Saturday, April 19, 2008

उसी तरह से हर इक जख़्म खुशनुमा देखे

उसी तरह से हर इक जख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे

गुज़र गए हैं बहुत दिन रफ़ाक़त-ए-शब1 में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद-सा देखे

मिरे सुकूत2 से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे

तिरे सिवा भी कई रंग ख़ुश-नज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे

बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे

उसी से पूछे कोई दश्त3 की रफ़ाक़त4 जो
जब आँखें खोले, पहाड़ों का सिलसिला देखे

तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मिरी तरफ़ भी तो इक पल तिरा खुदा देखे
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1.रात्रि का साहचर्य। 2.मौन। 3.जंगल। 4.मैत्री।

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