(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला नसरुद्दीन के ख्याली पुलाव)
… अक्लमंदी से भरे इस उसूल को याद करके कि उन लोगों से दूर रहना चाहिए, जो यह जानते हैं कि तुम्हारा रुपया कहाँ रखा है, मुल्ला नसरुद्दीन उस कहवाख़ाने पर नहीं रुका और फौरन बाजार की ओर बढ़ गया। बीच-बीच में वह मुड़कर यह देखता जाता था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है, क्योंकि जुआरियों और कहवाख़ाने के मालिक के चेहरों पर उन्हें सज्जनता दिखाई नहीं दी थी। .....उसके आगे )
गरीबों का मसीहा बना मुल्ला
मुल्ला नसरुद्दीन खुलकर हँसने लगा। लेकिन उसे यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि उसकी हँसी में कोई भी शामिल नहीं हुआ। वे लोग सिर झुकाए, ग़मगीन चेहरे लिए ख़ामोश बैठे रहे। उनकी औरतें गोद में बच्चे लिए चुपचाप रोती रहीं।
‘जरूर कुछ गड़बड़ है!’ उसने सोचा और उन लोगों की ओर चल दिया। उसने सफ़ेद बालों और सूखे चेहरे वाले एक बूढ़े से पूछा, ‘क्या हुआ है बुजुर्गवार! बताइए ना? मुझे न मुस्कान दिखाई दे रही है और न हँसी ही सुनाई दे रही है। ये औरतें क्यों रो रही हैं? इस गर्मी में आप धूल भरी सड़क पर क्यों बैठे हैं? क्या यह अच्छा न होता कि आप लोग अपने घरों की ठंडी छाँह में आराम करते?’
‘घरों में बैठना उन्हीं के लिए अच्छा है जिनके पास घर हों। बूढे ने दुःख भरी आवाज़ में कहा, ‘ऐ मुसाफि़र, मुझसे मत पूछ। हमारी तकलीफ़े बहुत ज्यादा हैं। तू किसी भी तरह हमारी मदद नहीं कर सकता। रही मेरी बात, सो मैं बूढ़ा हूँ। अल्लाह से दुआ माँग रहा हूँ कि मुझे जल्द उठा ले।’
‘आप ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने झि़ड़कते हुए कहा, ‘मर्दों को इस तरह नहीं सोचना चाहिए। अपनी परेशानी मुझे बताइए। मेरी ग़रीबों जैसी शक्ल पर मत जाइए। कौन जानता है कि मैं आपकी कोई मदद कर सकूँ।’
मेरी कहानी बहुत छोटी है। अभी सिर्फ़ एक घंटे पहले सूद़खोर जाफ़र अमीर दो सिपाहियों के साथ हमारी गली से गुजरा। मुझ पर उसका क़र्ज़ है। रक़म चुकाने की कल आखि़री तारीख़ है। उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया, कल वह मेरी सारी जायदाद, घर, बग़ीचा, ढोर-डंगर, अंगूर की बेलें-सब कुछ बेच देगा। बूढ़े की आँखें आँसुओं से तर हो गईं। उसकी आवाज काँपने लगी।
‘क्या आप पर बहुत कर्ज़ है?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछा।
‘मुझे उसे ढाई सौ तंके देने हैं।’
‘ढाई सौ तंके?’ मुल्ला नसरुद्दीन के मुँह से निकला, ‘ढाई सौ तंके की मामूली सी रक़म के लिए भी भला कोई इन्सान मरना चाहेगा? आप ज्यादा अफ़सोस न करें।’
यह कहकर वह गधे की ओर पलटा और जी़न से थैले खोलने लगा।
‘मेरे बुजुर्ग दोस्त, ये रहे ढाई सौ तंके। उस सूदख़ोर को वापस कर दीजिए और लात मारकर घर से निकाल दीजिए। और फिर ज़िंदगी के बाक़ी दिन चैन से गुज़ारिए।’ चाँदी के सिक्कों को खनखनाहट सुनकर उस पूरे झुंड में जान सी पड़ गई।’ बूढ़ा आँखों में हैरानी, अहसान और आँसू लिए मुल्ला नसरुद्दीन की ओर देखता रह गया।
‘देखा आपने...इस पर भी आप अपनी परेशानी मुझे बता नहीं रहे थे।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने आख़िरी सिक्का गिनते हुए कहा। वह सोचता जा रहा था, ‘कोई हर्ज नहीं। न सही आठ करीगर, सात ही रख लूँगा। ये भी कुल काफ़ी हैं।’
अचानक बूढ़े की बग़ल में बैठी एक औरत मुल्ला नसरुद्दीन के पैरों पर जा गिरी और जो़र-जो़र से रोते हुए उसने अपना बच्चा उसकी ओर बढ़ा दिया।
‘देखिए, यह बीमार है? इसके होंठ सूख रहे हैं। चेहरा जल रहा है, बेचारा बच्चा, नन्हा-सा बच्चा सड़क पर ही दम तोड़ देगा। हाय, मुझे भी घर से निकाल दिया है।’ उसके सुबकियाँ भरते हुए बताया।
मुल्ला नसरुद्दीन ने बच्चे के सूखे खुले-पतले चेहरे को देखा। उसने पतले हाथ देखे, जिनसे रोशनी गुज़र रही थी। फिर उसने आसपास बैठे लोगों के चेहरों को देखा। दुःख की लकीरों और झर्रियों से भरे चेहरों और लगातार रोने के कारण धुँधली पड़ी आँखों को देखकर उसे लगा जैसे किसी ने उसके सीने में छुरा भोंक दिया हो। उसका गला भर आया। क्रोध से उसका चेहरा तमतमा उठा।
‘मैं विधवा हूँ। छह महीने बीते मेरे शौहर चल बसे। उसे सूदखो़र के दो सौ तंके देने थे। का़नून के मुताबिक अब वह क़र्ज मुझे चुकाना है।’ औरत ने कहा।
‘लो, ये दो सौ तंके और घर जाओ। बच्चे के सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखो। और सुनो ये पचास तंके और लेती जाओ। किसी हकीम को बुलाकर इसे दवा दिलवाओ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा और सोचने लगा, ‘छह कारीगरों से भी मैं अच्छी तरह काम चला लूँगा।’
तभी एक भारी-भरकम संगतराश उसके पैरों में आ गिरा। अगले ही दिन उसका पूरा परिवार गुलामों की तरह बेचा जाने वाला था। उसे जाफ़र को चार सौ तंके देने थे।
‘चलो पाँच कारीगर ही सही।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उन्हें काफ़ी रक़म दी। उसे कोई हिचक नहीं हुई। उसके थैले में अब कुल पाँच सौ तंके बचे थे। तभी उसकी नजर एक आदमी पर पड़ी, जो अकेला एक और बैठा था। उसने मदद नहीं माँगी थी। लेकिन उसके चेहरे पर परेशानी और दुःख स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।
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