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(बुखारा की सरहद पर पहुंचते-पहुंचते शहर का दरवाजा बंद हो जाता है, सभी सरहद पर ही रात बिताने की तैयारी करते हैं....)
मुल्ला नसरुद्दीन ने गधे को सड़क के किनारे एक पेड़ से बाँध दिया और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी जमीन पर लेट गया। ऊपर आकाश में सितारों का चमकता हुआ जाल फैला हुआ था। सितारों के हर झुंड को वह पहचानता था।
इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इसी प्रकार आकाश को देखा था। रात के दुआ के पवित्र घंटे उसे संसार के सबसे बड़े दौलतमंद से भी बड़ा दौलतमंद बना देते थे।
धनसंपन्न लोग भले ही सोने के थाल में भोजन करें, लेकिन वे अपनी रातें छत के नीचे बिताने के लिए मजबूर होते हैं और नीले आकाश पर जगमगाते तारों और कुहरे भरी रात के सन्नाटे में संसार के सौंदर्य को देखने से वंचित रह जाते हैं।
इस बीच शहर के उस परकोटे के पीछे, जिस पर तोपें लगी थीं, सराय और कहवाखानों में बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल चुकी थी। कसाईखाने की ओर ले जानेवाली भेड़ों ने दर्दभरी आवाज़ में मिमियाना शुरू कर दिया था।
अनुभवी मुल्ला नसरुद्दीन ने रात-भर आराम करने के लिए हवा के रुख के विपरीत स्थान खोजा था ताकि खाने की ललचाने वाली महक रात में उसे परेशान न करे और वह निश्चिंतता से सोता रहे। उसे बुखारा के रिवाजों की पूरी-पूरी जानकारी थी। इसलिए उसने शहर के फाटक पर टैक्स चुकाने के लिए अपनी रकम का अंतिम भाग बचा रखा था।
बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, लेकिन नींद नहीं आई। नींद न आने का कारण भूख नहीं थी, वे कड़वे विचार थे, जो उसे सता रहे थे।
छोटी-सी काली दाढ़ी वाले इस चालाक और खुशमिज़ाज आदमी को अपने वतन से सबसे अधिक प्यार था। फटा पैबंद लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और फटे जूते पहने वह बुखारा से जितना अधिक दूर होता, उसकी याद उसे उतनी ही अधिक सताया करती थी।
परदेस में उसे बुखारा की उन तंग गलियों की याद आती, जो इतनी पतली थीं कि अराबा (एक प्रकार की गाड़ी भी) दोनों और बनी कच्ची दीवारों को रगड़कर ही निकल पाती थी। उसे ऊँची-ऊँची मीनारों की याद आती, जिसके रोग़नदार ईंटों वाले गुंबदों पर सूरज निकलते और डूबते समय लाल रोशनी ठिठककर रुक जाती थी।
उन पुराने और पवित्र वृक्षों की याद आती, जिनकी डालियों पर सारस के काले और भारी घोंसले झूलते रहते थे। नहरों के किनारे के कहवाखाने, जिन पर चिनार के पेड़ों की छाया थी, नानबाइयों की भट्टी जैसी तपती दुकानों से निकलता हुआ धुआँ और खाने की खुशबू तथा बाजारों के तरह-तरह के शोर-गुल याद आते। अपने वतन की पहाड़ियाँ याद आतीं। झरने याद आते। खेत, चरागाह, गाँव और रेगिस्तान याद आते।
बगदाद या दमिश्क में वह अपने देशवासियों को उनकी पोशाक और कुलाह देखकर पहचान लेता था। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगता था और गला भर आता था। जाने के समय की तुलना में वापस आते समय से अपना देश और अधिक दुखी दिखाई दिया।
पुराने अमीर की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। नए अमीर ने पिछले आठ वर्षों में बुखारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूख तले, गेहूँ और जौ के धूप जले ऊबड़-खाबड़ खेत देखे।
ये खेत घास और कँटीली झाड़ियों के कारण बर्बाद हो रहे थे। बिना पानी के बाग मुरझा रहे थे। किसानों के पास न तो मवेशी थे और न रोटी। सड़कों पर कतार बाँधे फ़कीर उन लोगों से भीख माँगा करते थे, जो खुद भूख थे।
नए अमीर ने हर गाँव में सिपाहियों की टुकड़ियाँ भेज रखी थीं और गाँववालों को हुक्म दे रखा था कि उन सिपाहियों के खाने-पीने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होगी। उसने बहुत-सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गाँववालों से कहा कि वे उन्हें पूरा करें। नया अमीर बहुत ही धार्मिक था। बुखारा के पास ही शेख़ बहाउद्दीन का पवित्र मजार था।
नया अमीर साल में दो बार वहाँ जियारत करने जरूर जाता था। पहले से लगे हुए चार टैक्सों में उसने तीन नए टैक्स और बढ़ा दिए थे। व्यापार पर टैक्स बढ़ा दिया था। का़नूनी टैक्सों में भी वृद्धि कर दी थी। इस तरह उसने ढेर सारी नापाक दौलत जमा कर ली थी। दस्तकारियाँ ख़त्म होती जा रही थीं। व्यापार घटता चला जा रहा था।
मुल्ला नसरुद्दीन की वापसी के समय उसके वतन में बेहद उदासी छाई हुई थी।
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