Monday, March 8, 2010

बेवजह दुनिया की सुन ग़मों पर तुम मुस्कुराने निकले

तमाम दर्द के किस्से अश्कों के फ़साने निकले
महफ़िल में जब हम फन अपना आजमाने निकले

ज़ब्त ने रोक रखा था शायद क़सम देकर इन्हें
खूने दिल महफ़िल में जो अश्कों के बहाने निकले

साये शनाश से नज़र आते हैं दीवारों पर जब कभी
मेज़ पर रखी किताबों से तेरे जो ख़त पुराने निकले

लिए जाता है शौक़ महफ़िल में उसी ज़ालिम की मुझे
वक़्त के साथ माजी के किस्से फिर दोहराने निकले (माजी- इतिहास)

ज़र्द सी एक फिजा ता उम्र रही साथ मेरे मैं जहाँ गया
दिल को दर्द और हुआ जब हम दिल बहलाने निकले

दर्द होंठों से बिखरने लगे इधर के उधर शकील
बेवजह दुनिया की सुन ग़मों पर तुम मुस्कुराने निकले

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