Thursday, April 24, 2008

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

लोग हर मोड़ पे रुक रुक के संभलते क्यों हैं.
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं.

मैं न जुगनू हूँ दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रौशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यूँ हैं .

नींद से मेरा ताल्लुक ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं

मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं.

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ ,

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म -ओ -रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिए आ.

कुछ तो मेरे पिंदार -ए -मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ.

एक उम्र से हूँ लाज्ज़त -ए -गिरिया से भी महरूम
ऐ राहत -ए -जान मुझ को रुलाने के लिए आ .

अब तक दिल -ए -खुश फहम को तुझ से हैं उम्मीद
ये आखिरी शम्मा भी बुझाने के लिए आ

जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ.

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