोले-भाले सीधे-साधे,अच्छे-सच्चे लोगो को ठग कर अच्छा नहीं किया। तोड़ दो! फोड़ दो! जाम लगा दो! आग लगा दो! आखिर हमारा पैसा है हमारा! ऐसे थोडे न जाने देगे! चलो सारे थाने। रपट लिखाने। चलो,चलो,चलो। भीड़ में किसी एक भोलेभाले की भुनभुनाहट- मुझे पहले ही संदेह था उस ढोंगी पर । सच कहूं तो पक्का संदेह। इतनी जल्दी एक का चार संभव है कही! लेकिन ...

एक ही रंग

एक ही रंग

बके मुंह पर एक ही बात थी। सुबह, शाम हर व्यक्ति उस दीवार के विषय में ही चर्चा कर रहा था। आख़िर जयहिन्द स्कूल के अहाते की दीवार थी। जयहिन्द स्कूल - अंधा मुगल क्षेत्र का अग्रणी स्कूल। बातें दीवार की ही थीं।
'आख़िर यह दीवार क्यों उठाई जा रही है?'

'जब अब तक इसके बिना स्कूल चल रहा था तो अब इसकी ऐसी क्या आवश्यकता आन पड़ी है?'

'यह सरकार बजट तो घाटे के बनाती ही है, काम भी घाटे के ही करती है!'

'अच्छा भला स्कूल था, उसे जेल बनाया जा रहा है!'

'कभी किसी बात का सही पहलू भी सोचा करो। अब बच्चे स्कूल से भागकर आवारागर्दी करने से बच जाएंगे।'

'प्रिसींपल का कितना हिस्सा होगा?'

'अरे यह काम करप्शन - मेरा मतलब कार्पोरेशन का है।'

'फिर तो एक बात साफ़ हो गई। ठेकेदारी और हेराफ़ेरी में तो चोली दामन का साथ है। ऊपर से नीचे तक माल बनेगा और बंटेगा।.......'

'दीवारें तो बंटवारे का ही काम करती हैं; चाहे बर्लिन की दीवार हो या दिलों की, काम तो उसका बांटना ही है।'

यानि कि जितने मुंह उतनी बातें। किंतु इन सब बातों से बेख़बर दीवार उठती ही गई। दीवार का अस्तित्व ना तो अध्यापकों को ही पसंद आया था और ना ही विद्यार्थियों को। सबको ही पहले वाले खुले वातावरण की आदत-सी पड़ गई थी। अध्यापक पहले तो कारर्पोरेशन को कोसते नहीं थकते थे।.......'स्कूल है या ओपन एयर थियेटर!' किंतु अब वही दीवार उन्हें जैसे काटने लगी थी।

किंतु एक व्यक्ति ऐसा भी था जो उस दीवार को देखकर मन ही मन कार्पोरेशन और प्रिसींपल को दुआएं दे रहा था। उस दीवार को देखकर वह मन ही मन लड्डू बनाए जा रहा था। आंखों में एक अद्भुत चमक लिए उस दीवार में वह अपना भविष्य देख रहा था।

वह था सुदर्शन नाई!

वैसे पूंजी के नाम पर उसके पास दिखाने को कुछ विशेष नहीं था। एक पुरानी-सी कुर्सी - दुनिया की एकमात्र कुर्सी जिसे छोड़ने पर सभी चैन की सांस लेते थे। एक पुराना सा शीशा जो जगह-जगह से धुंधला पड़ चुका था और एक पुरानी सी संदूकची जिसमें उससे भी पुराने औज़ार रखे रहते। इन्हीं चीज़ों के सहारे वह किसी तरह अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचे जा रहा था।

माल तो ऊपर से नीचे तक बंट रहा था। उसने भी अपना चक्कर चला ही लिया। और फिर काम भी तो कोई बहुत बड़ा नहीं था। केवल एक मोड़ ही तो देना था। दीवार में कुछ ऐसे मोड़ दिलवा दिये कि वहां एक बिना किवाड़ की छोटी-सी दुकान दिखाई देने लगी।

दीवार पूरी होते ही उसने वहां सीमेंट की दो चादरें डलवा लीं और साथ ही एक दरवाज़ा भी लगवा लिया। अब वह एक अदद दुकान का मालिक था।

दिक्कतें तो बढ़ी उसके ग्राहकों की, जिन्हें अब तक कांग्रेस और जनसंघ की बातें सुनने को मिलती थी। कितुं अब सुदर्शन नाई की सोच, बातचीत, जीवन केवल एक ही विषय पर आधारित था -दीवार। दीवार कैसे कटवाई; सीमेंट की शीट कहां से लाया; कौन से कबाड़िये से दरवाजा लिया।

'लालाजी, अब तो दलिद्र कट गये। हम भी दुकान वाले हो गये। सालों बीत गये थे जी पटरी पर बैठै.......आपसे क्या छुपा है, आप तो मेरे परमानेन्ट ग्राहक हैं.......बस जी दो पैसे जोड़ लूं इसको हेयर कटिंग सैलून बना दूंगा। ऐसे मौके की दुकान तो पगड़ी पर भी नहीं मिलेगी.......लालाजी ज़रा दीवारें तो देखिये.......ख़ास ओवरसियर से कह के सीमेंट भरवाया है.......चाहे बाकी की दीवार टूट जाए, पर मेरी दुकान को कुछ नहीं होगा.......'

'ठीक है, ठीक है, सुदर्शन लाल, जरा ध्यान से; कहीं कट नहीं लग जाए।' लाला मुकंदलाल उकताए से बोले।

सुदर्शन लाल उनके वाक्य पूरे होने की प्रतीक्षा नहीं कर सका। उससे पहले ही लालाजी के पांव की जूती बन गया। घिघियाने लगा, 'आपके भरोसे दिन काट रहा हूं, लालाजी। ज़रा दया दृष्टि रखियेगा। कहीं कोई दुश्मनी ना निकाल ले।'

'क्यों किसी से वैर, विरोध हो गया है क्या?'

'नहीं लालाजी, मैं ग़रीब आदमी, भला मैं किसी से क्यों दुश्मनी मोल लूंगा। आप लोगों का आर्शीवाद बना रहे तो हम जैसे ग़रीबों के दिन भी आसानी से कट जायेंगे। हमारे भगवान तो बस आप ही हैं।'

सुदर्शनलाल का अंतिम वाक्य लाला मुकंदलाल को विशेष रूप से भा गया। उन्होंने खड़े-खड़े ही भगवान कृष्ण का विराट स्वरूप धारण कर लिया। ज्ञान के चक्षु खोले। मुकुंद गीता का उपदेश शुरु हो गया, “सुदर्शनलाल, तू चिंता छोड़ और बेफिक्र होकर यहां रह। आज के दौर में जिसने हाथ नहीं मारा, वह बेवकूफ़है। हमारे सामने कितने ही शरीफ़ लोगों ने करोड़ों के घपले किये और आज भी ईमानदारी और समाज सेवा का लेबल लगाए बड़ी शान से कारों में घूमते हैं। स्साले.......! पैसा काला और कार सफेद!....... तुमने तो कुछ किया ही नहीं। यह दौलत ट्रांस्पोर्ट वाला लक्ष्मीदास एक ट्रासंपोर्ट कंपनी मे मामूली क्लर्क था। आज उसी कंपनी का मालिक है। अब तू ही बता, इतना पैसा इसके पास कहां से आया। ईमानदारी से तो यह हो नहीं सकता। अपने मालिक की मौत के कुछ अर्से बाद ही उसकी पत्नी को धोखा देकर सब कुछ हड़प गया.......लक्ष्मीदास से चौधरी लक्ष्मीदास हो गया.......इलाके में दबदबा है, शान है! सब लोग अपने दुखड़े लेकर उसी के पास ही जाते हैं।.......हमें क्या भैया, जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।” लाला मुकंदलाल ने ठण्डी सांस भरी।

लाला मुकंदलाल निकले ही थे कि चंदरभान जी आ बैठे। ग्राहक देखते ही सुदर्शनलाल की दीवार फिर खड़ी हो गई। वही सीमेंट शीट, वही दरवाज़ा, ''साबजी, जरा इधर भी कृपा-दृष्टि रखियेगा। गरीब आदमी हूं; आप लोगों की हजामत करके पेट पालता हूं।''

चन्दरभान सामने लगे धुंधले शीशे में अपना चेहरा देखने का असफल प्रयत्न करते हुए बोले, 'भई, आजकल तो जिसकी लाठी उसकी भैंस का ज़माना आ गया है। अब वो अंग्रज़ों का ज़माना तो है नहीं कि शेर और बकरी एक घाट पर पानी पियें। अगर कोई लाठी है तो उसे घुमाते रहो, दनदनाते रहो और चैन की बंसी बजाते रहो। वरना जब तक चलती है चलाते रहो।'

सुदर्शनलाल को उसकी बात कोई विशेष अच्छी नहीं लगी। कैंची से उनकी मूंछे ठीक करने लगा, 'वैसे तो इंदिरा कांग्रेस के चौधरी लक्ष्मीदास अपने खास आदमी हैं। पिछले दस साल से उनकी हजामत बना रहा हूं। कभी भी शिकायत का मौका उन्हें नहीं दिया। उन्होंने भरोसा दिलाया है कि कोई भी मुश्किल होगी तो संभाल लेंगे।

चौधरी लक्ष्मीदास का नाम चंदरभान जी के गले में बेर की गुठली की तरह फंस गया, 'जरा बच कर रहना। पिटा हुआ मोहरा है। पिछले चुनाव में चारों खाने चित्त गिरा था। हारा हुआ जुआरी और खोटा पैसा मुश्किल से ही साथ देते हैं।'

सुदर्शनलाल को चंदरभान की बेवक्त की रामायण कुछ भाई नहीं। उसके अंदर का 'नायक' तनकर खड़ा हो गया। जैसे महाभारत में भीष्म पितामह ने अपने सामने खड़े तुच्छ योध्दाओं की ओर हुंकार फेंकी हो, 'बाऊजी, भगवान का दिया खाते हैं। किसी के घर भीख मांगने नहीं जाते। यहां बैठा हूं अपने दम पर। किसी लाला या चौधरी के सहारे नहीं। दस साल हो गये यहीं बैठ कर लोगों की हजामत बनाते। यह दीवार तो कार्पोरेशन ने अब बनवा दी। मैं.......तो आप जानते हैं कब से यहीं हूं। यहां काम करते-करते कितनों के खोखे और कितनों के घर बुलडोज़रों की नजर होते देखे हैं।.......सच कहता हूं बाऊजी, कोई मेरी दुकान की तरफ आंख उठाकर देखे, उसकी तो मैं मां.......!' सुदर्शनलाल हांफने लगा था।

चंदरभान जी भी सुदर्शन लाल के नाटक का आनन्द लेने लगे। वैसे भी वे तो राजनीतिज्ञ थे। भांति-भांति के अदाकारों के अभिनय वे प्रतिदिन देखा करते थे। उन्होंने घड़ी देखी। समय उनके पास कम था। सुदर्शन लाल को टालते हुए बोले, 'ठीक है भई, हमें तो खुशी है कि तुम यहां टिके रहो। ठीक-ठाक आदमी हो, पुराने आदमी, सौ लिहाज़ शर्म! सुना नहीं नया नौ दिन, पुराना सौ दिन।'

समय ऊंट से भी कहीं अधिक अननुमेय होता है। एक बार ऊंट का तो संभवत: पता चल भी जाए कि वह कौन-सी करवट बैठेगा। किंतु समय कब करवट बदलेगा किसी को कुछ भी ज्ञान नहीं होता। समय के विषय में तो बड़े-बड़े ज्ञानी ध्यानी कुछ नहीं कह पाते। फिर सुदर्शन लाल तो सीधा-सादा नाई ही था।

समय ने करवट ली और सुदर्शन लाल की 'दीवारी दुकान' के समीप ही एक और खोखा कुकुरमुत्ते की तरह उभर आया। यह खोखा बाबूराम नाई का था। अभी कुछ ही दिन पहले नगर निगम वाले उसका खोखा गिरा गये थे। बाबूराम भी इसी इलाके में कई वर्षों से काम करता रहा है। उसका खोखा पहले आर्य समाज मंदिर के पिछवाड़े में था। हफ़्ता तो वह नियमित रूप से दे रहा था, फिर भी नगर निगम वालों को कभी-कभी तो अपना काम भी दिखाना होता है ना। सो कभी-कभी हफ्ता देने वाले भी उस चपेट में आ ही जाते हैं।

अब इसका क्या करें कि बाबूराम के हाथ में सुदर्शन लाल से कहीं अधिक सफ़ाई थी। अब क्योंकि बाबूराम का खोखा नया था तो उसने पैसे लगाकर शीशा भी नया लगवाया, कुर्सी भी माडर्न और सामान भी नया। सुदर्शन लाल की दुकान भी खोखा ही लगती थी और बाबूराम का खोखा भी सुंदर-सी दुकान लगता था। ग्राहकों का भी क्या दोष। उन्हें भी चमक-दमक वाली बाबूराम की 'खोखा सैलून ' ही पसंद आने लगी। चंदरभान, लाला मुकंदलाल और चौधरी लक्ष्मीदास जैसे सुदर्शन लाल के पक्के ग्राहक भी कन्नी कतरा कर बाबूराम के यहां जाने लगे।

सुदर्शन लाल की दीन याचक मुद्रा पर किसी को तरस नहीं आया, उसकी ख़ुशामद से कोई नहीं पसीजा। अब उसका काम ठण्डा पड़ने लगा। एक दिन चंदरभान जी वहां से गुज़रे तो सुदर्शन लाल ने जैसे उन्हें पकड़कर बैठा ही लिया, 'लालाजी, कोई नाराज़गी है? बहुत दिनों से दर्शन नहीं हुए आपके?'

'सुदर्शन लाल', चंदरभान दार्शनिक मुद्रा में पहंच गये, 'बहुत दिन गुज़ार लिये सादगी में। अब तो सजावट और बनावट का जमाना है। बाबूराम की दुकान कभी देखी है, कितनी साफ़ सुथरी है। हर चीज कितनी सुंदर लगती है। तुम्हारे यहां क्या रखा है? - चूं-चूं करती चारपाई, कुर्सी है तो अब गिरी कि तब गिरी और उस पर तुम्हारा शीशा! .......नगद नारायण को हवा लगवाओ। ऊपर साथ तो कुछ ले जाओगे नहीं! .......ग्राहक वापिस लाने हैं तो बाबूराम से बेहतर दुकान सजाओ।'

सुदर्शन लाल के दिमाग क़ो यह बात जंच गई। निर्णय ले लिया कि अब तो दुकान को हर हाल में बेहतर बनाना ही है। सप्ताह भर में ही नई कुर्सी, नया शीशा, रंग-बिरंगे विदेशी डिब्बों में देशी पाउडर, डिटॉल की शीशी, क्रीम, शेविंग क्रीम, आफ्टर शेव लोशन, वगैरह, वगैरह आ गये। और तो और उसने अपने कपड़े भी बदल डाले। पजामें की जगह पतलून और उस पर सफ़ेद कोट। कमी थी तो केवल एक वस्तु की - बाबूराम सरीखी हाथ की सफ़ाई की।

यत्न तो काफ़ी करता रहा सुदर्शन लाल कि उसके पुराने ग्राहक फिर उससे हजामत बनवाने लगें। किंतु उखड़ी फ़ौज और उखड़े ग्राहकों का लौटना बहुत कठिन होता है। उसके सारे प्रयत्न और ख़र्चा बाबूराम की बढ़ती लोकप्रियता को नहीं रोक पाये।

ताश के खेल में जीतने वाले खिलाड़ी को बहुत आनंद आता है। किंतु हारते हुए खिलाड़ी को सब बेमानी लगता है। सुदर्शन लाल में भी हीन भावना ने घर कर लिया। काम में भी उसकी रुचि कम होने लगी। झुंझलाहट में वह अब दुकान पर भी कम ही रहता। विवशता में छटपटाता तो खूब किंतु इससे तो कुछ हो नहीं सकता था। मुंह पर अंगोछा डाले खाट पर लेटा रहता। ग्राहकों से खिंचा रहता। स्कूल के अध्यापक भी उसकी बदमिजाज़ी का शिकार होने लगे।

अध्यापकों में अभी सुदर्शन लाल के विरुध्द कानाफूसी चल ही रही थी कि वह स्कूल के प्रिंसीपल से उलझ बैठा। प्रिंसीपल ने केवल इतना भर ही कह दिया था कि वह दुकान से उड़ते बालों का थोड़ा ध्यान रखे क्योंकि बाल उड़कर कक्षा की ओर जाते थे और विद्यार्थियों को कठिनाई होती थी। बस उखड़ गया सुदर्शन लाल।

यह उखड़ना सुदर्शन लाल को ख़ासा महंगा पड़ गया। उसी शाम को थाने से बुलावा आ गया। थानेदार की तू-तड़ाक और एक करारे थप्पड़ ने सुदर्शन लाल को धरती पर ला बिठाया, हरामज़ादे, अब अगर कभी तेरी शिकायत आई तो बंद कर दूंगा।.......एक तो गै़र-कानूनी खोखा बना रखा है, उस पर स्कूल के मास्टरों से ही बदतमीज़ी करता है। खाल खींच लूंगा साले की।'

घबराया, परेशान, दु:खी और अपमानित सुदर्शन लाल जब वापिस दुकान पर पहुंचा तो एक बात तो उसके मन में बैठ चुकी थी कि यह प्रिंसीपल और अध्यापक उसकी दुकान वहां से उठवा देना चाहते हैं। यही लोग हैं जो उसकी रोज़ी-रोटी पर लात मारना चाहते हैं।.......दो बेटियां हैं, उनका विवाह भी करना है। दुकान पर भी ख़ासा व्यय हो चुका है। उस पर शनि बाबूराम सिर पर आ बैठा है। और अब यह राहु और केतु - प्रिंसिपल और थानेदार! उसका दिल बैठा जा रहा था।

प्रतिशोध ! उसके दिमाग में एक चिंगारी सुलगने लगी थी। इन सबसे अपने अपमान का प्रतिशोध कैसे ले।....... 'सांसी गली' के अपने दोस्तों से कहकर एक दो का ख़ून करवा दे ! .......ख़ून ना सही पर एक दो की टांगे तो तुड़वा ही दे ! स्साले ! सारी उमर के लिए पंगु हो जाएंगे! ...खारिये मुहल्ले का जग्गुदादा भी तो मुझ से ही हजामत बनवाता है.......उसी को कहता हूं.......उससे तो थानेदार भी घबराता है.......सात आठ खून तो पहले भी कर चुका है.......आजतक तो एक बार भी नहीं पकड़ा गया.......पर क्या मेरे लिए कुछ करने को तैयार होगा? .......सोशल एजुकेशन सेंटर के भटनागर साहिब हैं, वो भी मिलते तो बहुत प्यार से हैं.......उनसे बात करूं.......शायद कोई तोड़ निकल आए स्थिति का.......वैसे तो चौधरी लक्ष्मीदास भी मेट्रोपालिटन काउन्सिल के मेंबर रह चुके हैं.......पहले तो कार्पोरेटर, भी थे.......नगर निगम में भी तो उनकी खासी साख है.......यह वह क्या सोचने लगा। भटनागर साहिब या चौधरी जी से मिलकर उसका प्रतिशोध कैसे पूरा होगा? .......किंतु बला तो टलेगी.......

ठेठ मध्यम वर्ग के बाबू की तरह उसे भी अस्तित्व की ही चिंता सताने लगी थी। वह भी प्रतिशोध का केवल सपना ही देख रहा था। सचमुच का प्रतिशोध ना उसके बस में था और ना ही वह ले सकता था।

पिछली बार जब सुमेरचंद उससे वोट मांगने आए थे तो कह रहे थे, 'सुदर्शन लाल, नगर निगम का कोई भी काम हो तो बेझिझक चले आना।' अब तो निगम के स्कूल से ही टकराव हो गया था। और दुकान गिरने का डर भी निगम की ओर से ही था। वह डर अब दिल में गहरा बैठा जा रहा था।

अन्तत: वह सभी को मिलने गया, अपनी दारुण गाथा सुनाई। सबसे दिलासा मिला - किंतु केवल दिलासा ही मिला। सुदर्शन लाल ने अपनी जान-पहचान के जो भ्रम पाल रखे थे वे एक-एक करके धराशाई हुए जा रहे थे।

सुमेरचन्द के यहां भी गया था, 'अरे सुदर्शन लाल, तूं रती भर चिंता ना कर। मेरे होते तेरी छाया को भी कोई हाथ नहीं लगा सकता।.......वो क्या है कि मैं तो आज किसी काम से कुरूक्षेत्र जा रहा हूं। लौटकर सब ठीक कर दूंगा। इस बीच अगर ज़रूरत पड़े तो डॉ भारद्वाज से मिल लेना। वो तेरी सहायता अवश्य करेंगे.......कह देना, मैंने भेजा है।'

सुदर्शन लाल कातर स्वर में कराह उठा, 'बाऊजी, यह लोग मुझे बरबाद करके रख देंगे। वो इस दीवार को सीधा करके मेरी इस दुकान को बंद कर देना चाहते हैं। कल भी पुलिस आई थी। वो तो मैं ही ताला लगाकर खिसक गया.......नहीं तो.......ना जाने, यह थानेदार क्यों अध्यापकों के साथ मिलकर मुझे उजाड़ने पर तुल गया है।'

सुमेरचन्द ने फिर दिलासा हाथ में पकड़ा दिया, 'कहा ना सुदर्शन लाल, तू दिल छोटा ना कर। अगर मेरी गैरहाजिरी में कुछ भी हो गया, तो भी मैं तुम्हें वापिस वहीं ला बैठाऊंगा। अरे देश में कोई कायदा-कानून भी है या नहीं? तुम अदालत से 'स्टे आर्डर' ला सकते हो। डर किस बात का है?

और सुमेरचंद सुदर्शन लाल को कुरूक्षेत्र के मैदान में अकेला युध्द करने को छोड़कर स्वयं यात्रा पर रवाना हो गये।

शंका और दुविधा से घिरा सुदर्शन लाल अपनी दुकान पर आ बैठा। दुकान को बचाने की अंतिम तैयारी के बारे में विचार कर रहा था। अध्यापकों, प्रिंसीपल, थानेदार और राजनीतिज्ञों के चक्रव्यूह में वह अकेला घिर गया था। सामने एक भयानक काला अंधेरा था.......और कुछ भी नहीं। मन उसे कहीं टिक कर बैठने नहीं दे रहा था। उठा और चौधरी लक्ष्मीदास के यहां पहुंच गया, 'चौधरी साहिब, वर्षों आपकी सेवा की है, और भविष्य में भी करता रहूंगा। इस समय बचा लीजिये।'

नगर निगम के इस दैत्य से लड़ने वाला हर्क्युलिस उसे चौधरी लक्ष्मीदास में ही दिखाई दे रहा था।

चौधरी साहिब को तो आज वोट मांगने नहीं थे। फिर क्यों भला विनम्रता से बात करते, 'अपनी औकात में रहो मिस्टर। कौन सी सेवा की बात कर रहे हो। अरे वो तो हम ही तुम पर तरस खाकर तुमसे हजामत बनावा लिया करते थे, नहीं तो तुम जानते ही क्या हो? कभी बाबूराम का काम देखा है? .......सब को काम प्यारा होता है चाम नहीं। उस दिन मुकंदलाल तुम्हारी दुकान पर बैठा मेरे बारे में बकवास करता रहा और तुम उसकी हां में हां मिलाते रहे।.......हम तुम्हें ग़रीब जानकर तुम पर दया करते रहे और तुम अपने आपको तीस-मार-ख़ां समझने लग गये।.......हर किसी से झागड़ा, हर एक से लड़ाई.......अरे नाख़ुन कटवाई तक मांग लिया करते थे।.......आज कौन-सा लेकर मुंह लेकर आए हो? .......जाओ अपनी दुकान पर जाकर शीशा देखो। सब दिखाई देगा जो तुमने औरों के साथ किया है।'

अंधेरी गुफ़ा में सुदर्शन लाल अकेले ही भागा जा रहा था। गुफ़ा बहुत संकरी थी। पैरों के नीचे छोटे-बड़े पत्थर बिछे हुए थे। उसके पांव ज़ख्मी हुए जा रहे थे। उनमें से लहू निकल रहा था। पर उसे तो इस गुफ़ा से बाहर निकलना ही था। बस भागा जा रहा था। गुफ़ा का अंत ना तो सुझाई दे रहा था और ना दिखाई। कभी गुफ़ा की बाईं और टकराता तो कभी दाईं ओर। उसकी कोहनियां भी छिल गई थीं। शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था। सांस फूलती जा रही थी। एकाएक उसका सिर गुफ़ा की दीवार से टकराया। सिर फटा और चारों ओर लहू के छींटे बिखर गये। सुदर्शन लाल ने चौंककर आंखें खोलीं। अपने शरीर को टटोला। रक्त तो कहीं नहीं था। फिर वो स्वप्न!

नगर निगम का ट्रक आकर रुका। उसमें से निगम के कर्मचारी भी निकले और पुलिस वाले भी। मुंह पर बड़े-बड़े दांत, बड़ी-बड़ी मूंछे लिए वे भयानक चेहरे आगे बढ़े। सुदर्शन लाल का सारा सामान उठाया और ट्रक में पटक दिया। सुदर्शन लाल अपने सामान से लिपट गया। 'मर जाऊगां, सामान नहीं जाने दूंगा।'

बहुत से लोग इकट्ठे हो गये। बाबूराम अपने खोखे को ताला लगाकर भाग लिया। पुलिस वालों का डंडा हवा में लहराया। सुदर्शन लाल के माथे पर एक लाल रेखा उभर आई। देखते-ही देखते दुकान का दरवाज़ा भी उतर गया। सुदर्शन लाल पागलों की तरह चिल्लाए जा रहा था, 'हरामज़ादो! देख लो! हो गई तुम्हारे मन की मुराद पूरी। दीवार सीधी नहीं होने दूंगा। चाहे मुझो भी दीवार में चिनवा दो। छोड़ूंगा नहीं कमीनो! ग़रीब के पेट पर लात मारी है। महंगी पड़ेगी.......कुत्तो.......।'

सब कुछ शांत हो गया। दीवार सीधी हो गई। सुदर्शन लाल फिर वहां से पांच गज़ दूर वृक्ष के नीचे अपने पुराने सामान के साथ रोटी का जुगाड़ करने जा बैठा।

दो मज़दूर उस दीवार पर रंग करने आ पहुंचे थे। एक ने बीड़ी सुलगा ली थी। डिब्बे में रंग मिलाया। और काम शुरु।

सुदर्शन लाल अपने भविष्य पर रंग पुतता देख रहा था। देखता रहा। सुदर्शन लाल की दोनों आंखों से आंसू टपक पड़े। उसने महसूस किया कि दीवार पर किया रंग, ढलते सूरज का रंग और उसके आंसुओं का रंग एक ही है।

एक अनाम संबंध

एक अनाम संबंध

मध्यान्ह का सूर्य चमक रहा था, धरती तप रही थी, गरम हवा चल रही थी। मैंने घर के सब दरवाजे बन्द कर दिये थे, परदे लगा दिये थे, कूलर चल रहा था। खाने पीने का तथा अनेकानेक घर के अन्य कामों को निपटाकर मसालेदार फिल्मी पत्रिका लेकर लेटी तो याद आया, टी वी में खूब नई चटपटी पिक्चर आनेवाली थी। यों तो हम लोग पुस्तक, पत्रिकाओं पर व्यर्थ पैसा खर्च नहीं करते पर कभी कभार मैं फिल्मी पत्रिका या महिलाओं की पत्रिका खरीद लेती हूं।

अलस भाव से पिक्चर की प्रतीक्षा करते साबुन, मंजन के विज्ञापन देखते पत्रिका के पृष्ठ पलट रही थी कि जोरों से कॉलबेल बज उठी। लेटे-लेटे ही पूछा कौन है ताकि कोई अवांछित व्यक्ति हो तो लौटा दूं पर कोई उत्तर न मिला, बल्कि दुबारा वही घंटी की आवाज आई। बडे अनमने से उठकर द्वार खोला, देखकर जानते हुये भी, कुढक़र, मुडक़र कहा- ''क्या है?''

''जी, चाय है, बडी क़डक जायकेदार, आप एक बार इस्तेमाल करके देखें।'' उसने विनीत स्वर में कहा,
''नहीं चाहिये, दुपहरी में भी चैन नहीं, जब देखो, पहुंच जायेगी, हमारी हमदर्द बनकर।''
मेरे बडबडाने का कोई असर नहीं, ''मॅडम आप एक बार लेकर तो देखिये... क़ुछ भी लीजिये, बडा पेकेट है, छोटे भी हैं, हर पेकेट के साथ-साथ गिफ्ट है... देखिये कितनी सुन्दर प्लेट है, पीछे के ब्लाक में सबने दो-दो, तीन-तीन लिये हैं।''
''मुझे नहीं चाहिये कहा तो पर मेरा भी मन ललचा उठा था, मन को समझाते हुये दृढता से कहा,
''जिस ब्राण्ड की चाय हम वर्षों से पी रहे हैं, तुम्हारे लिये क्यों छोड दें।''
''जी कुछ तो ले लीजिये''
''जब इतने घरों में बेच चुकी हो तो एक मेरे ही न लेने से क्या हो जायेगा कहते हुये मैंने जोर से द्वार बन्द किया।''

ऐसे ही करना पडता है, कभी चिढक़र, कभी बिगडक़र, कभी हंसकर। तीन चार दिन बीते होंगे, मैं कहीं बाहर जाने की तैयारी में थी। मुझे देर हो चुकी थी, अतः जो भी हो उससे जल्दी ही क्षमा मांगना होगी। कौन होगा सोचते हुये द्वार खोला तो बडे से जूट के झोले में झांकते हुये साबुन पाउडर के डब्बों के पास थकी- थकी बैठी थी वही सेल्स गर्ल।

अब इनसे बहस करनी पडेग़ी, बारबार कहूंगी कि मुझे नहीं चाहिये और ये है कि टलने का नाम नहीं लेंगी। मेरे दो रूपये बचाने का पुण्यकार्य जो करना है इन्हें। मैंने जोर देकर कहा - ''आप जाइये, मुझे साबुन पाउडर नहीं चाहिये।'' वह विनयपूर्ण जिरह करती रही कि उसका साबुन सबसे सस्ता भी पडेग़ा, कपडे भी खूब साफ हो जायेंगे।

मैंने खीझ कर कहा, इतनी गर्मी में पैदल घर-घर घूम रही हो, तुम कोई काम और क्यों नहीं कर लेती?
''जी मुझे घर-घर जाना है इसलिये कोई सवारी भी तो ले नहीं सकती, देखिये मेरी लिस्ट देखिये, यहां कितने घरों में गई हूं, सब गृहिणियों के नाम लिखें हैं।''

''और देखिये नौकरी के लिये प्रयत्न भी कर रही हूं, कई जगह आवेदन किया है।''
कई सेल्स गर्ल्स आया करती थी जिन्हे टालने के लिये मैं तरह-तरह के नुस्खे आजमाया करती, कभी किसी से कह दिया, अभी लिया हैं, किन्तु तब उनका आग्रह होता, छूट और उपहार लेने के लिये लेने का। सामने न पडी तो कहला दिया कि मैं घर में नहीं हूं। इससे पहचान हो गयी थी, कई बार आ चुकी है सलौनी छरहरी सी लडक़ी बाईस तेईस ही आयु रही होगी। प्रायः ढीला ढाला - प्रिन्ट का खादी का सलवार सूट पहने रहती, उसी प्रिन्ट की चुन्नी ओढती जिसमें पीछे गांठ डाल लेती। कन्धों से नीचे तक के बाल क्लिप में बंधे रहते। कुछ लेने का आग्रह इतना तीव्र रहता कि अस्वीकार कठिन हो जाता। पर करना भी पडता है। हम भी तो क्या करें किसी की खुशी के लिये व्यर्थ में साबुन, क्रीम आदि कहां तक लें, हमारा भी तो सीमित बजट हैं, मैं अपने को सांत्त्वना देती हूं।

और ये जिन्हें हम सेल्स गर्ल्स कहते हैं - अठारह से अडतालिस वर्ष तक की महिलाऐं, कन्धों पर बेग लटकाये कभी किसी कम्पनी का कभी किसी कम्पनी का माल ले कर घर में बेखटक बेचने चली आती है, साबुन, चाय, क्रीम, मंजन, अगरबत्ती, प्रसाधन की विविध वस्तुयें और न जाने क्या क्या ले कर जिन्हें कभी बिगड क़र, कभी उदासीन हो कर, कभी हंस कर मना करना पडता है, कभी कभी उनके गिफ्ट का प्रलोभन इतना तीव्र होता है कि सारी फटकार, सारा निश्चय धरा रह जाता है।

प्रथमबार उस नवयौवना से झुर्रियां मिटाने की क्रीम लेने का अनुरोध सुन आघात लगा था वैसे ही जैसे दीदी, भाभी सुनने के आदी कान, पति के नौजवान सहकर्मी से अपने लिये आंटी सुनना। पहला झटका आघात लगता है फिर तो हम उसके आदी हो जाते हैं।

मेरी छोटी बेटी यूनिवर्सिटी गई हुयी थी, बेटा अपनी नई नई पोस्टिंग पर दूसरे शहर में, बडी ससुराल में, फिर भी-
उस पर रोष हो आया, फटकार दिया था। ''आंटी, आप ले कर तो देखिये.. प्रतिष्ठित कंपनी की है।'' उसके विनय पर या क्रीम पर मन ललचा गया, ''तुम दीदी कह लो मुझे... यह आंटी वांटी पसंद नहीं, ...और देखो ऐसे कहो कि इससे त्वचा में निखार आयेगा ..ये सही है।''

वह हर्षित हो गयी थी, दीदी बडी शीशी ले लीजिये, उनके साथ प्लास्टिक का जार मुफ्त मिलेगा और दीदी कुछ नहीं।

पैसे लेकर उसने कागज आगे कर दिया, नाम पता सब लिखना था तब से वह कभी कभी आया करती। एक बार कागज देखते पढते चकित हो कर कहा था, ''अरे क्या लीला मास्टरनी के घर भी गयी थी, तीन घर आगे तिमंजिले पर....क्या क्या लिया उन्होंने?''

''नेलपालिश और लिपिस्टिक़.... साबुन भी। यह सब वह क्या करेगी? सादी वेशभूषा, हल्के प्रिंट की सफेद जमीन की सूती या अधिकतर सिंथेटिक साडियां पहनने वाली तुम्हारी आंटी अधिक से अधिक एक साबुन या शैम्पू ले लेगी।''
'' मुझे भी जिज्ञासा हुई थी।'' उसने कहा था।
''जिज्ञासा।'' यह सेल्स गर्ल, यह दर-दर सामान बेचने वाली लडक़ी जिज्ञासा कह रही है जैसे कोई बडी विदुषी हो। मैंने व्यंग से कहा, ''अच्छा तुम्हें जिज्ञासा हुई, क्यों?''
''यही कि आंटी क्या करेगी इन सब श्रृंगार प्रसाधनों का ।''
फिर एक दिन साहस कर के पूछ लिया कि ''आंटी आप सब किसके लिये लेती हैं? घर में कोई और मेरी दीदी या भाभी?''

वह हंसी थी, मैं संकुचित हो उठी थी, फिर कहा -

''आप तो इन को प्रयोग में नहीं लाती, किसी से पूछा हैं?'' मैं आम बोली में यूज या इस्तमाल की अभ्यस्त थी, एक मामूली साबुन, मंजन बेचने वाली, घर-घर घूमनेवाली ऐसे शब्दों का प्रयोग करें, मुझे कुछ विचित्र सा लगा।

आंटी ने कहा था, ''वह अपने लिये नहीं लेती, उनकी भांजी, भतीजियां हैं उन्हें उपहार दे देती हैं।'' पर जब भी मैं जाती हूं, वह सदैव कुछ न कुछ ले लेती है, कभी खाली हाथ नहीं लौटाती।

मुझे हीनता सी लगी, कहा - ''अच्छा है, तुम्हारा बडा ख्याल रखती है तभी न तुम काफी देर तक वहां बैठी रहती हो, वैसे तुम्हे घर-घर जाते डर नहीं लगता? ''

''सबके घर अंदर नहीं जाती, बाहर से ही बुला लेती हूं।''
''आंटी बैठने को कहती है, उनके पास बहुत सारी पुस्तकें हैं, दो-एक अच्छी पत्रिकाएं भी रहती हैं।''

मेरी हाथ में सस्ती मनोरंजन की पत्रिका थी, मुझे उसका कथन चुभन सा लगा।
मुझे चिढाना हुआ सा लगा तभी वह बोली, ''आंटी मुझे पढने को भी देती हैं।''
''अच्छा ।'' मुझे इर्ष्या ने आ घेरा, पूछा - ''घर ले जाने को भी देती हैं? ''
''जी हां''
''इतना विश्वास है? ''
'' जी, आंटी बहुत अच्छी हैं।''

जिसके घर न कोई उत्सव, न कोई आनेवाला न जानेवाला, जिसे मनहूस समझते हैं हम, उसकी स्तुति कर रही हैं। कुढक़र कहा- ''उनको करना ही क्या है, अपने आगे पीछे कोई दिखता नहीं, आगे नाथ न पीछे पगहा, बस जो मिल गया उसी को एक प्याली चाय की लालच दे बैठा लेंगी, आखिर समय बिताने कोई साथ तो चाहिये न। रिश्ते के लोग दूरी रखते होंगे, कहीं बुढापे में उन पर भार न बन जायें।''

''दीदी, कई लोग तो एक घूंट पानी के लिये भी कह देंगे, आगे जाओ नल लगा है.... घर में कोई है नहीं.... हमसे उठना नहीं होगा..... उन्हें डर रहता है कि वह पानी लेने जायें, हम कुछ उठा न लें ।''

वह तो जैसे मुझे दर्पण दिखा रही थी। अपना झोला समेट वह उठ खडी हुई। झोले में पालीथिन के बैग में दो पुस्तकें थी, सस्ते उपन्यास होंगे और क्या पढेग़ी। देखा तो एक हजारी प्रसाद द्विवेदी का उपन्यास पुर्ननवा और दूसरी रामधारी सिंह दिनकर की कृति थी संस्कृति के चार अध्याय।

जिसको मैंने कितनी ही बार फटकार दिया था, समय असमय कालबेल बजाने पर, उसके काम की हंसी उडाते हुये कहा था - ''सब्जी भाजी बेचने आती है तो शान से खडी रहती हैं, लेना हैं तो लो नहीं तो चलें। पर ये सेल्सगर्ल तो अडक़र ही बैठ जाती है, चाहे जैसे हो गांठ के पैसे लेकर ही छोडेग़ी'', वह सुनकर हंस दी थी, ''आप का विश्लेषण ठीक ही है दीदी, पर हमारी नौकरी यही हैं ना।''

आज सोचने लगी कैसी लगन हैं, कैसे रूचि है इस लडक़ी की। पुर्ननवा - द्विवेदी जी का संस्कृतनिष्ठ इतिहास और पुराण समेटे गंभीर प्रकृति का उपन्यास जिसके दस बीस पृष्ठ भी हम नहीं पढ पाये और संस्कृति के चार अध्याय ? वह जैसे चार कहानियां पढ रही हो। संस्कृति के नाम पर हम कल्चरल प्रोग्राम नाचगान उछलकूद को ही जानते हैं।

'इन्हें पढ लिया - कैसी लगी? ''
''जी, बहुत अच्छी, आप पढ क़र देखिये न... आप कुछ लीजिये दीदी, जल्दी घर जाना चाहती हूं।''
''घर या कहीं और.. '' मैंने थाह लेनी चाही। आज उसने चटक और नया सलवार कुर्ता पहना हुआ था।
''बहन के घर जाना है, भांजे का जन्मदिन हैं।''
''तो एक दिन अपना भ्रमण छोड देती।''

वह विवशता भरी दृष्टि डाल कर चली गयी। कई महिने बीत गये वह सेल्स गर्ल नीरा नहीं आयी। दूसरी कई आती रही पर उनसे उसके विषय में कुछ ज्ञान न हो सका, आती तो प्रायः लौटाना पडता कभी चिढक़र कभी बिगडक़र कभी हंसकर।

इस बीच लीला मास्टरनी बीमार पडी अपने तिमंजिले के घर से उतरती, रिक्शा ले डाक्टर के पास जाती, पावभर दूध हमारा दूधवाला दे आता था। उससे ही मालूम हुआ कि मास्टरनी कभी कभी डबलरोटी मंगवा लेती है उससे। पडोस के फर्ज में देखने गई, दूसरे नीरा उनकी प्रशंसा करती थी, मेरा कौन सा नीरा से संबंध था पर कुछ था जो दोनों को बांध गया। मेरी देखा देखी पडोस की दूसरी महिलाएं निकली। जिगर के कैंसर की रोगिणी पर ईश्वर ने दया की थी, वह अधिक समय दीन हीन अवस्था में पडी नहीं रही थी।

मकान मालिक सेल्स गर्ल नीरा की खोज में थे। उसे देख क्षणभर में कई विचार मन में उठें जिनमें प्रमुख था, क्या वह लीला के घर से कुछ चुरा ले गई थी जो उसके मृत्यु के बाद आई है।

उसे साथ ले तीसरे घर के तिमंजिले पर पहुंची हूं तमाशा देखने, किन्तु स्तब्ध रह गई, काठ सा मार गया - ''लीला मास्टरनी अपनी सब कुछ तुम्हारे नाम कर गई है, है ही क्या, किताबों भरी अलमारी, एक पतली सी सोने की चेन, नन्हें नन्हें कानों के टाप्स, घडी, यह प्रिय पेड, मेज, क़ुर्सी, बैंक में कुछ रूपया। चेक पर हस्ताक्षर कर दिया था। क्रिया कर्म पर जो खर्च हो बीमारी में लगे , उसमें से ले लिया जाय, जो बचे तुम्हारा है यह पत्र ही वसीयत है, हम तुम्हें खोज रहे थे, अच्छा है तुम आ गई।''

''इसमें उनके कपडे है जो न ले जाना चाहो, गरीबों को बांट दो कहते हुये अलमारी का पट खोल दिया मकान मालकिन ने ।''

अब तक काठ बनी नीरा अरे आंटी कहकर बिलख कर रो उठी है। उससे ली हुयी सभी वस्तुएं वहां करीने से रखी हुई थी। केवल उसका मन रखने के लिये आंटी ने कहा था कि उनके भतीजियां हैं।

''है तो बेटे पर क्या वह इन मामूली वस्तुओं का प्रयोग करेगे? ''

स्टेटस् में रहने वाले भाई जिनके लिये लीला ने विवाह नहीं किया था, सूचना पा कर कह दिया सुविधा होगी तो आ जायेंगे, जनरल वार्ड में भेज दें ।

मैने बार बार रोती नीरा को अंक में समेट लिया, आज उससे जाने को न कह सकूंगी न चिढक़ार न बिगडक़र न हंसकर।

एक दिन का मेहमान

एक दिन का मेहमान

उसने अपना सूटकेस दरवाजे के आगे रख दिया। घंटी का बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगा। मकान चुप था। कोई हलचल नहीं - एक क्षण के लिये भ्रम हुआ कि घर में कोई नहीं है और वह खाली मकान के आगे खडा है। उसने रुमाल निकाल कर पसीना पौंछा, अपना एयर बैग सूटकेस पर रख दिया। दोबारा बटन दबाया और दरवाजे से कान सटा कर सुनने लगा, बरामदे के पीछे कोई खुली खिडक़ी हवा में हिचकोले खा रही थी।

वह पीछे हटकर ऊपर देखने लगा। वह दुमंजिला मकान था - लेन के अन्य मकानों की तरह - काली छत, अंग्रेजी वी की शक्ल में दोनों तरफ से ढलुआं और बीच में सफेद पत्थर की दीवार, जिसके माथे पर मकान का नम्बर एक काली बिन्दी सा टिमक रहा था। ऊपर की खिडक़ियां बन्द थीं और पर्दे गिरे थे। कहाँ जा सकते हैं इस वक्त?

वह मकान के पिछवाडे ग़या - वही लॉन, फेन्स और झाडियां थीं जो उसने दो साल पहले देखी थीं। बीच में विलो अपनी टहनियां झुकाये एक काले बूढे रीछ की तरह ऊंघ रहा था। लेकिन गैराज खुला और खाली पडा था; वे कहीं कार लेकर गये थे, संभव है उन्होंने सारी सुबह उसकी प्रतीक्षा की हो और अब किसी काम से बाहर चले गये हों। लेकिन दरवाजे पर उसके लिये एक चिट तो छोड ही सकते थे!

वह दोबारा सामने के दरवाजे पर लौट आया। अगस्त की चुनचुनाती धूप उसकी आंखों पर पड रही थी। सारा शरीर चू रहा था। वह बरामदे में ही अपने सूटकेस पर बैठ गया। अचानक उसे लगा, सडक़ के पार मकानों की खिडक़ियों से कुछ चेहरे बाहर झांक रहे हैं, उसे देख रहे हैं। उसने सुन था, अंग्रेज लोग दूसरों की निजी चिन्ताओं में दखल नहीं देते, लेकिन वह मकान के बाहर बरामदे में बैठा था, जहां प्राइवेसी का कोई मतलब नहीं था; इसलिये वे नि:संकोच, नंगी उनमुक्तता से उसे घूर रहे थे। लेकिन शायद उसके कौतुहल का एक दूसरा कारम था; उस छोटे, अंग्रेजी कस्बाती शहर में लगभग सब एक दूसरे को पहचानते थे और वह न केवल अपनी शक्ल सूरत में बल्कि झूलते झालते हिन्दुस्तानी सूट में काफी अद्भुत प्राणी दिखाई दे रहा होगा। उसकी तुडी मुडी वेशभूषा और गर्द और पसीने में लथपथ चेहरे से कोई यह अनुमान भी नहीं लगा सकता कि अभी तीन दिन पहले फ्रेंकफर्ट की कानफ्रेन्स में उसने पेपर पढा था। मैं एक लुटा - पिटा एशियन इमीग्रेन्ट दिखाई दे रहा होऊंगा।' उसने सोचा और अचानक खडा हो गया - मानो खडा होकर प्रतीक्षा करना ज्यादा आसान हो। इस बार बिना सोचे समझे उसने दरवाजा जोर से खटखटाया और तत्काल हकबका कर पीछे हट गया - हाथ लगते ही दरवाजा खट - से खुल गया। जीने पर पैरों की आवाज सुनाई दी - और दूसरे क्षण वह चौखट पर उसके सामने खडी थी।

वह भागते हुए सीढियां नीचे उतर कर आई थी, और उससे चिपट गई थी। इससे पहले वह पूछता, क्या तुम भीतर थीं? उसने अपने धूल भरे लस्तम पस्तम हाथों से उसके दुबले कन्धों को पकड लिया और लडक़ी का सिर नीचे झुक आया और उसने अपना मुंह उसके बालों पर रख दिया।

पडोसियों ने एक एक करके अपनी खिडक़ियां बन्द कर दीं।
लडक़ी ने धीरे - से उसे अपने से अलग कर दिया, '' बाहर कब से खडे थे? ''
'' पिछले दो साल से।''
'' वाह! '' लडक़ी हंसने लगी। उसे अपने बाप की ऐसी ही बातें बौडम जान पडती थीं।
'' मैं ने दो बार घंटी बजाई - तुम लोग कहां थे? ''
'' घंटी खराब है, इसलिये मैं ने दरवाजा खुला छोड दिया था।''
'' तुम्हें मुझे फोन पर बताना चाहिये था - मैं पिछले एक घंटे से आगे पीछे दौड रहा था।
'' मैं तुम्हें बताने वाली थी, लेकिन बीच में लाइन कट गई। तुमने और पैसे क्यों नहीं डाले?''
'' मेरे पास सिर्फ दस पैसे थे वह औरत काफी चुडैल थी!''
'' कौन औरत?'' लडक़ी ने उसका बैग उठाया।
'' वही जिसने हमें बीच में काट दिया।''

आदमी अपना सूटकेस बीच ड्राइंगरूम में घसीट लाया। लडक़ी उत्सुकता से बैग के भीतर झांक रही थी- सिगरेट के पैकेट, स्कॉच की लम्बी बोतल, चॉकलेट के बण्डल - वे सारी चीजें जो उसने इतनी हडबडी में फ्रेंकफर्ट के एयरपोर्ट पर डयूटी फ्री शॉप से खरीदी थीं, अब बैग से ऊपर झांक रही थीं।

'' तुमने अपने बाल कटवा लिये?'' आदमी ने पहली बार चैन से लडक़ी का चेहरा देखा।
'' हाँसिर्फ छुट्टियों के लिये। कैसे लगते हैं?''
'' अगर तुम मेरी बेटी नहीं होतीं, तो मैं समझता कोई लफंगा घर में घुस आया है।''
'' ओह पापा! '' लडक़ी ने हंसते हुए बैग से चॉकलेट निकाली, रैपर खोला, फिर उसके आगे बढा दी।
'' स्विस चॉकलेट, '' उसने उसे हवा में डुलाते हुए कहा।
'' मेरे लिये एक गिलास पानी ला सकती हो?''
'' ठहरो, मैं चाय बनाती हूँ।''
'' चाय बाद में '' वह अपने कोट की अन्दरूनी जेब में कुछ टटोलने लगा- नोटबुक, वॉलेट, पासपोर्ट - सब चीजें बाहर निकल आईं अंत में उसे टेबलेट्स की डिब्बी मिली, जिसे वह ढूंढ रहा था।
लडक़ी पानी का गिलास लेकर आई तो उससे पूछा, '' कैसी दवाई है?।''
'' जर्मन,'' उसने कहा, ''बहुत असर करती है।'' उसने टेबलेट पानी के साथ निगल ली, फिर सोफे पर बैठ गया। सबकुछ वैसा ही था, जैसा उसने सोचा था। वही कमरा, शीशे का दरवाजा, खुले हुए परदों के बीच वही चौकोर हरे रुमाल जैसा लॉन, टी वी के स्क्रीन पर उडती पक्षियों की छाया, जो बाहर उडते थे और भीतर होने का भ्रम देते थे।

वह किचन की देहरी पर आया। गैस के चूल्हों के पीछे लडक़ी की पीठ दिखाई दे रही थी। कॉर्डराय की काली जीन्स और सफेद कमीज, जिसकी मुडी स्लीव्स बांहों की कुहनियों पर झूल रही थीं। वह बहुत हल्की छुई मुई सी दिखाई दे रही थी।

'' मामा कहाँ है? '' उसने पूछा। शायद उसकी आवाज ईतनी धीमी थी कि लडक़ी ने उसे नहीं सुन, किन्तु उसे लगा, जैसे लडक़ी की गर्दन कुछ ऊपर उठी थी। '' मामा क्या ऊपर हैं? '' उसने दोबारा कहा और लडक़ी वैसे ही निश्चल खडी रही और तब उसे लगा, उसने पहली बार भी प्रश्न को सुन लिया था। '' क्या बाहर गई हैं? '' उसने पूछा। लडक़ी ने बहुत धीरे, धुंधले ढंग से सिर हिलाया, जिसका मतलब कुछ भी हो सकता था।
'' तुम पापा, कुछ मेरी मदद करोगे?''
वह लपक कर किचन में चला गया, '' बताओ, क्या काम है?''
'' तुम चाय की केतली लेकर भीतर जाओ, मैं अभी आती हूँ।''
'' बस!'' उसने निराश स्वर में कहा।
'' अच्छा, प्याले और प्लेटें भी लेते जाओ।''

वह सब चीजें लेकर भीतर कमरे में चला आया। वह दोबारा किचन में जाना चाहता था, लेकिन लडक़ी के डर से वह वहीं सोफा पर बैठा रहा। किचन से कुछ तलने की खुश्बू आ रही थी। लडक़ी उसके लिये कुछ बना रही थी - और वह उसकी कोई भी मदद नहीं कर पा रहा था। एक बार इच्छा हुई, किचन में जाकर मना कर आये कि वह कुछ नहीं खायेगा। किन्तु दूसरे क्षण भूख ने उसे पकड लिया। सुबह से उसने कुछ नहीं खाया था। यूस्टन स्टेशन के कैफेटेरिया में इतनी लम्बी क्यू लगी थी कि वह टिकट लेकर सीधा ट्रेन में घुस गया था। सोचा था वह डायनिंग कार में कुछ पेट में डाल लेगा, किन्तु वह दुपहर से पहले नहीं खुलती थी। सच पूछा जाय तो उसने अंतिम खाना कल शाम फ्रेंकफर्ट के एयरपोर्ट में खाया था और जब रात को लन्दन पहुंचा था तो, अपने होटल के बार में पीता रहा था। तीसरे गिलास के बाद उसने जेब से नोटबुक निकाली, नम्बर देखा और बार के टेलीफोन बूथ में जाकर फोन मिलाया था पहली बार में पता नहीं चला, उसकी पत्नी की आवाज है या बच्ची की। उसकी पत्नी ने फोन उठाया होगा, क्योंकि कुछ देर तक फोन का सन्नाटा उसके कान में झनझनाता रहा, और वह फोन नीचे रखना चाहता था, किन्तु उसी समय उसे बच्ची का स्वर सुनाई दिया; वह आधी नींद में थी। उसे कुछ देर तक पता ही नहीं चला कि वह इंडिया से बोल रहा है या फ्रेंकफर्ट से या लन्दन सेवह उसे अपनी स्थिति समझा ही रहा था कि तीन मिनट खत्म हो गये और उसके पास इतनी चेंज भी नहीं थी कि वह लाइन को कटने से बचा सके, तसल्ली सिर्फ इतनी थी कि वह नींद, घबराहट और नशे के बीच यह बताने में सफल हो गया कि वह कल उनके शहर पहुंच रहा है कल यानि आज।

वे अच्छे क्षण थे। बाहर इंग्लैंड की पीली और मुलायम धूप फैली थी। वह घर के भीतर था। उसके भीतर गरमाई की लहरें उठने लगी थीं। हवाई अड्डों की भाग दौड, होटलों की हील हुज्जत, ट्रेन टैक्सियों की हडबडाहट - वह सबसे परे हो गया था। वह घर के भीतर था; उसका अपना घर न सही, फिर भी एक घर - कुर्सियाँ, परदे, सोफा टी वी। वह अरसे से इन चीजों के बीच रहा था और हर चीज क़े इतिहास को जानता था। हर दो तीन साल बाद जब वह आता था, तो सोचता था - बच्ची कितनी बडी हो गयी होगी और पत्नी? वह कितनी बदल गई होगी! लेकिन ये चीजें उस दिन से एक जगह ठहरीं थीं, जिस दिन उसने घर छोडा था; वे उसके साथ चली जाती थीं, उसके साथ लौट आती थीं।

'' पापा तुमने चाय नहीं डाली?'' वह किचन से दो प्लेटें लेकर आई, एक में टोस्ट और मक्खन थे, दूसरे में तले हुए सॉसेज।
'' मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा था।''
'' चाय डालो, नहीं तो बिलकुल ठण्डी हो जायेगी।''
वह उसके साथ सोफा पर बैठ गई।'' टी वी खोल दूं देखोगे?''
'' अभी नहींसुनो तुम्हें मेरे स्टैम्प्स मिल गये थे?''
'' हाँ पापाथैंक्स!'' वह टोस्ट्स पर मक्खन लगा रही थी।
'' लेकिन तुमने चिट्ठी एक भी नहीं लिखी!''
'' मैं ने एक लिखी थी, लेकिन जब तुम्हारा टेलीग्राम आया, तो मैं ने सोचा अब तुम आ रहे हो तो चिट्ठी भेजने की क्या जरूरत?''
''तुम सचमुच गागा हो।''
लडक़ी ने उसकी तरफ देखा और हंसने लगी। यह उसका चिढाऊ नाम था, जो बाप ने बरसों पहले उसे दिया था, जब वह उसके साथ घर में रहता था, वह बहुत छोटी थी और उसने हिन्दुस्तान का नाम भी नहीं सुना था।

बच्ची की हंसी का फायदा उठाते हुए वह उसके पास झुक आया जैसे कोई चंचल चिडिया हो, जिसे केवल सुरक्षा के भ्रामक क्षण में ही पकडा जा सकता है, '' ममी कब लौटेंगी?''
प्रश्न इतना अचानक था कि लडक़ी झूठ नहीं बोल सकी, '' वह ऊपर कमरे में हैं।''
''ऊपर? लेकिन तुमने तो कहा था।''
किरच किरच किरच वह चाकू से जले हुए टोस्ट को कुरेद रही थी मगर उसके साथ साथ वह उसके प्रश्न को भी काट डालना चाहती हो। हँसी अब भी थी, लेकिन अब वह बर्फ में जमे कीडे क़ी तरह उसके होंठों पर चिपकी थी।
'' क्या उन्हें मालूम है कि मैं यहाँ हूँ?'' लडक़ी ने टोस्ट पर मक्खन लगाया, फिर जैम - फिर उसके आगे प्लेट रख दी।
'' हाँ मालूम है।'' उसने कहा।
'' क्या वह नीचे आकर हमारे साथ चाय नहीं पिए/गी?''
लडक़ी दूसरी प्लेट पर सॉसेज सजाने लगी - फिर उसे कुछ याद आया वह रसोई में गई और अपने साथ मस्टर्ड और केचप की बोतलें ले आई।
'' मैं ऊपर जाकर पूछता हूँ।'' उसने लडक़ी की तरफ देखा, जैसे उससे अपनी कार्यवाही का समर्थन पाना चाहता हो।जब वह कुछ नहीं बोली, तो वह जीने की तरफ जाने लगा।
'' प्लीज पापा।''
उसके पांव ठिठक गये।
'' आप फिर उनसे लडना चाहते हैं? '' लडक़ी ने कुछ गुस्से में उसे देखा।
'' लडना! '' वह शर्म से भीगा हुआ हँसने लगा, '' मैं यहाँ दो हजार मील उनसे लडने आया हूँ? ''
'' फिर आप मेरे पास बैठिये।'' लडक़ी का स्वर भरा हुआ था। उसकी भूख उड ग़यी थी, लेकिन लडक़ी की आंखें उस पर थीं। वह उसे देख रही थी, और कुछ सोच रही थी, कभी कभी टोस्ट का एक टुकडा मुंह में डाल लेती और फिर चाय पीने लगती। फिर उसकी ओर देखती चुपचाप मुस्कुराने लगती, उसे दिलासा सी देती, सब कुछ ठीक है, तुम्हारी जिम्मेदारी मुझ पर है और जब तक मैं हूँ डरने की कोई बात नहीं है।

डर नहीं था। टेबलेट का असर रहा होगा या यात्रा की थकान - वह कुछ देर के लिये लडक़ी की निगाहों से हटना चाहता था। वह अपने को हटाना चाहता था। '' मैं अभी आता हूँ।'' उसने कहा। लडक़ी ने सशंकित आंखों से उसे देखा, '' क्या बाथरूम जायेंगे? '' वह उसके साथ साथ गुसलखाने तक चली आई और जब उसने दरवाजा बन्द कर लिया, तो भी उसे लगता रहा, वह दरवाजे के पीछे खडी है।

उसने बेसिनी में अपना मुंह डाल लिया और नलका खोल दिया। पानी झर झर उसके चेहरे पर बहने लगा - और वह सिसकने - सा लगा, आधे बने हुए शब्द उसकी छाती के खोखल से बाहर निकलने लगे, जैसे भीतर जमी काई उलट रहा हो, उलटी, जो सीधी दिल से बाहर आती है - वह टेबलेट जो कुछ देर पहले खाई थी, अब पीले चूरे सी बेसिनी के संगमरमर पर तैर रही थी। फिर उसने नल बन्द कर दिया और रूमाल निकाल कर मुंह पौंछा। बाथरूम की खूंटी पर स्त्री के मैले कपडे टंगे थे - प्लास्टिक की एक चौडी बाल्टी में अंडरवियर और ब्रेसियर साबुन में डूबे थेखिडक़ी खुली थी और बाग का पिछवाडा धूप में चमक रहा था। कहीं किसी दूसरे बाग से घास काटने की उनींदी सी घुर्र घुर्र पास आ रही थी।

वह जल्दी से बाथरूम का दरवाजा बन्द कर कमरे में चला आया। सारे घर में सन्नाटा था। वह किचन में आया, तो लडक़ी दिखाई नहीं दी। वह ड्राईंग रूम में लौटा तो वह भी खाली पडा था। उसे सन्देह हुआ कि वह ऊपर वाले कमरे में अपनी मां के पास बैठी है। एक अजीब आतंक ने उसे पकड लिया। घर जितना शांत था, उतना ही खतरे से अटा जान पडा। वह कोने में गया, जहाँ उसका सूटकेस रखा था, वह जल्दी जल्दी उसे खोलने लगा। उसने अपने कान्फ्रेस के के नोट्स और कागज अलग किये, उनके नीचे से वह सारा सामान निकालने लगा, जो वह दिल्ली से अपने साथ लाया था - एम्पोरियम का राजस्थानी लहंगा( लडक़ी के लिये), ताम्बे और पीतल के ट्रिंकेट्स, जो उसने जनपथ पर तिब्बती लामा हिप्पियों से खरीदे थे, पश्मीने की कश्मीरी शॉल( बच्ची की मां के लिये), एक लाल गुजराती जरीदार स्लीपर जिसे बच्ची और मां दोनों पहन सकते थे, हैण्डलूम के बेडकवर, हिन्दुस्तानी टिकटों का अल्बम - और एक बहुत बडी सचित्र किताब, बनारस द एटर्नल सिटी।

फर्श पर धीरे धीरे एक छोटा सा हिन्दुस्तान जमा हो गया था जिसे वह हर बार यूरोप आते समय अपने साथ ढो लाता था।
सहसा उसके हाथ ठिठक गये। वह कुछ देर तक चीजों के ढेर को देखता रहा। कमरे के फर्श पर बिखरी हुई वे बिलकुल अनाथ और दयनीय दिखाई दे रही थीं। एक पागल इच्छा हुई कि वह उन्हें कमरे में जैसे का तैसा छोडक़र भाग खडा हो। किसी को पता भी नहीं चलेगा, वह कहाँ चला गया? लडक़ी थोडा बहुत जरूर हैरान होगी, किन्तु बरसों वह उससे ऐसे ही अचानक मिलती रही थी और बिना कारण बिछडती रही थी, यू आर कमिंग एण्ड गोईंग मैन, वह उससे कहा करती थी, पहले विषाद में और बाद में कुछ कुछ हंसी में उसे कमरे में न बैठा देखकर लडक़ी को ज्यादा सदमा नहीं पहुंचेगा। वह ऊपर जायेगी और मां से कहेगी, '' अब तुम नीचे आ सकती हो; वह चले गये।''
फिर वे दोनों एक - साथ नीचे आयेंगी, और उन्हें राहत मिलेगी कि अब उन दोनों के अलावा घर में कोई नहीं है।
'' पापा।''
वह चौंक गया, जैसे रंगे हाथों पकडा गया हो। खिसियानी - सी मुस्कुराहट में लडक़ी को देखा- वह कमरे की चौखट पर खडी थी और खुले हुए सूटकेस को ऐसे देख रही थी, जैसे वह कोई जादू की पिटारी हो, जिसने अपने पेट से अचानक रंग बिरंगी चीजों को उगल दिया हो, लेकिन उसकी आंखों में कोई खुशी नहीं थी, एक शर्म - सी थी, जब बच्चे अपने बडों को कोई ट्रिक करते हुए देखते हैं जिसका भेद उन्हें पहले से मालूम होता है; वे अपने संकोच को छिपाने के लिये कुछ ज्यादा ही उत्सुक हो जाते हैं।
'' इतनी चीजें?'' वह आदमी के सामने की कुर्सी पर बैठ गई, '' कैसे लाने दी? सुना है आजकल कस्टमवाले बहुत तंग करते हैं।''
'' नहीं, इस बार उन्होंने कुछ नहीं किया, '' आदमी ने उत्साह में आकर कहा, '' शायद इसलिये कि मैं सीधे फ्रेंकफर्ट से आ रहा था। उन्हें सिर्फ एक चीज पर शक हुआ था।'' उसने मुस्कुराते हुए लडक़ी की ओर देखा।
'' किस चीज पर?'' लडक़ी ने इस बार सच्ची उत्सुकता से पूछा।
उसने अपने बैग से दालबीजी का डिब्बा निकाला और उसे खोलकर मेज पर रख दिया। लडक़ी ने झिझकते हुए दो चार दाने उठाये और उन्हें सूंघने लगी, '' क्या है यह?'' उसने जिज्ञासा से आदमी को देखा।
'' वे भी इसी तरह सूंघ रहे थे, '' वह हंसने लगा, '' उन्हें डर था कि कहीं इसमें चरस - गांजा तो नहीं है।''
'' हैश? '' लडक़ी की आंखें फैल गईं, '' क्या इसमें सचमुच हैश मिली है? ''
'' खाकर देखो।''
लडक़ी ने कुछ दालमोठ मुंह में डाल ली और उन्हें चबाने लगी, फिर हलाट - सी होकर सी सी करने लगी।
'' मिर्चें होंगी - थूक दो।'' आदमी ने कुछ घबरा कर कहा।
'' किन्तु लडक़ी ने उन्हें निगल लिया और छलछलाई आंखों से बाप को देखने लगी।
'' तुम भी पागल हो सब निगल बैठीं।'' आदमी ने जल्दी से उसे पानी का गिलास दिया, जो वह उसके लिये लाई थी।
'' मुझे पसन्द है।'' लडक़ी ने जल्दी से पानी पिया और अपनी कमीज क़ी मुडी हुई बांहों से आंखें पौंछने लगी। फिर मुस्कुराते हुए आदमी की ओर देखा, आई लव इट। वह कई बातें सिर्फ आदमी का मन रखने के लिये करती थी। उनके बीच बहुत कम मुहलत रहती थी और वह उसके निकट पहुंचने के लिये ऐसे शार्टकट लेती थी, जिसे दूसरे बच्चे महीनों में पार करते हैं।
'' क्या उन्होंने भी इसे चखकर देखा था?'' लडक़ी ने पूछा।
'' नहीं उनमें इतनी हिम्मत कहाँ थी। उन्होंने सिर्फ मेरा सूटकेस खोला, मेरे कागजों को उलटा पुलटा और जब उन्हें पता चला कि मैं कॉन्फ्रेंस से आ रहा हूँ तो उन्होंने कहा, '' मिस्टर यू मे गो।''
'' क्या कहा उन्होंने?'' लडक़ी हंस रही थी।
'' उन्होंने कहा, मिस्टर यू मे गो लाइक एन इण्डियन क्रो!''आदमी ने भेदभरी निगाहों से उसे देखा। '' क्या है यह? ''
लडक़ी हंसती रही - जब वह बहुत छोटी थी और आदमी के साथ पार्क में घूमने जाती थी, तो वे यह सिरफिरा खेल खेलते थे। वह पेड क़ी ओर देखकर पूछता था, ओ डियर, इज देयर एनीथिंग टू सी? और लडक़ी चारों तरफ देखकर कहती थी, यस डियर, देयर इज ए क्रो ओवर द ट्री। आदमी उसे विस्मय से देखता। क्या है यह? और वह विजयोल्लास में कहती - पोयम!
ए पोयम! बढती हुई उम्र में छूटते बचपन की छाया सरक आई - पार्क की हवा, पेड, हंसी। वह बाप की उंगली पकड क़र सहसा एक ऐसी जगह गई, जिसे वह मुद्दत पहले छोड चुकी थी, जो कभी कभार रात को सोते हुए सपनो में दिखाई दे जाती थी

'' मैं तुम्हारो लिये कुछ इण्डियन सिक्के लाया था तुमने पिछली बार कहा था न!''
'' दिखाओ, कहाँ हैं?'' लडक़ी ने कुछ जरूरत से ज्यादा ही ललकते हुए कहा।
आदमी ने सलमे - सितारों से जडी एक लाल थैली उठाई - जिसे हिप्पी लोग अपने पासपोर्ट के लिये खरीदते थे। लडक़ी ने उसे हाथ से छनि लिया और हवा में झुलाने लगी। भीतर रखी चवन्नियां, अठन्नियां चहचहाने लगीं। फिर उसने थैली का मुंह खोला और सारे पैसों को मेज पर बिखेर दिया।
'' हिन्दुस्तान में क्या सब लोगों के पास ऐसे ही सिक्के होते हैं?''
वह हंसने लगा, '' तो क्या सबके लिये अलग अलग बनेंगे?'' उसने कहा।
'' लेकिन गरीब लोग?'' उसने आदमी को देखा, '' मैं ने एक रात टी वी में उन्हें देखा था।'' वह सिक्कों को भूल गई और कुछ असमंजस में फर्श पर बिखरी चीजों को देखने लगी। तब पहली बार आदमी को लगा - वह लडक़ी जो उसके सामने बैठी है, कोई दूसरी है। पहचान का फ्रेम वही है जो उसने दो साल पहले देखा था लेकिन बीच की तसवीर बदल गई है। किन्तु वह बदली नहीं थी, वह सिर्फ कहीं और चली गई थी। वे मां बाप जो बच्चों के साथ हमेशा नहीं रहते, उन गोपनीय मंजिलों के बारे में कुछ नहीं जानते जो उनके अभाव की नींव पर ऊपर ही ऊपर बनती रहती हैं, लडक़ी अपने बचपन के बेसमेन्ट में जाकर ही पिता से मिल पाती थी लेकिन कभी कभी उसे छोड क़र दूसरे कमरों में चली जाती थी, जिसके बारे में आदमी को कुछ भी नहीं मालूम था।
'' पापा।'' लडक़ी ने उसकी ओर देखकर कहा, '' क्या मैं इन चीज़ों को समेटकर रख दूं?''
'' क्यों इतनी जल्दी क्या है? ''
'' नहीं, जल्दी नहीं लेकिन मामा आकर देखेंगी तो!'' उसके स्वर में हल्की सी घबराहट थी, जैसे वह हवा में किसी अदृश्य खतरे को सूंघ रही हो।
'' आयेंगी तो क्या?'' आदमी ने कुछ विस्मय से लडक़ी को देखा।
'' पापा धीरे बोलो!'' लडक़ी ने ऊपर कमरे की तरफ देखा, ऊपर सन्नाटा था, जैसे घर एक देह हो, दो में बंटी हुई, जिसका एक हिस्सा सुन्न और निस्पन्द पडा हो, दूसरे में वे दोनों बैठे थे। और तब उसे भ्रम हुआ कि लडक़ी कठपुतली का नाटक कर रही है। ऊपर के धागे से बंधी हुई, जैसे वह खिंचता है, वैसे वह हिलती है लेकिन वह न धागे को देख सकता है न उसे जो उसे हिलाता है

वह उठ खडा हुआ। लडक़ी ने आतंकित होकर उसे देखा, '' आप कहाँ जा रहे हैं?''
'' वह नीचे नहीं आयेंगी?'' उसने पूछा।
'' उन्हें मालूम है आप यहाँ हैं।'' लडक़ी ने कुछ खीज कर कहा।
'' इसीलिये वह नहीं आना चाहतीं?''
'' नहीं ।'' लडक़ी ने कहा, '' इसीलिये वे कभी भी आ सकती हैं।''
कैसे पागल हैं। इतनी छोटी सी बात नहीं समझ सकते। '' आप बैठिये, मैं अभी इन सब चीजों को समेट लेती हूँ।''
वह फर्श पर उकडूं बैठ गई; बडी सफाई से हर चीज उठा कर कोने में रखने लगी। मखमल की जूती, पश्मीने की शॉल, गुजरात एम्पोरियम का बेडकवर। उसकी पीठ पिता की ओर थी, किन्तु वह उसके हाथ देख सकता था, पतले सांवले, बिलकुल अपनी मां की तरह, वैसे ही निस्संग और ठंडे, जो उसकी लाई हुई चीजों को आत्मीयता से पकडते नहीं थे, सिर्फ अनमने भाव से अलग ठेल देते थे। वे एक ऐसी बच्ची के हाथ थे, जिसने सिर्फ मां के सीमित और सुरक्षित स्नेह को छुना सीखा था, मर्द के उत्सुक और पीडित उन्माद को नहीं जो पिता के सेक्स की काली कन्दरा से उमडता हुआ बाहर आता है।

अचानक लडक़ी के हाथ ठिठक गये। उसे लगा कोई दरवाजे की घण्टी बजा रहा है लेकिन दूसरे ही क्षण फोन का ध्यान आया जो जीने के नीचे कोटर में था और जंजीर से बंधे पिल्ले की तरह जोर जोर से चीख रहा था। लडक़ी ने चीजें वैसे ही छोड दीं और लपकते हुए सीढियों के पास गई, फोन उठाया, एक क्षण तक कुछ सुनाई नहीं दिया। फिर वह चिल्लाई - '' मम्मी आपका फोन।''
बच्ची बेनिस्टर के सहारे खडी थी, हाथ में फोन झुलाती हुई। ऊपर का दरवाजा खुला और जीना हिलने लगा। कोई नीचे आ रहा था, फिर एक सिर लडक़ी के चेहरे पर झुका, गुंथा हुआ जूडा और फोन के बीच एक पूरा चेहरा उभर आया
'' किसका है?'' औरत ने अपने लटकते हुए जूडे क़ो पीछे धकेल दिया और लडक़ी के हाथ से फोन खींच लिया। आदमी कुर्सी से उठालडक़ी ने उसकी ओर देखा। '' हलो'' औरत ने कहा। '' हलो, हलो, औरत की आवाज ऊपर उठी और तब उसे पता चला कि यह उस स्त्री की आवाज है, जो उसकी पत्नी थी; वह उसे बरसों बाद भी सैकडों आवाजों की भीड में पहचान सकता था ऊंची पिच पर हल्के से कांपती हुई, हमेशा से सख्त, आहत, परेशान, उसकी देह की एकमात्र चीज ज़ो देह से परे आदमी की आत्मा पर खून की खरोंच खींच जाती थी। वह जैसे उठा था, वैसे ही बैठ गया।
लडक़ी मुस्कुरा रही थी।
वह हैंगर के आईने से आदमी का चेहरा देख रही थी - और वह चेहरा कुछ वैसा ही बेडौल दिखाई दे रहा था जैसे उम्र के आईने से औरत की आवाज - उल्टा, टेढा, पहेली सा रहस्यमय! वे तीनों व्यक्ति अनजाने में चार में बंट गये थे- लडक़ी, उसकी मां, वह और उसकी पत्नी घर जब गृहस्थी में बदलता है तो, अपने आप फैलता जाता है
'' तुम जेनी से बात करोगी?'' औरत ने लडक़ी से कहा और बच्ची जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी। वह उछल कर ऊपरी सीढी पर आ गई और मां से टेलीफोन ले लिया, '' हलो जेनी, इट इज मी!''
वह दो सीढियां नीचे उतरी; तब आदमी उसे पूरा का पूरा देख सकता था।
'' बैठो'' आदमी कुर्सी से उठ खडा हुआ। उसके स्वर में एक बेबस सा अनुनय था, मानो उसे डर हो कि कहीं उसे देख कर वह उल्टे पांव न लौट जाये।

Tuesday, April 8, 2008

शेखचिल्ली की ससुर से दिल्लगी

सड़क यहीं रहती है

एक दिन शेखचिल्ली कुछ लड़कों के साथ, अपने कस्बे के बाहर एक पुलिया पर बैठा था। तभी एक सज्जन शहर से आए और लड़कों से पूछने लगे, ‘क्यों भाई, शेख साहब के घर को कौन-सी सड़क गई है?’ शेखचिल्ली के पिता को सब ‘शेख साहब’ कहते थे। उस गाँव में वैसे तो बहुत से शेख थे, परंतु ‘शेख साहब’ चिल्ली के अब्बाजान ही कहलाते थे। वह व्यक्ति उन्हीं के बारे में पूछ रहा था। वह शेख साहब के घर जाना चाहता था।

परन्तु उसने पूछा था कि शेख साहब के घर कौन-सा रास्ता जाता है। शेखचिल्ली को मजाक सूझा। उसने कहा, ‘क्या आप यह पूछ रहे हैं कि शेख साहब के घर कौन-सा रास्ता जाता है?’ ‘हाँ-हाँ, बिल्कुल!’ उस व्यक्ति ने जवाब दिया।

इससे पहले कि कोई लड़का बोले, शेखचिल्ली बोल पड़ा, ‘इन तीनों में से कोई भी रास्ता नहीं जाता।’ ‘तो कौन-सा रास्ता जाता है?’ ‘कोई नहीं।’‘क्या कहते हो बेटे?’ शेख साहब का यही गाँव है न? वह इसी गाँव में रहते हैं न?’ ‘हाँ, रहते तो इसी गाँव में हैं।’ ‘मैं यही तो पूछ रहा हूँ कि कौन-सा रास्ता उनके घर तक जाएगा।’

‘साहब, घर तक तो आप जाएँगे।’ शेखचिल्ली ने उत्तर दिया, ‘यह सड़क और रास्ते यहीं रहते हैं और यहीं पड़े रहेंगे। ये कहीं नहीं जाते। ये बेचारे तो चल ही नहीं सकते। इसीलिए मैंने कहा था कि ये रास्ते, ये सड़कें कहीं नहीं जाती। यहीं पर रहती हैं। मैं शेख साहब का बेटा चिल्ली हूँ। मैं वह रास्ता बताता हूँ, जिस पर चलकर आप घर तक पहुँच जाएँगे।’

‘अरे बेटा चिल्ली!’, वह आदमी प्रसन्न होकर बोला, ‘तू तो वाकई बड़ा समझदार और बुद्धिमान हो गया है। तू छोटा-सा था जब मैं गाँव आया था। मैंने गोद में खिलाया है तुझे। चल बेटा, घर चल मेरे साथ। तेरे अब्बा शेख साहब मेरे लंगोटिया यार हैं। और मैं तेरे रिश्ते की बात करने आया हूँ। मेरी बेटी तेरे लायक़ है। तुम दोनों की जोड़ी अच्छी रहेगी। अब तो मैं तुम दोनों की सगाई करके ही जाऊँगा।’ शेखचिल्ली उस सज्जन के साथ हो लिया और अपने घर ले गया। आगे चलकर वह सज्जन शेखचिल्ली के ससुर बन गए।

वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन

मध्यपूर्व के मुस्लिम देशों में 13वीं शताब्दी में हुए मुल्ला नसरुद्दीन, अपने समय का सर्वाधिक बुद्धिमान और खुशमिज़ाज व्यक्ति था।

तरह-तरह की तिकड़मबाजियों से वह धन जमा करता और उसे गरीबों, जरूरतमंदों में बांट देता। इसलिए समाज के गरीब और बेसहारा लोगों के बीच वह काफी लोकप्रिय था।
लोगों में उसकी लोकप्रियता से बादशाह और सरदार उससे चिढ़ते थे। वे उसे सदा सजा देने की ताक में रहते, पर हर बार अपनी चालाकियों से वह बच निकलता।

शासकों की नजर से बचने के लिए वह सदा एक शहर से दूसरे शहर वेश बदल कर घूमता रहता। रास्ते में आने वाली मुश्किलों से घबराने की बजाय वह उसका जम कर मजे लेता। उसकी कहानियां अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की जैसे मध्यपूर्व के देशों में काफी प्रचलित हैं।


वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन...


शाम के सूरज की किरणें बुखारा शरीफ के अमीर के महल के कंगूरों और मस्जिदों की मीनारों को चूमकर अलविदा कह रही थीं। रात के कदमों की धीमी आवाज दूर से आती सुनाई देने लगी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ऊंटों के विशाल कारवाँ के पीछे-पीछे अपने सुख-दुख के एकमात्र साथी गधे की लगाम पकड़े पैदल आ रहा था।

उसने हसरत-भरी निगाह बुखारा शहर की विशाल चारदीवारी पर डाली, उसने उस खूबसूरत मकान को देखा, जिसमें उसने होश की आँखें खोली थीं, जिसके आँगन में खेल-कूदकर बड़ा हुआ था। किंतु एक दिन अपनी सच्चाई, न्यायप्रियता, गरीबों तथा पीड़ितों के प्रति उमड़ती बेपनाह मुहब्बत और हमदर्दी के कारण उसे अमीर के शिकारी कुत्तों जैसे खूँखार सिपाहियों की नजरें बचाकर भाग जाना पड़ा था।

जिस दिन से उसने बुखारा छोड़ा था, न जाने वह कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा था- बगदाद, इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शी सराय, तिफ़िलस, दमिश्क, तरबेज और अखमेज और इन शहरों के अलावा और भी दूसरे शहरों तथा इलाकों में। कभी उसने अपनी रातें चरवाहों के छोटे से अलाव के सहारे-ऊँघते हुए गुजा़रीं थीं और कभी किसी सराय में, जहाँ दिन भर के थके-हारे ऊँट सारे रात धुँधलके में बैठे, अपने गले में बँधी घंटियों की रुनझुन के बीच जुगाली करने, अपने बदन को खुजाने, अपनी थकान मिटाने की कोशिश किया करते थे।

कभी धुएँ और कालिख से भरे कहवाख़ानों में, कभी भिश्तियों, खच्चर और गधे वाले ग़रीब मजदूरों और फकीरों के बीच, जो अधनंगे बदन और अधभरे पेट लिए नई सुबह के आने की उम्मीद से सारी रात सोते-जागते गुजा़रा देते थे और पौ फटते ही जिनकी आवाज़ों से शहर की गलियाँ और बाजा़र फिर से गूँजने लगते थे।

नसरुद्दीन की बहुत-सी रातें ईरानी रईसों के शानदार हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर भी गुज़री थीं उनकी वासना की प्यासी बेगमें किसी भी मर्द की बाहों में रात गुज़ारने के लिए बेबसी से हरम के जालीदार झरोखों में खड़ी किसी अजनबी की तलाश करती रहती थीं।

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:2

एक शानदार रात की याद

(आपने इससे पहले पढ़ा: सरदारों-अमीरों की नजरों से बचता हुआ, मुल्ला दर-दर भटक रहा था। उन कठिन दिनों में भी मुल्ला मौज-मस्ती करने का मौका छोड़ता नहीं था। उन्हीं मौकों में से वह याद करता है वह खूबसूरत रात, जो उसने अपने एक दुश्मन अमीर(सरदार) के घर पर बिताई थी....)


पिछली रात भी उसने एक अमीर के हरम में ही बिताई थी। अमीर अपने सिपाहियों के साथ दुनिया के सबसे बड़े आवारा, बदनाम और बागी मुल्ला नसरुद्दीन की तलाश में सरायों और कहवाख़ानों की खाक छानता फिर रहा था ताकि उसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दे और बादशाह से इनाम और पद प्राप्त कर सके।

जालीदार ख़ूबसूरत झरोखों से आकाश के पूर्वी छोर पर सुबह की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सुबह की सूचना देनेवाली हवा धीरे-धीरे ओस से भीगे पेड़-पौधों को सुलाने लगी थी। महल की खिड़िकयों पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ चोंच से अपने पंखों को सँवारने लगी थीं। आँखों की नींद का खुमार लिए अलसायी हुई बेगम का मुँह चूमते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, “वक्त़ हो गया, अब मुझे जाना चाहिए।”


‘अभी रुको।’ अपनी मरमरी बाहें उसकी गर्दन में डालकर बेगम ने आग्रह किया। ‘नहीं दिलरूबा, मुझे अब जाने दो। अलविदा’!
क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अँधेरा फैलने लगेगा, मैं बूढ़ी नौकरानी को भेंज दूंगी ’



‘नहीं, मेरी मलिका। मुझे अपने रास्ते जाने दो। देर हो रही है।’ नसरुद्दीन ने उसकी कमलनाल जैसी बाहों को अपने गले में से निकालते हुए कहा, एक ही मकान में दो रातें बिताना कैसा होता है, मैं एक अरसे से भूल चुका हूँ। बस मुझे भूल मत जाना। कभी-कभी याद कर लिया करना ”

‘लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो? क्या किसी दूसरे शहर में कोई जरूरी काम है?’

‘पता नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी मलिका, सुबह का उजाला फैल चुका है। शहर के फाटक खुल चुके हैं। कारवाँ अपने सफ़र पर रवाना हो रहे हैं। उनके ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज तुम्हें सुनाई दे रही है ना? घंटियों की आवाज़ों को सुनते ही जैसे मेरे पैरों में पंख लग गए हैं। अब नहीं रुक सकता। ’

‘तो फिर!’ अपनी लंबी-लंबी पलकों में आँसू छिपाने की कोशिश करते हुए बेगम ने नाराज़गी के साथ कहा, ‘लेकिन जाने से पहले अपना नाम तो बताते जाओ।’

‘मेरा नाम?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उसकी आँसू भरी नजरों में नजरें डालते हुए कहा, ‘सुनो, तुमने यह रात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बिताई थी। मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ। अमन में खलल डालने वाला, बगावत और झगड़े फैलाने वाला-मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ, जिसका सिर काटकर लाने वाले को भारी इनाम देने की घोषणा की गई है। मेरा जी चाहा था कि इतनी बड़ी क़ीमत पर मैं खुद ही अपना सिर इनके हवाले कर दूँ। ’

मुल्ला नसरुद्दीन की इस बात को सुनते ही बेगम खिल-खिलाकर हंस पड़ी।


‘तुम हंस रही हो मेरी नन्हीं बुलबुल?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने दर्द-भरी आवाज़ में कहा, ‘लाओ, आख़िरी बार अपने इन गुलाबी होठों को चूम लेने दो। जी तो चाहता था कि तुम्हें अपनी कोई निशानी देता जाऊँ-कोई जेवर। लेकिन ज़ेवर मेरे पास है नहीं। निशानी के रूप में पत्थर का यह सफेद टुकड़ा दे रहा हूँ। इसे सँभालकर रखना और इसे देखकर मुझे याद कर लिया करना।’

इसके बाद मुल्ला ने अपनी फटी खलअत पहन ली, जो अलाव की चिंगारियों से कई जगह से जल चुकी थी। उसने एक बार फिर बेगम का चुंबन लिया और चुपचाप दरवाज़े से निकल आया दरवाज़े पर महल के ख़जाने का रखवाला, आलसी और मूर्ख खोजा लंबा पग्गड़ बाँधे, सामने से ऊपर की ओर मुड़ी जूतियाँ पहने खर्राटे भर रहा था। सामने ही ग़लीचों और दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया लगाए पहरेदार सोए पड़े थे।

इसके पहले:

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:3

फिर शुरू हुआ सफर

मुल्ला नसरुद्दीन बिना कोई आवाज किए अमीर के महल से बाहर निकल आया। हमेशा की तरह सकुशल। फिर वह सिपाहियों की नज़रों में छूमंतर हो गया। एक बार फिर उसके गधे की तेज टापों से सड़क गूँजने लगी थी। धूल उड़ने लगी थी और नीले आकाश पर सूरज चमकने लगा था। मुल्ला नसरुद्दीन बिना पलकें झपकाए उनकी ओर देखता रहा।

.एक बार भी पीछे मुड़कर देखे बिना, अतीत की यादों की किसी भी कसक के बिना और भविष्य में आनेवाले संकटों में निडर वह अपने गधे पर सवार हो आगे बढ़ता चला जाता। लेकिन अभी-अभी वह जिस कस्बे को छोड़कर आया है, वह उसे कभी भूल नहीं पाएगा।

उसका नाम सुनते ही अमीर और मुल्ला क्रोध से लाल-पीले होने लगते थे। भिश्ती, ठठेरे, जुलाहे, गाड़ीवान, जीनसाज़ रात को कहवाखा़नों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियाँ सुना-सुनाकर अपना मनोरंजन करते; और वे कहानियाँ कभी भी समाप्त न होतीं। उसकी प्रसिद्धि और ज्यादा दूर तक फैल जाती।

अमीर के हरम में अलसायी हुई बेगम बार-बार सफे़द पत्थर के उस टुकड़े को देखती और जैसे ही उसके कानों में पति के क़दमों की आवाज़ टकराती, वह उस सीप को पिटारी में छिपा देती।


जिरहबख्त़र की खिलअत को उतारता, हाँफता-काँपता मोटा अमीर कहता, "ओह, इस कमबख्त आवारा मुल्ला नसरुद्दीन ने हम सबकी नाकों में दम कर रखा है। पूरे देश को उजाड़कर गड़बड़ फैला दी है। आज मुझे अपने पुराने मित्र खुरासान के सबसे बड़े अधिकारी का पत्र मिला था। तुम समझती हो ना? उसने लिखा है कि जैसे ही यह आवारा उसके शहर में पहुँचा अचानक लुहारों ने टैक्स देना बंद कर दिया और सरायवालों ने बिना कीमत लिए सिपाहियों को खाना खिलाने से इंकार कर दिया। और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वह चोर, वह बदमाश हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताखी कर बैठा। उसने हाकिम की सबसे अधिक चहेती बेगम को फुसला लिया। विश्वास करो, दुनिया ने ऐसा बदमाश आज तक नहीं देखा। मुझे इस बात का अफसोस है कि उस दो कौड़ी के आदमी ने मेरे हरम में घुसने की आज तक कोशिश नहीं की। अगर मेरे हरम में घुस आता तो उसका सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटका दिखाई देता। "

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान:4

इसके पहले आपने पढ़ा
मुल्ला को सबसे प्यारा था अपना वतन बुखारा। और आज वह बुखारा की सरहद पर अपनी रात बिताने की तैयारी कर रहा था।


अपना शहर बुखारा छोड़ने के बाद के वर्षों में मुल्ला अनेक नगरों में घूम आया था। वह जहाँ भी जाता था, अपनी एक-न-एक ऐसी याद छोड़ जाता था, जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता था। और अब वह अपने वतन, अपने शहर बुखारा लौट रहा था। पवित्र बुखारा-जहाँ वह अपना नाम बदलकर कुछ दिन इधर-उधर भटकने से छुट्टी पाकर आराम करना चाहता था।


वह व्यापारियों के एक काफि़ले के पीछे-पीछे चल पड़ा था। उसने बुखारा की सरहद पार कर ली। आठवें दिन गर्द की धुंध में उसे इस बड़े और मशहूर नगर की ऊँची-ऊँची मीनारें दिखाई दीं।


प्यास और गर्मी से निढाल ऊँट वालों ने फटे गलों से आवाजें लगाईं। ऊँट और भी तेजी से आगे बढ़ने लगे। सूरज डूब रहा था। फाटक बंद होने से पहले बुखारा में दाखिल होने के लिए तेज़ी जरूरी थी। मुल्ला नसरुद्दीन कारवाँ में सबसे पीछे था- धूल के मोटे और भारी बादलों में लिपटा हुआ। यह धूल उसके अपने वतन की धूल थी- पवित्र धूल, जिसकी खुशबू उसे दूर देशों की मिट्टी की खुशबू से कहीं अधिक अच्छी लग रही थी।
छींकता, खाँसता वह अपने गधे से कहता चला जा रहा था- ‘अच्छा ले, हम लोग पहुँच ही गए। आखि़र अपने वतन में पहुँच ही गए। खुदा ने चाहा तो खुशियाँ और सफलताएँ यहाँ इंतजार कर रही होंगी’।

जब कारवाँ शहर के परकोटे तक पहुँचा तो पहरेदार फाटक बंद कर चुके थे।


‘खुदा के लिए हमारा इंतजार करो।’ कारवाँ का सरदार सोने का सिक्का दिखाते हुए दूर से चिल्लाया।

लेकिन तब तक फाटक बंद हो गए। साँकलें लग गईं। परकोटे के ऊपर बनी बुर्जियों में लगी तोपों के पास पहरेदार आकर खड़े हो गए। तेज हवा चलने लगी। धुंध भरे आकाश पर फैली गुलाबी रोशनी रात के धुँधलकों में दबकर गायब हो गई। दूज का नाजुक चाँद आकाश से झाँकने लगा। रात के फैलते झुटपुटे की खामोशी में अनगिनत मस्जिदों की मीनारों से अजान देने वालों की ऊँची आवाजें तैरती हुई आने लगीं. वे मुसलमानों को शाम की नमाज के लिए बुला रहे थे।

जैसी ही व्यापारी और ऊँटवाले नमाज के लिए सजदे में झुके, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक ओर खिसक गया।





इन व्यापारियों के पास कुछ है, जिसके लिए खुदा को धन्यवाद दें। शाम का खाना ये लोग खा चुके हैं। थोड़ी देर बाद रात का खाना खाएँगे। ऐ मेरे वफ़ादार गधे, हम दोनों भूखे हैं। अगर अल्लाह यह चाहता है कि हम उसे धन्यवाद दें तो मेरे लिए पुलाव की एक प्लेट और तेरे एक गट्ठर तिपतिया घास भेज दे। हमें न तो शाम का खाना मिला है और न रात का खाना मिलने की कोई उम्मीद दिखाई दे रही है।

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान-5

इसके पहले आपने पढ़ा
(बुखारा की सरहद पर पहुंचते-पहुंचते शहर का दरवाजा बंद हो जाता है, सभी सरहद पर ही रात बिताने की तैयारी करते हैं....)

मुल्ला नसरुद्दीन ने गधे को सड़क के किनारे एक पेड़ से बाँध दिया और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी जमीन पर लेट गया। ऊपर आकाश में सितारों का चमकता हुआ जाल फैला हुआ था। सितारों के हर झुंड को वह पहचानता था।

इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इसी प्रकार आकाश को देखा था। रात के दुआ के पवित्र घंटे उसे संसार के सबसे बड़े दौलतमंद से भी बड़ा दौलतमंद बना देते थे।

धनसंपन्न लोग भले ही सोने के थाल में भोजन करें, लेकिन वे अपनी रातें छत के नीचे बिताने के लिए मजबूर होते हैं और नीले आकाश पर जगमगाते तारों और कुहरे भरी रात के सन्नाटे में संसार के सौंदर्य को देखने से वंचित रह जाते हैं।

इस बीच शहर के उस परकोटे के पीछे, जिस पर तोपें लगी थीं, सराय और कहवाखानों में बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल चुकी थी। कसाईखाने की ओर ले जानेवाली भेड़ों ने दर्दभरी आवाज़ में मिमियाना शुरू कर दिया था।

अनुभवी मुल्ला नसरुद्दीन ने रात-भर आराम करने के लिए हवा के रुख के विपरीत स्थान खोजा था ताकि खाने की ललचाने वाली महक रात में उसे परेशान न करे और वह निश्चिंतता से सोता रहे। उसे बुखारा के रिवाजों की पूरी-पूरी जानकारी थी। इसलिए उसने शहर के फाटक पर टैक्स चुकाने के लिए अपनी रकम का अंतिम भाग बचा रखा था।


बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, लेकिन नींद नहीं आई। नींद न आने का कारण भूख नहीं थी, वे कड़वे विचार थे, जो उसे सता रहे थे।
छोटी-सी काली दाढ़ी वाले इस चालाक और खुशमिज़ाज आदमी को अपने वतन से सबसे अधिक प्यार था। फटा पैबंद लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और फटे जूते पहने वह बुखारा से जितना अधिक दूर होता, उसकी याद उसे उतनी ही अधिक सताया करती थी।

परदेस में उसे बुखारा की उन तंग गलियों की याद आती, जो इतनी पतली थीं कि अराबा (एक प्रकार की गाड़ी भी) दोनों और बनी कच्ची दीवारों को रगड़कर ही निकल पाती थी। उसे ऊँची-ऊँची मीनारों की याद आती, जिसके रोग़नदार ईंटों वाले गुंबदों पर सूरज निकलते और डूबते समय लाल रोशनी ठिठककर रुक जाती थी।

उन पुराने और पवित्र वृक्षों की याद आती, जिनकी डालियों पर सारस के काले और भारी घोंसले झूलते रहते थे। नहरों के किनारे के कहवाखाने, जिन पर चिनार के पेड़ों की छाया थी, नानबाइयों की भट्टी जैसी तपती दुकानों से निकलता हुआ धुआँ और खाने की खुशबू तथा बाजारों के तरह-तरह के शोर-गुल याद आते। अपने वतन की पहाड़ियाँ याद आतीं। झरने याद आते। खेत, चरागाह, गाँव और रेगिस्तान याद आते।
बगदाद या दमिश्क में वह अपने देशवासियों को उनकी पोशाक और कुलाह देखकर पहचान लेता था। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगता था और गला भर आता था। जाने के समय की तुलना में वापस आते समय से अपना देश और अधिक दुखी दिखाई दिया।

पुराने अमीर की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। नए अमीर ने पिछले आठ वर्षों में बुखारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूख तले, गेहूँ और जौ के धूप जले ऊबड़-खाबड़ खेत देखे।

ये खेत घास और कँटीली झाड़ियों के कारण बर्बाद हो रहे थे। बिना पानी के बाग मुरझा रहे थे। किसानों के पास न तो मवेशी थे और न रोटी। सड़कों पर कतार बाँधे फ़कीर उन लोगों से भीख माँगा करते थे, जो खुद भूख थे।

नए अमीर ने हर गाँव में सिपाहियों की टुकड़ियाँ भेज रखी थीं और गाँववालों को हुक्म दे रखा था कि उन सिपाहियों के खाने-पीने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होगी। उसने बहुत-सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गाँववालों से कहा कि वे उन्हें पूरा करें। नया अमीर बहुत ही धार्मिक था। बुखारा के पास ही शेख़ बहाउद्दीन का पवित्र मजार था।

नया अमीर साल में दो बार वहाँ जियारत करने जरूर जाता था। पहले से लगे हुए चार टैक्सों में उसने तीन नए टैक्स और बढ़ा दिए थे। व्यापार पर टैक्स बढ़ा दिया था। का़नूनी टैक्सों में भी वृद्धि कर दी थी। इस तरह उसने ढेर सारी नापाक दौलत जमा कर ली थी। दस्तकारियाँ ख़त्म होती जा रही थीं। व्यापार घटता चला जा रहा था।

मुल्ला नसरुद्दीन की वापसी के समय उसके वतन में बेहद उदासी छाई हुई थी।

तेनाली राम और कुबड़ा धोबी

कुबड़ा धोबी:


तेनालीराम ने कहीं सुना था कि एक दृष्ट आदमी साधु का भेष बनाकर लोगों को अपने जाल में फँसा लेता है। उन्हें प्रसाद में धतूरा खिला देता है। यह काम वह उनके शत्रुओं के कहने पर धन के लालच में करता था। धतूरा खाककर कोई तो मर जाता और कोई पागल हो जाता।


उन दिनों भी उसके धतूरे के प्रभाव से एक व्यक्ति पागल होकर नगर की सड़कों पर घूमा करता था। लेकिन धतूरा खिलाने वाले व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं था। इसलिए वह खुलेआम सीना तानकर चला करता। तेनालीराम ने सोचा कि ऐसे व्यक्ति को अवश्य दंड मिलना चाहिए।

एक दिन जब वह दृष्ट व्यक्ति शहर की सड़कों पर आवारागर्दी कर रहा था, तो तेनालीराम उसके पास गया और उसे बातों में उलझाए रखकर उस पागल के पास ले गया, जिसे धतूरा खिलाया गया था। वहाँ जाकर चुपके से तेनालीराम ने उसका हाथ पागल के सिर पर दे मारा। उस पागल ने आव देखा न ताव, उस आदमी के बाल पकड़कर उसका सिर पत्थर पर टकराना शुरू कर दिया। पागल तो था ही, उसने उसे इतना मारा कि वह पाखंडी साधु मर गया। मामला राजा तक पहुँचा। राजा ने पागल को तो छोड़ दिया, लेकिन क्रोध में तेनालीराम को यह सजा दी कि इसे हाथी के पाँवों से कुचलवाया जाए, क्योंकि इसी ने इस पागल का सहारा लेकर साधु के प्राण ले लिए।


दो सिपाही तेनालीराम को शाम के समय एक सुनसान एकांत स्थान पर ले गए और उसे गरदन तक जमीन में गाड़ दिया। इसके बाद वे हाथी लेने चले गए। उन्होंने सोचा कि अब यह बच भी कैसे सकता है!

कुछ देर बाद वहाँ से एक कुबड़ा धोबी निकला। उसने तेनालीराम से पूछा, ‘क्यों भाई यह क्या तमाशा है? तुम इस तरह जमीन में क्यों गड़े हो?’

तेनालीराम ने कहा-‘कभी मैं भी तुम्हारी तरह कुबड़ा था, पूरे दस साल मैं इस कष्ट से दुखी रहा। जो देखता वही मुझ पर हँसता। यहाँ तक कि मेरी पत्नी भी। आखिर एक दिन अचानक मुझे एक महात्मा मिल गए। वह मुझसे बोले, ‘इस पवित्र स्थान पर पूरा एक दिन आँख बंद किए और बिना एक शब्द भी बोले गरदन तक खड़े रहोगे तो तुम्हारा कष्ट दूर हो जाएगा। मिट्टी खोदकर मुझे बाहर निकालकर तो जरा देखो कि मेरा कूबड़ दूर हो गया है कि नहीं?’

धोबी ने उसके चारों ओर की मिट्टी खोदी। जब तेनालीराम बाहर निकला तो धोबी बहुत हैरान हुआ। सचमुच कूबड़ का कहीं नाम निशान तक नहीं था।

वह तेनालीराम से बोला, ‘सालों हो गए इस कूबड़ के बोझ को पीठ पर लादे हुए। मैं क्या जानता था कि इसका इलाज इतना आसान है। मुझ पर इतनी कृपा करो, मुझे यहीं गाड़ दो। मेरे ये कपड़े धोबी मुहल्ले में जाकर मेरी पत्नी को दे देना और उससे कहना कि वह सवेरे मेरा नाश्ता ले आए। मैं तुम्हारा यह अहसान जीवन-भर नहीं भूलूँगा. और, हाँ मेरी पत्नी को यह मत बताना कि कल तक मेरा कूबड़ ठीक हो जाएगा। मैं कल उसे हैरान करना चाहता हूँ।’

‘बहुत अच्छा।’ तेनालीराम ने धोबी से कहा और उसे गरदन तक गाड़ दिया। फिर उसके कपड़े बगल में दबाकर बोला,‘अच्छा, तो मैं चलता हूँ। अपनी आँखें बंद रखना और मुँह भी, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए, नहीं तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी और यह कूबड़ बढ़कर दो गुना हो जाएगा।’

‘चिंता मत करो, मैंने कूबड़ के कारण बड़े दुख उठाए हैं। इसे दूर करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।’ धोबी ने कहा। तेनालीराम वहाँ से चलता बना।

कुछ देर बाद राजा के सिपाही एक हाथी लेकर पहुँचे और धोबी का सिर उसके पाँवों तले कुचलवा दिया। सिपाहियों को पता नहीं चला कि यह कोई और व्यक्ति है। सिपाही तेनालीराम की मृत्यु का समाचार लेकर राजा के पास पहुँचे। तब तक उनका क्रोध शांत हो गया था और वे दुखी थे, क्योंकि उन्होंने तेनालीराम को मृत्युदंड दिया. तब तक उस पाखंडी साधु के बारे में भी उन्हें काफी कुछ पता चल चुका था।

वह सोच रहे थे, ‘बेचारे तेनालीराम को बेकार ही अपनी जान गँवानी पड़ी। उसने तो एक ऐसे अपराधी को दंड दिया था, जिसे मेरे पुलिस अफसर भी नहीं पकड़ सके थे।’ अभी राजा सोच में ही डूबे थे कि तेनालीराम दरबार में आ पहुँचा और बोला,‘महाराज की जय हो!’ राजा सहित सभी आश्चर्य से उसके चेहरे की ओर देख रहे थे। तेनालीराम ने राजा कृष्णदेव राय को सारी कहानी कह सुनाई। राजा ने उसे क्षमा कर दिया।

अंतिम इच्छा

अंतिम इच्छा

विजयनगर के ब्राह्मण बड़े लालची थे। वे हमेशा किसी न किसी बहाने राजा कृष्णदेव राय से धन ऐंठ लेते थे। राजा की उदारता का वे अनुचित फायदा उठाते। एक दिन राजा ने उनसे कहा, “मरते समय मेरी मां ने आम खाने की इच्छा जताई थी, जो उस समय पूरी नहीं हो सकी थी। क्या अब कोई उपाय हो सकता है, जिससे उनकी आत्मा को शांति मिले।”

ब्राह्मणों ने कहा, “महाराज, यदि आप एक सौ आठ ब्राह्मणों को सोने का एक-एक आम भेंट करें तो आपकी मां की अधूरी इच्छा पूरी हो जाएगी। ब्राह्मणों को दिया दान मृतात्मा के पास अपने आप पहुंच जाता है।”

राजा कृष्णदेव राय ने ब्राह्मणों को सोने के एक-एक आम दान कर दिए। तेनालीराम को ब्राह्मणों के इस लालच पर बहुत गुस्सा आया। वह उन्हें सबक सिखाने की ताक में रहने लगा।



जब उनकी मां की मृत्यु हुई तो उन्होंने भी ब्राह्मणों को अपने घर बुलाया। जब सारे ब्राह्मण आसनों पर बैठ गए तो तेनालीराम ने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया और अपने नौकरों से कहा, “जाओ, लोहे की गर्म सलाखें लेकर आओ और इन ब्राह्मणों के शरीर पर दागो।”

ब्राह्मणों ने जब यह सुना तो चीख-पुकार मच गई। सब उठ कर दरवाजे की ओर भागे। पर नौकर उन्हें पकड़ कर एक-एक बार दागने लगे। बात राजा तक पहुंच गई। वह खुद आए और ब्राह्मणों को बचाया।

गुस्से में उन्होंने पूछा, “यह क्या हरकत है तेनालीराम?”
तेनालीराम ने कहा, “महाराज, मेरी मां को जोड़ों के दर्द की बीमारी थी। मरते समय उनको बहुत तेज दर्द था। अंतिम समय उन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि दर्द की जगह पर लोहे की गर्म सलाखें दागी जाएं ताकि दर्द से आराम पाकर उनके प्राण चैन से निकल सकें। उस समय उनकी यह इच्छा पूरी नहीं की जा सकी थी। इसलिए ब्राह्मणों को सलाखें दागनी पड़ीं।

राजा हंस पड़े। ब्राह्मणों के सिर शर्म से झुक गए।

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान-6

इसके पहले आपने पढ़ा
(अपने शहर के सीमा पर मुल्ला ने दूसरे व्यापारियों के साथ खुले आकाश तले रात बिताई, अब उजाला फैलने लगा...)

सवेरे तड़के अजान देने वालों ने मीनारों से फिर अजान दी। फाटक खुल गए और कारवाँ धीरे-धीरे शहर में दाखिल होने लगा। ऊँटों के गले में बँधी घंटियाँ धीरे-धीरे बजने लगीं।

लेकिन फाटक में घुसते ही कारवाँ रुक गया। सामने की सड़क पहरेदारों से घिरी हुई थी। उनकी संख्या बहुत अधिक थी। कुछ पहरेदार ढंग और सलीके से वर्दी पहने हुए थे। लेकिन जिन्हें अमीर की नौकरी में अभी तक पैसा जुटाने का पूरा-पूरा मौक़ा नहीं मिला था, उनके बदन अधनंगे थे। पाँव नंगे थे। वे चीख़-चिल्ला रहे थे और उस लूट के लिए, जो उन्हें अभी-अभी मिलने वाली थी, एक-दूसरे को ठेल रहे थे, आपस में झगड़ रहे थे।

कुछ देर बाद एक कहवाख़ाने से कीच भरी आँखोंवाला एक मोटा-ताजा टैक्स अफसर निकला। उसकी रेशमी खलअत की आस्तीनों में तेल लगा था। पैरों में जूतियाँ थीं। उसके मोटे थुल-थुले चेहरे पर अय्याशी के चिन्ह साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे थे।

उसने व्यापारियों पर ललचायी हुई नजऱ डाली। फिर कहने लगा- ‘स्वागत है व्यापारियों! अल्लाह तुम्हें अपने काम में सफलता दे। तुम्हें यह मालूम होना चाहिए कि अमीर का हुक्म है कि जो भी व्यापारी अपने माल का छोटे-से छोटा हिस्सा भी छिपाने की कोशिश करेगा, उसे बेंत मार-मारकर मार डाला जाएगा।’


परेशान व्यापारी अपनी रँगी हुई दाढ़ियों को खा़मोश सहलाते रहे। बेताबी से चहलक़दमी करते हुए पहरेदारों की ओर मुड़कर टैक्स अफसर ने अपनी मोटी उगलियाँ नचाईं।

इशारा पाते ही वे चीख़ते-चिल्लाते हुए ऊँटों पर टूट पड़े। उन्होंने उतावली में एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते अपनी तलवारों से रस्से काट डाले और सामान की गाँठें खोल दीं।

रेशम और मखमल के थान, काली मिर्च, कपूर और गुलाब की क़ीमती इत्र की शीशियाँ, कहवा और तिब्बती दवाओं के डिब्बे सड़क पर बिखर गए।

भय तथा परेशानी ने व्यापारियों की जुबान पर जैसे ताले लगा दिए। जाँच दो मिनट में पूरी हो गईं। सिपाही अपने अफसर के पीछे क़तार बाँधकर खड़े हो गए। उनके कोटों की जेबें लूट के माल में फटी जा रही थीं।


इसके बाद शहर में आने और माल टैक्स की वसूली आरंभ हो गईं। मुल्ला नसरुद्दीन के पास व्यापार के लिए कोई सामान नहीं था। उसे केवल शहर में घुसने का टैक्स देना था।

अफसर ने पूछा, ‘तुम कहाँ से आ रहे हो? और तुम्हारे आने की वजह क्या है?’

मुहर्रिर ने सींग से भरी स्याही में बाँस की क़लम डुबाई और मोटे रजिस्टर में मुल्ला नसरुद्दीन का बयान लिखने के लिए तैयार हो गया।

‘हुजूर आला, मैं ईरान से आ रहा हूँ। यहाँ बुखारा में मेरे कुछ रिश्तेदार रहते हैं।’

‘अच्छा।’ अफसर ने कहा, तो तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो? इस हालत में तुम्हें मिलनेवालों का टैक्स अदा करना होगा।’

‘लेकिन मैं उनसे मिलूँगा नहीं। मैं तो एक ज़रूरी काम से आया हूँ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उत्तर दिया।

‘काम से आए हो?’ अफसर चिल्लाया। उसकी आँखें चमकने लगीं, ‘तो तुम रिश्तेदारों से भी मिलने आए हो और काम पर लगने वाला टैक्स भी दो। और खुदा की शान में बनी मस्जिदों की सजावट के लिए ख़ैरात दो, जिन्होंने रास्ते में डाकुओं से तुम्हारी हिफाज़त की।’

मुल्ला नसरुद्दीन ने सोचा, मैं तो चाहता था कि खुदा उस समय मेरी हिफाज़त करता। डाकुओं से बचने का इंतजाम तो मैं खुद ही कर लेता। लेकिन वह चुप रहा। उसने हिसाब लगा लिया था कि अगर वह बोला तो हर शब्द की की़मत उसे दस तंके चुकानी पड़ेगी।

उसने अपना बटुवा खोला और पहरेदारों की ललचायी, घूरने वाली नजरों के सामने शहर में दाखिल होने का टैक्स, मेहमान टैक्स, व्यापार टैक्स, मस्जिदों की सजावट के लिए खै़रात दी। अफसर ने सिपाहियों की ओर घूरा तो वे पीछे हट गए। मुहर्रिर रजिस्टर में नाक गड़ाए बाँस की क़लम घसीटता रहा।


टैक्स अदा करने के बाद मुल्ला नसरुद्दीन रवाना होने ही वाला था कि टैक्स अफसर ने देखा, उसके पटके में अब भी कुछ सिक्के बाकी हैं।

‘ठहरो,’ वह चिल्लाया, ‘तुम्हारे इस गधे का टैक्स कौन अदा करेगा? अगर तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो तो तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा।’

अपना पटका एक बार फिर खोलते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी नर्मी से उत्तर दिया ‘मेरे अक्लमंद आका, आप सच फरमाते हैं, सचमुच मेरे गधे के रिश्तेदारों की तादाद बुखारा में बहुत बड़ी है। नहीं तो जिस ढंग से यहाँ काम चल रहा है, आप के अमीर बहुत पहले ही तख़्त से धकेल दिए गए होते, और मेरे बहुत ही काबिल हुजूर आप अपने लालच के लिए न जाने कब सूली पर चढ़ा दिए गए होते।’

इससे पहले कि अफसर अपने होशोहवास ठीक कर पाता, मुल्ला नसरुद्दीन कूदकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसे सरपट भगा दिया। पलक झपकते ही वह सबसे पास की गली में पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान-7

पिछली बार आपने पढ़ा:
(टैक्स अदा करने के बाद मुल्ला नसरुद्दीन रवाना होने ही वाला था कि टैक्स अफसर ने देखा, उसके पटके में अब भी कुछ सिक्के बाकी हैं। ‘ठहरो,’ वह चिल्लाया, ‘तुम्हारे इस गधे का टैक्स कौन अदा करेगा? अगर तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो तो तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा।’


अपना पटका एक बार फिर खोलते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी नर्मी से उत्तर दिया ‘मेरे अक्लमंद आका, आप सच फरमाते हैं, सचमुच मेरे गधे के रिश्तेदारों की तादाद बुखारा में बहुत बड़ी है। नहीं तो जिस ढंग से यहाँ काम चल रहा है, आप के अमीर बहुत पहले ही तख़्त से धकेल दिए गए होते, और मेरे बहुत ही काबिल हुजूर आप अपने लालच के लिए न जाने कब सूली पर चढ़ा दिए गए होते।’

इससे पहले कि अफसर अपने होशोहवास ठीक कर पाता, मुल्ला नसरुद्दीन कूदकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसे सरपट भगा दिया। पलक झपकते ही वह सबसे पास की गली में पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।)

उसके आगे:

मुल्ला अपने गधे पर


वह बराबर कहता जा रहा था- ‘और तेज़ और जल्दी मेरे वफ़ादार गधे, जल्दी भाग। नहीं तो तेरे मालिक को एक और टैक्स अपना सिर देकर चुकाना पड़ेगा।’


मुल्ला नसरुद्दीन का गधा बहुत ही होशियार था। हर बात को अच्छी तरह समझता था। उसके कानों में शहर के फाटक से आती हुई पहरेदारों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ चुकी थीं। वह सड़क की परवाह किए बिना सरपट भागा चला जा रहा था, इतनी तेज़ रफ्तार से कि उसके मालिक को अपने पैर ऊँचे उठाने पड़ रहे थे।

उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे। वह जी़न से चिपका हुआ था। भारी आवाज से भौंकते हुए कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे। मुर्ग़ियों के चूजे भयभीत होकर तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगे थे और सड़क पर चलने वाली दीवारों से चिपटे अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे।
शहर के फाटकों पर पहरेदार इस साहसी स्वतंत्र विचार वाले व्यक्ति की तलाश में भीड़ छान रहे थे। व्यापारी मुस्कुराते हुए एक-दूसरे से कानाफूसी कर रहे थे। ‘यह उत्तर तो केवल मुल्ला नसरुद्दीन ही दे सकता था।’

दोपहर होते-होते यह समाचार पूरे शहर में फैल चुका था। व्यापारी बाज़ार में यह घटना अपने ग्राहकों को सुना रहे थे और वे दूसरों को। सुनकर हर व्यक्ति हँसकर कहने लगता, ‘ये शब्द तो मुल्ला नसरुद्दीन ही कह सकता था।’

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 8

मुल्ला पहुंचा अपने शहरः मिली वालिद के मौत की खबर

(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला अपने गधे पर

मुल्ला नसरुद्दीन का गधा बहुत ही होशियार था। हर बात को अच्छी तरह समझता था। उसके कानों में शहर के फाटक से आती हुई पहरेदारों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ चुकी थीं। वह सड़क की परवाह किए बिना सरपट भागा चला जा रहा था, इतनी तेज़ रफ्तार से कि उसके मालिक को अपने पैर ऊँचे उठाने पड़ रहे थे। उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे। वह जी़न से चिपका हुआ था। भारी आवाज से भौंकते हुए कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे। मुर्ग़ियों के चूजे भयभीत होकर तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगे थे और सड़क पर चलने वाली दीवारों से चिपटे अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे।

......मुल्ला गधे पर भागता हुआ अपने शहर में दाखिल होता है।)

उसके आगे

मुल्ला अपने शहर में

बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला। वह मकान, जहाँ उसने जन्म लिया था। न वह छायादार बगीचा ही मिला, जहाँ सर्दी के मौसम में पेड़ों की पीली-पीली पत्तियाँ सरसराती हुई झूलती थीं। जहाँ मक्खियाँ मुरझाते हुए फूलों के रस की अंतिम बूँद चूसती हुई भनभनाया करती थीं और सिंचाई के तालाब में झरना रहस्यपूर्ण अंदाज में बच्चों को कभी ख़त्म न होने वाली अनोखी कहानियाँ सुनाया करता था। वह स्थान अब ऊसर मैदान में बदल गया था। उस पर बीच-बीच में मलबे के ढेर लगे थे। टूटी हुई दीवारें खड़ी थी। वहाँ मुल्ला नसरुद्दीन को न तो एक चिड़ियाँ दिखाई दी और न ही एक मक्खी। केवल पत्थरों के ढेर के नीचे से, जहाँ उसका पैर पड़ गया था, अचानक ही एक लंबी तेल की धार उबल पड़ी थी और धूप में हल्की चमक के साथ पत्थरों के दूसरे ढेर में जा छिपी थी। वह एक साँप था; अतीत में इन्सान के छोड़े हुए वीरान स्थानों का एकमात्र और अकेला निवासी।

मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने पीछे मुड़कर देखा। परेशानियों और ग़रीबों से दोहरा एक बूढ़ा उस बंजर धरती को लाँघते हुए उसी ओर आ रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया, ‘मैं उनसे एक मुद्दत से परिचित था। शेर मुहम्मद सुप्रसिद्ध मुल्ला नसरुद्दीन के पिता थे। और ऐ मुसाफि़र, तुमने मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में ज़रूर बहुत कुछ सुना होगा।’ ‘हाँ, कुछ सुना तो है। लेकिन आप यह बताइए कि मुल्ला नसरुद्दीन के पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद और उनके घरवाले कहाँ गए?’ ‘इतने जोर से मत बोलो मेरे बेटे। बुखारा में हजा़रों जासूस हैं। अगर वे हम लोगों की बातचीत सुन लेंगे तो हम परेशानियों में पड़ जाएँगे।...हमारे शहर में मुल्ला नसरुद्दीन का नाम लेने की सख़्त मुमानियत है। उसका नाम लेना ही जेल में ठूँस दिए जाने के लिए काफ़ी है। मैं तुम्हें बताता हूँ कि शेर मुहम्मद का क्या हुआ।’

बूढ़े ने खाँसते हुए कहना शुरू किया,‘यह घटना पुराने अमीर के ज़माने की है। मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है। यह अफ़वाह अमीर के महल तक भी पहुँच गई। सिपाहियों ने मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत खोजा, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्‍तारी का हुक्म दे दिया। साथ ही यह भी हुक्म दे दिया कि उन लोगों को तब तक यातानाएँ दी जाएँ जब तक कि वे नसरुद्दीन का पता न बता दें। अल्लाह का शुक्र है कि उसने उन लोगों को खामोश रहने और यातनाओं को सहने की ताक़त दे दी। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया। उसके रिश्तेदारों और दोस्त अमीर के गुस्से से बचने के लिए बुखारा छोड़कर भाग गए। किसी को पता नहीं कि वे कहाँ हैं?....

‘लेकिन उन पर जोर-जुल्म क्यों किए गए?’मुल्ला नसरुद्दीन ने ऊँची आवाज़ में पूछा। उसकी आँखों में आँसू बह रहे थे। लेकिन बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा।

‘उन्हें क्यों सताया गया? मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मुल्ला नसरुद्दीन उस समय बुखारा में नहीं था।’‘यह कौन कह सकता है?’ बूढ़े ने कहा, ‘मुल्ला नसरुद्दीन की जब जहाँ मर्जी होती है, पहुँच जाता है। हमारा बेमिसाल मुल्ला नसरुद्दीन हर जगह है, और कहीं भी नहीं है।’ यह कहकर बूढ़ा खाँसते हुए आगे बढ़ गया। नसरुद्दीन ने अपने दोनों हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और गधे की ओर बढ़ने लगा। उसने अपनी बाँहें गधे की गर्दन में डाल दीं और बोला, ‘ऐ मेरे अच्छे और सच्चे दोस्त, तू देख रहा है मेरे प्यारे लोगों में से तेरे सिवा और कोई नहीं बचा। अब तू ही मेरी आवारागर्दी में मेरा एकमात्र साथी है।’गधा जैसे अपने मालिक का दुख समझ रहा था। वह बिल्कुल चुपचाप खड़ा रहा।

घंटे भर बाद मुल्ला नसरुद्दीन अपने दुख पर काबू पा चुका था। उसके आँसू सूख चुके थे।

‘कोई बात नहीं,’गधे की पीठ पर धौल लगाते हुए वह चिल्लाया,‘कोई चिंता नहीं। बुखारा के लोग मुझे अब भी याद करते हैं। किसी-न-किसी तरह हम कुछ दोस्तों को खोज ही लेंगे और अमीर के बारे में ऐसा गीत बनाएँगे-ऐसा गीत बनाएँगे कि वह गुस्से से अपने तख्त़ पर ही फट जाएगा और उसकी गंदी आँतें महल की दीवारों पर जा गिरेंगी। चल मेरे वफ़ादार गधे!आगे बढ़।

तेनालीराम और चोटी का किस्सा

चोटी की कीमत

एक दिन बातों-बातों में राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा, ‘अच्छा, यह बताओ कि किस प्रकार के लोग सबसे अधिक मूर्ख होते हैं और किस प्रकार के सबसे अधिक सयाने?’तेनालीराम ने तुरंत उत्तर दिया, ‘महाराज! ब्राह्मण सबसे अधिक मूर्ख और व्यापारी सबसे अधिक सयाने होते हैं।’ ‘ऐसा कैसे हो सकता है?’राजा ने कहा।‘मैं यह बात साबित कर सकता हूँ’, तेनालीराम ने कहा। ‘कैसे?’राजा ने पूछा।’

‘अभी जान जाएँगे आप। जरा,राजगुरु को बुलवाइए।’राजगुरु को बुलवाया गया। तेनालीराम ने कहा,‘महाराज, अब मैं अपनी बात साबित करूँगा, लेकिन इस काम में आप दखल नहीं देंगे। आप यह वचन दें, तभी मैं काम आरंभ करूँगा।’ राजा ने तेनालीराम की बात मान ली। तेनालीराम ने आदरपूर्वक राजगुरु से कहा,‘राजगुरु जी,महाराज को आपकी चोटी की आवश्यकता है। इसके बदले आपको मुँहमांगा इनाम दिया जाएगा।’

राजगुरु को काटो तो खून नहीं। वर्षों से पाली गई प्यारी चोटी को कैसे कटवा दें? लेकिन राजा की आज्ञा कैसे टाली जा सकती थी। उसने कहा, ‘तेनालीराम जी, मैं इसे कैसे दे सकता हूँ।’‘राजगुरु जी, आपने जीवन-भर महाराज का नमक खाया है। चोटी कोई ऐसी वस्तु तो है नहीं, जो फिर न आ सके। फिर महाराज मुँहमाँगा इनाम भी दे रहे हैं।...’

राजगुरु मन ही मन समझ गया कि यह तेनालीराम की चाल है। तेनालीराम ने पूछा,‘राजगुरु जी, आपको चोटी के बदले क्या इनाम चाहिए?’ राजगुरु ने कहा, ‘पाँच स्वर्णमुद्राएँ बहुत होंगी।’पाँच स्वर्णमुद्राएँ राजगुरु को दे दी गई और नाई को बुलावाकर राजगुरु की चोटी कटवा दी गई। अब तेनालीराम ने नगर के सबसे प्रसिद्ध व्यापारी को बुलवाया। तेनालीराम ने व्यापारी से कहा, ‘महाराज को तुम्हारी चोटी की आवश्यकता है।’ ‘सब कुछ महाराज का ही तो है, जब चाहें ले लें, लेकिन बस इतना ध्यान रखें कि मैं एक गरीब आदमी हूँ।’ व्यापारी ने कहा। ‘तुम्हें तुम्हारी चोटी का मुँहमाँगा दाम दिया जाएगा।’ तेनालीराम ने कहा। ‘सब आपकी कृपा है लेकिन...।’व्यापारी ने कहा। ‘क्या कहना चाहते हो तुम।’-तेनालीराम ने पूछा। ‘जी बात यह है कि जब मैंने अपनी बेटी का विवाह किया था, तो अपनी चोटी की लाज रखने के लिए मैंने पूरी पाँच हजार स्वर्णमुद्राएँ खर्च की थीं। पिछले साल मेरे पिता की मौत हुई। तब भी इसी कारण पाँच हजार स्वर्णमुद्राओं का खर्च हुआ और अपनी इसी प्यारी-दुलारी चोटी के कारण बाजार से कम-से-कम पाँच हजार स्वर्णमुद्राओं का उधार मिल जाता है।’ अपनी चोटी पर हाथ फेरते हुए व्यापारी ने कहा।

‘इस तरह तुम्हारी चोटी का मूल्य पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ हुआ। ठीक है,यह मूल्य तुम्हें दे दिया जाएगा।’ पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ व्यापारी को दे दी गईं। व्यापारी चोटी मुँड़वाने बैठा। जैसे ही नाई ने चोटी पर उस्तरा रखा,व्यापारी कड़ककर बोला, ‘सँभलकर, नाई के बच्चे। जानता नहीं, यह महाराज कृष्णदेव राय की चोटी है।’ राजा ने सुना तो आगबबूला हो गया। इस व्यापारी की यह मजाल कि हमारा अपमान करे? उन्होंने कहा, ‘धक्के मारकर निकाल दो इस सिरफिरे को।’ व्यापारी पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राओं की थैली को लेकर वहाँ से भाग निकला। कुछ देर बाद तेनालीराम ने कहा, ‘आपने देखा महाराज, राजगुरु ने तो पाँच स्वर्णमुद्राएँ लेकर अपनी चोटी मुँड़वा ली। व्यापारी पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ भी ले गया और चोटी भी बचा ली। आप ही कहिए, ब्राह्मण सयाना हुआ कि व्यापारी?’राजा ने कहा, ‘सचमुच तुम्हारी बात ठीक निकली।’

तेनालीराम और कंजूस सेठ

कंजूस सेठ

राजा कृष्णदेव राय के राज्य में एक कंजूस सेठ रहता था। उसके पास धन की कोई कमी न थी, पर एक पैसा भी जेब से निकालते समय उसकी नानी मर जाती थी। एक बार उसके कुछ मित्रों ने हँसी-हँसी में एक कलाकार से अपना चित्र बनवाने के लिए उसे राजी कर लिया, उसके सामने वह मान तो गया, पर जब चित्रकार उसका चित्र बनाकर लाया, तो सेठ की हिम्मत न पड़ी कि चित्र के मूल्य के रूप में चित्रकार को सौ स्वर्णमुद्राएँ दे दे।

यों वह सेठ भी एक तरह का कलाकार ही था। चित्रकार को आया देखकर सेठ अंदर गया और कुछ ही क्षणों में अपना चेहरा बदलकर बाहर आया। उसने चित्रकार से कहा, ‘तुम्हारा चित्र जरा भी ठीक नहीं बन पड़ा। तुम्हीं बताओ, क्या यह चेहरा मेरे चेहरे से जरा भी मिलता है?’ चित्रकार ने देखा, सचमुच चित्र सेठ के चेहरे से जरा भी नहीं मिलता था।

तभी सेठ बोला, ‘जब तुम ऐसा चित्र बनाकर लाओगे, जो ठीक मेरी शक्ल से मिलेगा, तभी मैं उसे खरीदूँगा।’ दूसरे दिन चित्रकार एक और चित्र बनाकर लाया, जो हूबहू सेठ के उस चेहरे से मिलता था, जो सेठ ने पहले दिन बना रखा था। इस बार फिर सेठ ने अपना चेहरा बदल लिया और चित्रकार के चित्र में कमी निकालने लगा। चित्रकार बड़ा लज्जित हुआ। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस तरह की गलती उसके चित्र में क्यों होती है?

अगले दिन वह फिर एक नया चित्र बनाकर ले गया, पर उसके साथ फिर वही हुआ। अब तक उसकी समझ में सेठ की चाल आ चुकी थी। वह जानता था कि यह मक्खीचूस सेठ असल में पैसे नहीं देना चाहता, पर चित्रकार अपनी कई दिनों की मेहनत भी बेकार नहीं जाने देना चाहता था। बहुत सोच-विचारकर चित्रकार तेनालीराम के पास पहुँचा और अपनी समस्या उनसे कह सुनाई। कुछ समय सोचने के बाद तेनालीराम ने कहा-‘कल तुम उसके पास एक शीशा लेकर जाओ और कहो कि आपकी बिलकुल असली तस्वीर लेकर आया हूँ। अच्छी तरह मिलाकर देख लीजिए। कहीं कोई अंतर आपको नहीं मिलेगा। बस, फिर अपना काम हुआ ही समझो।’ अगले दिन चित्रकार ने ऐसा ही किया।

वह शीशा लेकर सेठ के यहाँ पहुँचा और उसके सामने रख दिया। ‘लीजिए, सेठ जी, आपका बिलकुल सही चित्र। गलती की इसमें जरा भी गुंजाइश नहीं है।’ चित्रकार ने अपनी मुस्कराहट पर काबू पाते हुए कहा। ‘लेकिन यह तो शीशा है।’सेठ ने झुँझलाते हुए कहा। ‘आपकी असली सूरत शीशे के अलावा बना भी कौन सकता है? जल्दी से मेरे चित्रों का मूल्य एक हजार स्वर्णमुद्राएँ निकालिए।’ चित्रकार बोला। सेठ समझ गया कि यह सब तेनालीराम की सूझबूझ का परिणाम है। उसने तुरंत एक हजार स्वर्णमुद्राएँ चित्रकार को दे दीं। तेनालीराम ने जब यह घटना महाराज कृष्णदेव राय को बताई तो वह खूब हँसे।

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 9

मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर

(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला अपने शहर में)

बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला।.....मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा।...मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया......‘मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है।....अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्‍तारी का हुक्म दे दिया। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया।......

.....मुल्ला यह सुनकर रोता है और फिर आगे बढ़ जाता है।)

उसके आगे..

मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर

तीसरे पहर का सन्नाटा चारों और फैला हुआ था। धूल से भरी सड़क के दोनों और के मकानों की कच्ची दीवारों और बाड़ों से अलसायी-सी गर्मी उठ रही थी। पोंछने से पहले ही पसीना मुल्ला नसरुद्दीन के चेहरे पर फैल जाता था।

बुखारा की चिरपरिचित सड़कों, मस्जिदों की मीनरों और कहवाखानों को उसने बड़े प्यार से पहचाना। पिछले दस वर्षों में बुखारा में रत्ती भर भी फर्क नहीं आया था। रँगे हुए नाख़ूनवाले हाथों से बुर्क़ा उठाए एक औरत बड़े सजीले ढंग से झुककर गहरे रंग के पानी में पतली-सी सुराही डुबो रही थी।

मुल्ला के सामने सवाल यह था कि खाना कहाँ से और कैसे मिले? उसने पिछले दिन से तीसरे बार पटका अपने पेट पर कसकर, बाँध लिया था। ‘कोई-न-कोई उपाय तो करना ही पड़ेगा मेरे वफादार गधे।‘ उसने कहा, ‘हम यहीं रुककर कोई उपाय सोचते हैं। सौभाग्य से यहाँ एक कहवाखाना भी है।‘

लगाम ढीली करके उसने गधे को एक खूँटे के आसपास पड़े तिपतिया घास के टुकड़ों को चरने के लिए छोड़ दिया और अपनी खिलअत का दामन सिकोड़कर एक नहर के किनारे बैठ गया।

अपने विचारों में डूबा मुल्ला नसुरुद्दीन सोच रहा था- ‘बुखारा क्यों आया? खाना खरीदने के लिए मुझे आधे तंके का सिक्का भी कहाँ से मिलेगा? क्या मैं भूखा ही रहूँगा? उस कमबख्त़ टैक्स वसूल करने वाले अफसर ने मेरी सारी रक़म साफ़ कर दी। डाकुओं के बारे में मुझसे बात करना कितनी बड़ी गुस्ताखी थी।’

तभी उसे वह टैक्स अफसर दिखाई दे गया, जो उसकी बर्बादी का कारण था। वह घोड़े पर सवार कहवाखाने की ओर आ रहा था। दो सिपाही उसके अरबी घोड़े की लगाम थामे आगे-आगे चल रहे थे। उसके पास कत्थई-भूरे रंग का बहुत ही खूबसूरत घोड़ा था। उसकी गहरे रंग की आँखों में बहुत ही शानदार चमक थी। गर्दन सुराहीदार थी।

सिपाहियों ने बड़े अदब से अपने मालिक को उतरने में मदद दी। वह घोड़े से उतरकर कहवाखाने में चला गया। कहवाखाने का मालिक उसे देखते ही घबरा उठा। फिर स्वागत करते हुए उसे रेशमी गद्दों की ओर ले गया।

उसके बैठ जाने के बाद मालिक ने बेहतरीन कहवे का एक बढ़िया प्याला बनाया और चीनी कारीगिरी के एक नाजुक गिलास में डालकर अपने मेहमान को दे दिया। ‘जरा देखो तो, मेरी कमाई पर इसकी कितनी शानदार खा़तिरदारी हो रही है! मुल्ला नसरुद्दीन सोच रहा था।

टैक्स अफ़सर ने डटकर कहवा पिया और वहीं गद्दों पर लुढ़क कर सो गया। उसके ख़र्राटों से कहवाख़ाना भर गया। अफसर की नींद में खलल न पड़े, इस डर से कहवाखाने में बैठ फुस-फुसाकर बातें करने लगे। दोनों सिपाही उसके दोनों और बैठ गए और पत्तियों के चौरों में मक्खियाँ उड़ाने लगे।

कुछ देर बाद, जब उन्हें विश्वास हो गया कि उनका मालिक गहरी नींद में सो गया है तो उन्होंने आँखों से इशारा किया। उठकर घोड़े की लगाम खोल दी और उसके सामने घास का एक गट्ठर डाल दिया। वे नारियल का हुक्का लेकर कहवाख़ाने के अँधेरे हिस्से की ओर चले गए। थोड़ी देर बाद मुल्ला नसरुद्दीन की नाक के नथुनों से गाँजे की मीठी-मीठी गंध टकराई। सिपाही गाँजा पीकर मदहोश हो चुके थे।

मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 10

(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर)

अपने विचारों में डूबा मुल्ला नसुरुद्दीन सोच रहा था- ‘बुखारा क्यों आया? खाना खरीदने के लिए मुझे आधे तंके का सिक्का भी कहाँ से मिलेगा? उस कमबख्त़ टैक्स वसूल करने वाले अफसर ने मेरी सारी रक़म साफ़ कर दी। डाकुओं के बारे में मुझसे बात करना कितनी बड़ी गुस्ताखी थी।’
तभी उसे वह टैक्स अफसर दिखाई दे गया, जो उसकी बर्बादी का कारण था। वह घोड़े पर सवार कहवाखाने की ओर आ रहा था। दो सिपाही उसके अरबी घोड़े की लगाम थामे आगे-आगे चल रहे थे। उसके पास कत्थई-भूरे रंग का बहुत ही खूबसूरत घोड़ा था। उसकी गहरे रंग की आँखों में बहुत ही शानदार चमक थी।.....मुल्ला उसे देखकर फिर अपनी भूख मिटाने की सोचता है)

उसके आगे

मुल्ला ने बेचा टैक्स अफसर का घोड़ा

…..सुबह शहर के फाटक की घटनाओं की याद आते ही वह भयभीत होकर सोचने लगा कि कहीं ये सिपाही उसे पहचान न लें। उसने वहाँ से जाने का इरादा किया, लेकिन भूख से उसका बुरा हाल था। वह मन-ही-मन कहने लगा, ऐ तकदीर लिखने वाले मुल्ला नसुरुद्दीन की मदद करे। किसी तरह आधा तंका दिलवा दे, ताकि वह अपने पेट की आग बुझा सके।

तभी किसी ने उसे पुकारा, ‘अरे तुम हाँ, हाँ तुम ही जो वहाँ बैठे हो।’

मुल्ला नसरुद्दीन ने पलटकर देखा। सड़क पर एक सजी हुई गाड़ी खड़ी थी। बड़ा-सा साफ़ा बाँधे और क़ीमतों खिलअत पहने एक आदमी गाड़ी के पर्दों से बाहर झाँक रहा था।

इससे पहले कि वह अजनबी कुछ कहता, मुल्ला नसरुद्दीन समझ गया कि खुदा ने उसकी दुआ सुन ली है और हमेशा की तरह उसे मुसीबत में देखकर उस पर करम की नजर की है।

अजनबी ने खूबसूरत अरबी घोड़े को देखते हुए उसकी प्रशंसा करते हुए अकड़कर कहा, ‘मुझे यह घोड़ा पसंद है। बोल, क्या यह घोड़ा बिकाऊ है?’मुल्ला नसरुद्दीन ने बात बनाते हुए कहा, ‘दुनिया में कोई भी ऐसा घोड़ा नहीं, जिसे बेचा न जा सके।’

मुल्ला नसररुद्दीन तुरंत भाँप गया था कि यह रईस क्या कहना चाहता है। वह इससे आगे की बात भी समझ चुका था। अब वह खुदा से यही दुआ कर रहा था कि कोई बेवकूफ़ मक्खी टैक्स अफसर की गर्दन या नाक पर कूदकर उसे जगा न दे। सिपाहियों की उसे अधिक चिंता नहीं थी। कहवाख़ाने के अँधेरे हिस्से से आने वाले गहरे अँधेरे से स्पष्ट था कि वे दोनों नशे में धुत पड़े होंगे।

अजनबी रईस ने बुजुर्गों जैसे गंभीर लहजे में कहा, ‘तुम्हें यह पता होना चाहिए कि इस फटी खिलअत को पहनकर ऐसे शानदार घोड़े पर सवार होना तुम्हें शोभा नहीं देता। यह बात तुम्हारे लिए खतरनाक भी साबित हो सकती है, क्योंकि हर कोई यह सोचेगा कि इस भिखमंगे को इतना शानदार घोड़ा कहाँ से मिला? यह भी हो सकता है कि तुम्हें जेल में डाल दिया जाए’।

मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘आप सही फरमा रहे हैं, मेरे आका। सचमुच यह घोड़ा मेरे जैसों के लिए जरूरत से ज्यादा बढ़िया है। इस फटी खिलअत में मैं जिंदगी भर गधे पर ही चढ़ता रहा हूँ। मैं शानदार घोड़े पर सवारी करने की हिम्मत ही नहीं कर सकता।’

‘यह ठीक है कि तुम ग़रीब हो। लेकिन घमंड ने तुम्हें अंधा नहीं बनाया है। नाचीज़ ग़रीब को विनम्रता ही शोभा देता है, क्योंकि खूबसूरत फूल बादाम के शानदार पेड़ों पर ही अच्छे लगते हैं, मैदान की कटीली झाड़ियों पर नहीं। बताओ, क्या तुम्हें यह थैली चाहिए? इसमें चाँदी के पूरे तीन सौ तंके है।’, अजनबी रईस ने कहा।

मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया, ‘चाहिए। जरूर चाहिए। चाँदी के तीन सौ तंके लेने से भला कौन इनकार करेगा? अरे, यह तो ऐसे ही हुआ जैसा किसी को थैली सड़क पर पड़ी मिल गई हो।’

अजनबी ने जानकारों की तरह मुस्काराते हुए कहा, ‘लगता है तुम्हें सड़क पर कोई दूसरी चीज मिली है। मैं यह रक़म उस चीज से बदलने को तैयार हूँ,’ जो तुम्हें सड़क पर मिली है। यह लो तीन सौ तंके।’

उसने थैली मुल्ला नसरुद्दीन को सौंप दी और अपने नौकर को इशारा किया। उसके चेचक के दागों से भरे चेहरे की मुस्कान और आँखों के काइयाँफ को देखते ही मुल्ला नसरुद्दीन समझ गया कि यह नौकर भी उतना ही बड़ा मक्कार है, जितना बड़ा मक्कार इसका मालिक है।

एक ही सड़क पर तीन-तीन मक्कारों का एक साथ होना ठीक नहीं है, उसने मन-ही-मन निश्चय किया। इनमें से कम-से-कम एक जरूर ही फालतू है। समय आ गया है कि यहाँ से नौ-दो ग्यारह हो जाऊँ।

अजनबी की उदारता की प्रशंसा करते हुए मुल्ला नसरुद्दीन झपटकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसनए इतने जोर से एड़ लगाई कि आलसी होते हुए भी गधा ढुलकी मारने लगा।

थोड़ी दूर जाकर मुल्ला नसरुद्दीन ने मुड़कर देखा। नौकर अरबी घोड़े को गाड़ी से बाँध रहा था। वह तेजी से आगे बढ़ गया।…
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