Wednesday, November 10, 2010

एक दिन का मेहमान

एक दिन का मेहमान

उसने अपना सूटकेस दरवाजे के आगे रख दिया। घंटी का बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगा। मकान चुप था। कोई हलचल नहीं - एक क्षण के लिये भ्रम हुआ कि घर में कोई नहीं है और वह खाली मकान के आगे खडा है। उसने रुमाल निकाल कर पसीना पौंछा, अपना एयर बैग सूटकेस पर रख दिया। दोबारा बटन दबाया और दरवाजे से कान सटा कर सुनने लगा, बरामदे के पीछे कोई खुली खिडक़ी हवा में हिचकोले खा रही थी।

वह पीछे हटकर ऊपर देखने लगा। वह दुमंजिला मकान था - लेन के अन्य मकानों की तरह - काली छत, अंग्रेजी वी की शक्ल में दोनों तरफ से ढलुआं और बीच में सफेद पत्थर की दीवार, जिसके माथे पर मकान का नम्बर एक काली बिन्दी सा टिमक रहा था। ऊपर की खिडक़ियां बन्द थीं और पर्दे गिरे थे। कहाँ जा सकते हैं इस वक्त?

वह मकान के पिछवाडे ग़या - वही लॉन, फेन्स और झाडियां थीं जो उसने दो साल पहले देखी थीं। बीच में विलो अपनी टहनियां झुकाये एक काले बूढे रीछ की तरह ऊंघ रहा था। लेकिन गैराज खुला और खाली पडा था; वे कहीं कार लेकर गये थे, संभव है उन्होंने सारी सुबह उसकी प्रतीक्षा की हो और अब किसी काम से बाहर चले गये हों। लेकिन दरवाजे पर उसके लिये एक चिट तो छोड ही सकते थे!

वह दोबारा सामने के दरवाजे पर लौट आया। अगस्त की चुनचुनाती धूप उसकी आंखों पर पड रही थी। सारा शरीर चू रहा था। वह बरामदे में ही अपने सूटकेस पर बैठ गया। अचानक उसे लगा, सडक़ के पार मकानों की खिडक़ियों से कुछ चेहरे बाहर झांक रहे हैं, उसे देख रहे हैं। उसने सुन था, अंग्रेज लोग दूसरों की निजी चिन्ताओं में दखल नहीं देते, लेकिन वह मकान के बाहर बरामदे में बैठा था, जहां प्राइवेसी का कोई मतलब नहीं था; इसलिये वे नि:संकोच, नंगी उनमुक्तता से उसे घूर रहे थे। लेकिन शायद उसके कौतुहल का एक दूसरा कारम था; उस छोटे, अंग्रेजी कस्बाती शहर में लगभग सब एक दूसरे को पहचानते थे और वह न केवल अपनी शक्ल सूरत में बल्कि झूलते झालते हिन्दुस्तानी सूट में काफी अद्भुत प्राणी दिखाई दे रहा होगा। उसकी तुडी मुडी वेशभूषा और गर्द और पसीने में लथपथ चेहरे से कोई यह अनुमान भी नहीं लगा सकता कि अभी तीन दिन पहले फ्रेंकफर्ट की कानफ्रेन्स में उसने पेपर पढा था। मैं एक लुटा - पिटा एशियन इमीग्रेन्ट दिखाई दे रहा होऊंगा।' उसने सोचा और अचानक खडा हो गया - मानो खडा होकर प्रतीक्षा करना ज्यादा आसान हो। इस बार बिना सोचे समझे उसने दरवाजा जोर से खटखटाया और तत्काल हकबका कर पीछे हट गया - हाथ लगते ही दरवाजा खट - से खुल गया। जीने पर पैरों की आवाज सुनाई दी - और दूसरे क्षण वह चौखट पर उसके सामने खडी थी।

वह भागते हुए सीढियां नीचे उतर कर आई थी, और उससे चिपट गई थी। इससे पहले वह पूछता, क्या तुम भीतर थीं? उसने अपने धूल भरे लस्तम पस्तम हाथों से उसके दुबले कन्धों को पकड लिया और लडक़ी का सिर नीचे झुक आया और उसने अपना मुंह उसके बालों पर रख दिया।

पडोसियों ने एक एक करके अपनी खिडक़ियां बन्द कर दीं।
लडक़ी ने धीरे - से उसे अपने से अलग कर दिया, '' बाहर कब से खडे थे? ''
'' पिछले दो साल से।''
'' वाह! '' लडक़ी हंसने लगी। उसे अपने बाप की ऐसी ही बातें बौडम जान पडती थीं।
'' मैं ने दो बार घंटी बजाई - तुम लोग कहां थे? ''
'' घंटी खराब है, इसलिये मैं ने दरवाजा खुला छोड दिया था।''
'' तुम्हें मुझे फोन पर बताना चाहिये था - मैं पिछले एक घंटे से आगे पीछे दौड रहा था।
'' मैं तुम्हें बताने वाली थी, लेकिन बीच में लाइन कट गई। तुमने और पैसे क्यों नहीं डाले?''
'' मेरे पास सिर्फ दस पैसे थे वह औरत काफी चुडैल थी!''
'' कौन औरत?'' लडक़ी ने उसका बैग उठाया।
'' वही जिसने हमें बीच में काट दिया।''

आदमी अपना सूटकेस बीच ड्राइंगरूम में घसीट लाया। लडक़ी उत्सुकता से बैग के भीतर झांक रही थी- सिगरेट के पैकेट, स्कॉच की लम्बी बोतल, चॉकलेट के बण्डल - वे सारी चीजें जो उसने इतनी हडबडी में फ्रेंकफर्ट के एयरपोर्ट पर डयूटी फ्री शॉप से खरीदी थीं, अब बैग से ऊपर झांक रही थीं।

'' तुमने अपने बाल कटवा लिये?'' आदमी ने पहली बार चैन से लडक़ी का चेहरा देखा।
'' हाँसिर्फ छुट्टियों के लिये। कैसे लगते हैं?''
'' अगर तुम मेरी बेटी नहीं होतीं, तो मैं समझता कोई लफंगा घर में घुस आया है।''
'' ओह पापा! '' लडक़ी ने हंसते हुए बैग से चॉकलेट निकाली, रैपर खोला, फिर उसके आगे बढा दी।
'' स्विस चॉकलेट, '' उसने उसे हवा में डुलाते हुए कहा।
'' मेरे लिये एक गिलास पानी ला सकती हो?''
'' ठहरो, मैं चाय बनाती हूँ।''
'' चाय बाद में '' वह अपने कोट की अन्दरूनी जेब में कुछ टटोलने लगा- नोटबुक, वॉलेट, पासपोर्ट - सब चीजें बाहर निकल आईं अंत में उसे टेबलेट्स की डिब्बी मिली, जिसे वह ढूंढ रहा था।
लडक़ी पानी का गिलास लेकर आई तो उससे पूछा, '' कैसी दवाई है?।''
'' जर्मन,'' उसने कहा, ''बहुत असर करती है।'' उसने टेबलेट पानी के साथ निगल ली, फिर सोफे पर बैठ गया। सबकुछ वैसा ही था, जैसा उसने सोचा था। वही कमरा, शीशे का दरवाजा, खुले हुए परदों के बीच वही चौकोर हरे रुमाल जैसा लॉन, टी वी के स्क्रीन पर उडती पक्षियों की छाया, जो बाहर उडते थे और भीतर होने का भ्रम देते थे।

वह किचन की देहरी पर आया। गैस के चूल्हों के पीछे लडक़ी की पीठ दिखाई दे रही थी। कॉर्डराय की काली जीन्स और सफेद कमीज, जिसकी मुडी स्लीव्स बांहों की कुहनियों पर झूल रही थीं। वह बहुत हल्की छुई मुई सी दिखाई दे रही थी।

'' मामा कहाँ है? '' उसने पूछा। शायद उसकी आवाज ईतनी धीमी थी कि लडक़ी ने उसे नहीं सुन, किन्तु उसे लगा, जैसे लडक़ी की गर्दन कुछ ऊपर उठी थी। '' मामा क्या ऊपर हैं? '' उसने दोबारा कहा और लडक़ी वैसे ही निश्चल खडी रही और तब उसे लगा, उसने पहली बार भी प्रश्न को सुन लिया था। '' क्या बाहर गई हैं? '' उसने पूछा। लडक़ी ने बहुत धीरे, धुंधले ढंग से सिर हिलाया, जिसका मतलब कुछ भी हो सकता था।
'' तुम पापा, कुछ मेरी मदद करोगे?''
वह लपक कर किचन में चला गया, '' बताओ, क्या काम है?''
'' तुम चाय की केतली लेकर भीतर जाओ, मैं अभी आती हूँ।''
'' बस!'' उसने निराश स्वर में कहा।
'' अच्छा, प्याले और प्लेटें भी लेते जाओ।''

वह सब चीजें लेकर भीतर कमरे में चला आया। वह दोबारा किचन में जाना चाहता था, लेकिन लडक़ी के डर से वह वहीं सोफा पर बैठा रहा। किचन से कुछ तलने की खुश्बू आ रही थी। लडक़ी उसके लिये कुछ बना रही थी - और वह उसकी कोई भी मदद नहीं कर पा रहा था। एक बार इच्छा हुई, किचन में जाकर मना कर आये कि वह कुछ नहीं खायेगा। किन्तु दूसरे क्षण भूख ने उसे पकड लिया। सुबह से उसने कुछ नहीं खाया था। यूस्टन स्टेशन के कैफेटेरिया में इतनी लम्बी क्यू लगी थी कि वह टिकट लेकर सीधा ट्रेन में घुस गया था। सोचा था वह डायनिंग कार में कुछ पेट में डाल लेगा, किन्तु वह दुपहर से पहले नहीं खुलती थी। सच पूछा जाय तो उसने अंतिम खाना कल शाम फ्रेंकफर्ट के एयरपोर्ट में खाया था और जब रात को लन्दन पहुंचा था तो, अपने होटल के बार में पीता रहा था। तीसरे गिलास के बाद उसने जेब से नोटबुक निकाली, नम्बर देखा और बार के टेलीफोन बूथ में जाकर फोन मिलाया था पहली बार में पता नहीं चला, उसकी पत्नी की आवाज है या बच्ची की। उसकी पत्नी ने फोन उठाया होगा, क्योंकि कुछ देर तक फोन का सन्नाटा उसके कान में झनझनाता रहा, और वह फोन नीचे रखना चाहता था, किन्तु उसी समय उसे बच्ची का स्वर सुनाई दिया; वह आधी नींद में थी। उसे कुछ देर तक पता ही नहीं चला कि वह इंडिया से बोल रहा है या फ्रेंकफर्ट से या लन्दन सेवह उसे अपनी स्थिति समझा ही रहा था कि तीन मिनट खत्म हो गये और उसके पास इतनी चेंज भी नहीं थी कि वह लाइन को कटने से बचा सके, तसल्ली सिर्फ इतनी थी कि वह नींद, घबराहट और नशे के बीच यह बताने में सफल हो गया कि वह कल उनके शहर पहुंच रहा है कल यानि आज।

वे अच्छे क्षण थे। बाहर इंग्लैंड की पीली और मुलायम धूप फैली थी। वह घर के भीतर था। उसके भीतर गरमाई की लहरें उठने लगी थीं। हवाई अड्डों की भाग दौड, होटलों की हील हुज्जत, ट्रेन टैक्सियों की हडबडाहट - वह सबसे परे हो गया था। वह घर के भीतर था; उसका अपना घर न सही, फिर भी एक घर - कुर्सियाँ, परदे, सोफा टी वी। वह अरसे से इन चीजों के बीच रहा था और हर चीज क़े इतिहास को जानता था। हर दो तीन साल बाद जब वह आता था, तो सोचता था - बच्ची कितनी बडी हो गयी होगी और पत्नी? वह कितनी बदल गई होगी! लेकिन ये चीजें उस दिन से एक जगह ठहरीं थीं, जिस दिन उसने घर छोडा था; वे उसके साथ चली जाती थीं, उसके साथ लौट आती थीं।

'' पापा तुमने चाय नहीं डाली?'' वह किचन से दो प्लेटें लेकर आई, एक में टोस्ट और मक्खन थे, दूसरे में तले हुए सॉसेज।
'' मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा था।''
'' चाय डालो, नहीं तो बिलकुल ठण्डी हो जायेगी।''
वह उसके साथ सोफा पर बैठ गई।'' टी वी खोल दूं देखोगे?''
'' अभी नहींसुनो तुम्हें मेरे स्टैम्प्स मिल गये थे?''
'' हाँ पापाथैंक्स!'' वह टोस्ट्स पर मक्खन लगा रही थी।
'' लेकिन तुमने चिट्ठी एक भी नहीं लिखी!''
'' मैं ने एक लिखी थी, लेकिन जब तुम्हारा टेलीग्राम आया, तो मैं ने सोचा अब तुम आ रहे हो तो चिट्ठी भेजने की क्या जरूरत?''
''तुम सचमुच गागा हो।''
लडक़ी ने उसकी तरफ देखा और हंसने लगी। यह उसका चिढाऊ नाम था, जो बाप ने बरसों पहले उसे दिया था, जब वह उसके साथ घर में रहता था, वह बहुत छोटी थी और उसने हिन्दुस्तान का नाम भी नहीं सुना था।

बच्ची की हंसी का फायदा उठाते हुए वह उसके पास झुक आया जैसे कोई चंचल चिडिया हो, जिसे केवल सुरक्षा के भ्रामक क्षण में ही पकडा जा सकता है, '' ममी कब लौटेंगी?''
प्रश्न इतना अचानक था कि लडक़ी झूठ नहीं बोल सकी, '' वह ऊपर कमरे में हैं।''
''ऊपर? लेकिन तुमने तो कहा था।''
किरच किरच किरच वह चाकू से जले हुए टोस्ट को कुरेद रही थी मगर उसके साथ साथ वह उसके प्रश्न को भी काट डालना चाहती हो। हँसी अब भी थी, लेकिन अब वह बर्फ में जमे कीडे क़ी तरह उसके होंठों पर चिपकी थी।
'' क्या उन्हें मालूम है कि मैं यहाँ हूँ?'' लडक़ी ने टोस्ट पर मक्खन लगाया, फिर जैम - फिर उसके आगे प्लेट रख दी।
'' हाँ मालूम है।'' उसने कहा।
'' क्या वह नीचे आकर हमारे साथ चाय नहीं पिए/गी?''
लडक़ी दूसरी प्लेट पर सॉसेज सजाने लगी - फिर उसे कुछ याद आया वह रसोई में गई और अपने साथ मस्टर्ड और केचप की बोतलें ले आई।
'' मैं ऊपर जाकर पूछता हूँ।'' उसने लडक़ी की तरफ देखा, जैसे उससे अपनी कार्यवाही का समर्थन पाना चाहता हो।जब वह कुछ नहीं बोली, तो वह जीने की तरफ जाने लगा।
'' प्लीज पापा।''
उसके पांव ठिठक गये।
'' आप फिर उनसे लडना चाहते हैं? '' लडक़ी ने कुछ गुस्से में उसे देखा।
'' लडना! '' वह शर्म से भीगा हुआ हँसने लगा, '' मैं यहाँ दो हजार मील उनसे लडने आया हूँ? ''
'' फिर आप मेरे पास बैठिये।'' लडक़ी का स्वर भरा हुआ था। उसकी भूख उड ग़यी थी, लेकिन लडक़ी की आंखें उस पर थीं। वह उसे देख रही थी, और कुछ सोच रही थी, कभी कभी टोस्ट का एक टुकडा मुंह में डाल लेती और फिर चाय पीने लगती। फिर उसकी ओर देखती चुपचाप मुस्कुराने लगती, उसे दिलासा सी देती, सब कुछ ठीक है, तुम्हारी जिम्मेदारी मुझ पर है और जब तक मैं हूँ डरने की कोई बात नहीं है।

डर नहीं था। टेबलेट का असर रहा होगा या यात्रा की थकान - वह कुछ देर के लिये लडक़ी की निगाहों से हटना चाहता था। वह अपने को हटाना चाहता था। '' मैं अभी आता हूँ।'' उसने कहा। लडक़ी ने सशंकित आंखों से उसे देखा, '' क्या बाथरूम जायेंगे? '' वह उसके साथ साथ गुसलखाने तक चली आई और जब उसने दरवाजा बन्द कर लिया, तो भी उसे लगता रहा, वह दरवाजे के पीछे खडी है।

उसने बेसिनी में अपना मुंह डाल लिया और नलका खोल दिया। पानी झर झर उसके चेहरे पर बहने लगा - और वह सिसकने - सा लगा, आधे बने हुए शब्द उसकी छाती के खोखल से बाहर निकलने लगे, जैसे भीतर जमी काई उलट रहा हो, उलटी, जो सीधी दिल से बाहर आती है - वह टेबलेट जो कुछ देर पहले खाई थी, अब पीले चूरे सी बेसिनी के संगमरमर पर तैर रही थी। फिर उसने नल बन्द कर दिया और रूमाल निकाल कर मुंह पौंछा। बाथरूम की खूंटी पर स्त्री के मैले कपडे टंगे थे - प्लास्टिक की एक चौडी बाल्टी में अंडरवियर और ब्रेसियर साबुन में डूबे थेखिडक़ी खुली थी और बाग का पिछवाडा धूप में चमक रहा था। कहीं किसी दूसरे बाग से घास काटने की उनींदी सी घुर्र घुर्र पास आ रही थी।

वह जल्दी से बाथरूम का दरवाजा बन्द कर कमरे में चला आया। सारे घर में सन्नाटा था। वह किचन में आया, तो लडक़ी दिखाई नहीं दी। वह ड्राईंग रूम में लौटा तो वह भी खाली पडा था। उसे सन्देह हुआ कि वह ऊपर वाले कमरे में अपनी मां के पास बैठी है। एक अजीब आतंक ने उसे पकड लिया। घर जितना शांत था, उतना ही खतरे से अटा जान पडा। वह कोने में गया, जहाँ उसका सूटकेस रखा था, वह जल्दी जल्दी उसे खोलने लगा। उसने अपने कान्फ्रेस के के नोट्स और कागज अलग किये, उनके नीचे से वह सारा सामान निकालने लगा, जो वह दिल्ली से अपने साथ लाया था - एम्पोरियम का राजस्थानी लहंगा( लडक़ी के लिये), ताम्बे और पीतल के ट्रिंकेट्स, जो उसने जनपथ पर तिब्बती लामा हिप्पियों से खरीदे थे, पश्मीने की कश्मीरी शॉल( बच्ची की मां के लिये), एक लाल गुजराती जरीदार स्लीपर जिसे बच्ची और मां दोनों पहन सकते थे, हैण्डलूम के बेडकवर, हिन्दुस्तानी टिकटों का अल्बम - और एक बहुत बडी सचित्र किताब, बनारस द एटर्नल सिटी।

फर्श पर धीरे धीरे एक छोटा सा हिन्दुस्तान जमा हो गया था जिसे वह हर बार यूरोप आते समय अपने साथ ढो लाता था।
सहसा उसके हाथ ठिठक गये। वह कुछ देर तक चीजों के ढेर को देखता रहा। कमरे के फर्श पर बिखरी हुई वे बिलकुल अनाथ और दयनीय दिखाई दे रही थीं। एक पागल इच्छा हुई कि वह उन्हें कमरे में जैसे का तैसा छोडक़र भाग खडा हो। किसी को पता भी नहीं चलेगा, वह कहाँ चला गया? लडक़ी थोडा बहुत जरूर हैरान होगी, किन्तु बरसों वह उससे ऐसे ही अचानक मिलती रही थी और बिना कारण बिछडती रही थी, यू आर कमिंग एण्ड गोईंग मैन, वह उससे कहा करती थी, पहले विषाद में और बाद में कुछ कुछ हंसी में उसे कमरे में न बैठा देखकर लडक़ी को ज्यादा सदमा नहीं पहुंचेगा। वह ऊपर जायेगी और मां से कहेगी, '' अब तुम नीचे आ सकती हो; वह चले गये।''
फिर वे दोनों एक - साथ नीचे आयेंगी, और उन्हें राहत मिलेगी कि अब उन दोनों के अलावा घर में कोई नहीं है।
'' पापा।''
वह चौंक गया, जैसे रंगे हाथों पकडा गया हो। खिसियानी - सी मुस्कुराहट में लडक़ी को देखा- वह कमरे की चौखट पर खडी थी और खुले हुए सूटकेस को ऐसे देख रही थी, जैसे वह कोई जादू की पिटारी हो, जिसने अपने पेट से अचानक रंग बिरंगी चीजों को उगल दिया हो, लेकिन उसकी आंखों में कोई खुशी नहीं थी, एक शर्म - सी थी, जब बच्चे अपने बडों को कोई ट्रिक करते हुए देखते हैं जिसका भेद उन्हें पहले से मालूम होता है; वे अपने संकोच को छिपाने के लिये कुछ ज्यादा ही उत्सुक हो जाते हैं।
'' इतनी चीजें?'' वह आदमी के सामने की कुर्सी पर बैठ गई, '' कैसे लाने दी? सुना है आजकल कस्टमवाले बहुत तंग करते हैं।''
'' नहीं, इस बार उन्होंने कुछ नहीं किया, '' आदमी ने उत्साह में आकर कहा, '' शायद इसलिये कि मैं सीधे फ्रेंकफर्ट से आ रहा था। उन्हें सिर्फ एक चीज पर शक हुआ था।'' उसने मुस्कुराते हुए लडक़ी की ओर देखा।
'' किस चीज पर?'' लडक़ी ने इस बार सच्ची उत्सुकता से पूछा।
उसने अपने बैग से दालबीजी का डिब्बा निकाला और उसे खोलकर मेज पर रख दिया। लडक़ी ने झिझकते हुए दो चार दाने उठाये और उन्हें सूंघने लगी, '' क्या है यह?'' उसने जिज्ञासा से आदमी को देखा।
'' वे भी इसी तरह सूंघ रहे थे, '' वह हंसने लगा, '' उन्हें डर था कि कहीं इसमें चरस - गांजा तो नहीं है।''
'' हैश? '' लडक़ी की आंखें फैल गईं, '' क्या इसमें सचमुच हैश मिली है? ''
'' खाकर देखो।''
लडक़ी ने कुछ दालमोठ मुंह में डाल ली और उन्हें चबाने लगी, फिर हलाट - सी होकर सी सी करने लगी।
'' मिर्चें होंगी - थूक दो।'' आदमी ने कुछ घबरा कर कहा।
'' किन्तु लडक़ी ने उन्हें निगल लिया और छलछलाई आंखों से बाप को देखने लगी।
'' तुम भी पागल हो सब निगल बैठीं।'' आदमी ने जल्दी से उसे पानी का गिलास दिया, जो वह उसके लिये लाई थी।
'' मुझे पसन्द है।'' लडक़ी ने जल्दी से पानी पिया और अपनी कमीज क़ी मुडी हुई बांहों से आंखें पौंछने लगी। फिर मुस्कुराते हुए आदमी की ओर देखा, आई लव इट। वह कई बातें सिर्फ आदमी का मन रखने के लिये करती थी। उनके बीच बहुत कम मुहलत रहती थी और वह उसके निकट पहुंचने के लिये ऐसे शार्टकट लेती थी, जिसे दूसरे बच्चे महीनों में पार करते हैं।
'' क्या उन्होंने भी इसे चखकर देखा था?'' लडक़ी ने पूछा।
'' नहीं उनमें इतनी हिम्मत कहाँ थी। उन्होंने सिर्फ मेरा सूटकेस खोला, मेरे कागजों को उलटा पुलटा और जब उन्हें पता चला कि मैं कॉन्फ्रेंस से आ रहा हूँ तो उन्होंने कहा, '' मिस्टर यू मे गो।''
'' क्या कहा उन्होंने?'' लडक़ी हंस रही थी।
'' उन्होंने कहा, मिस्टर यू मे गो लाइक एन इण्डियन क्रो!''आदमी ने भेदभरी निगाहों से उसे देखा। '' क्या है यह? ''
लडक़ी हंसती रही - जब वह बहुत छोटी थी और आदमी के साथ पार्क में घूमने जाती थी, तो वे यह सिरफिरा खेल खेलते थे। वह पेड क़ी ओर देखकर पूछता था, ओ डियर, इज देयर एनीथिंग टू सी? और लडक़ी चारों तरफ देखकर कहती थी, यस डियर, देयर इज ए क्रो ओवर द ट्री। आदमी उसे विस्मय से देखता। क्या है यह? और वह विजयोल्लास में कहती - पोयम!
ए पोयम! बढती हुई उम्र में छूटते बचपन की छाया सरक आई - पार्क की हवा, पेड, हंसी। वह बाप की उंगली पकड क़र सहसा एक ऐसी जगह गई, जिसे वह मुद्दत पहले छोड चुकी थी, जो कभी कभार रात को सोते हुए सपनो में दिखाई दे जाती थी

'' मैं तुम्हारो लिये कुछ इण्डियन सिक्के लाया था तुमने पिछली बार कहा था न!''
'' दिखाओ, कहाँ हैं?'' लडक़ी ने कुछ जरूरत से ज्यादा ही ललकते हुए कहा।
आदमी ने सलमे - सितारों से जडी एक लाल थैली उठाई - जिसे हिप्पी लोग अपने पासपोर्ट के लिये खरीदते थे। लडक़ी ने उसे हाथ से छनि लिया और हवा में झुलाने लगी। भीतर रखी चवन्नियां, अठन्नियां चहचहाने लगीं। फिर उसने थैली का मुंह खोला और सारे पैसों को मेज पर बिखेर दिया।
'' हिन्दुस्तान में क्या सब लोगों के पास ऐसे ही सिक्के होते हैं?''
वह हंसने लगा, '' तो क्या सबके लिये अलग अलग बनेंगे?'' उसने कहा।
'' लेकिन गरीब लोग?'' उसने आदमी को देखा, '' मैं ने एक रात टी वी में उन्हें देखा था।'' वह सिक्कों को भूल गई और कुछ असमंजस में फर्श पर बिखरी चीजों को देखने लगी। तब पहली बार आदमी को लगा - वह लडक़ी जो उसके सामने बैठी है, कोई दूसरी है। पहचान का फ्रेम वही है जो उसने दो साल पहले देखा था लेकिन बीच की तसवीर बदल गई है। किन्तु वह बदली नहीं थी, वह सिर्फ कहीं और चली गई थी। वे मां बाप जो बच्चों के साथ हमेशा नहीं रहते, उन गोपनीय मंजिलों के बारे में कुछ नहीं जानते जो उनके अभाव की नींव पर ऊपर ही ऊपर बनती रहती हैं, लडक़ी अपने बचपन के बेसमेन्ट में जाकर ही पिता से मिल पाती थी लेकिन कभी कभी उसे छोड क़र दूसरे कमरों में चली जाती थी, जिसके बारे में आदमी को कुछ भी नहीं मालूम था।
'' पापा।'' लडक़ी ने उसकी ओर देखकर कहा, '' क्या मैं इन चीज़ों को समेटकर रख दूं?''
'' क्यों इतनी जल्दी क्या है? ''
'' नहीं, जल्दी नहीं लेकिन मामा आकर देखेंगी तो!'' उसके स्वर में हल्की सी घबराहट थी, जैसे वह हवा में किसी अदृश्य खतरे को सूंघ रही हो।
'' आयेंगी तो क्या?'' आदमी ने कुछ विस्मय से लडक़ी को देखा।
'' पापा धीरे बोलो!'' लडक़ी ने ऊपर कमरे की तरफ देखा, ऊपर सन्नाटा था, जैसे घर एक देह हो, दो में बंटी हुई, जिसका एक हिस्सा सुन्न और निस्पन्द पडा हो, दूसरे में वे दोनों बैठे थे। और तब उसे भ्रम हुआ कि लडक़ी कठपुतली का नाटक कर रही है। ऊपर के धागे से बंधी हुई, जैसे वह खिंचता है, वैसे वह हिलती है लेकिन वह न धागे को देख सकता है न उसे जो उसे हिलाता है

वह उठ खडा हुआ। लडक़ी ने आतंकित होकर उसे देखा, '' आप कहाँ जा रहे हैं?''
'' वह नीचे नहीं आयेंगी?'' उसने पूछा।
'' उन्हें मालूम है आप यहाँ हैं।'' लडक़ी ने कुछ खीज कर कहा।
'' इसीलिये वह नहीं आना चाहतीं?''
'' नहीं ।'' लडक़ी ने कहा, '' इसीलिये वे कभी भी आ सकती हैं।''
कैसे पागल हैं। इतनी छोटी सी बात नहीं समझ सकते। '' आप बैठिये, मैं अभी इन सब चीजों को समेट लेती हूँ।''
वह फर्श पर उकडूं बैठ गई; बडी सफाई से हर चीज उठा कर कोने में रखने लगी। मखमल की जूती, पश्मीने की शॉल, गुजरात एम्पोरियम का बेडकवर। उसकी पीठ पिता की ओर थी, किन्तु वह उसके हाथ देख सकता था, पतले सांवले, बिलकुल अपनी मां की तरह, वैसे ही निस्संग और ठंडे, जो उसकी लाई हुई चीजों को आत्मीयता से पकडते नहीं थे, सिर्फ अनमने भाव से अलग ठेल देते थे। वे एक ऐसी बच्ची के हाथ थे, जिसने सिर्फ मां के सीमित और सुरक्षित स्नेह को छुना सीखा था, मर्द के उत्सुक और पीडित उन्माद को नहीं जो पिता के सेक्स की काली कन्दरा से उमडता हुआ बाहर आता है।

अचानक लडक़ी के हाथ ठिठक गये। उसे लगा कोई दरवाजे की घण्टी बजा रहा है लेकिन दूसरे ही क्षण फोन का ध्यान आया जो जीने के नीचे कोटर में था और जंजीर से बंधे पिल्ले की तरह जोर जोर से चीख रहा था। लडक़ी ने चीजें वैसे ही छोड दीं और लपकते हुए सीढियों के पास गई, फोन उठाया, एक क्षण तक कुछ सुनाई नहीं दिया। फिर वह चिल्लाई - '' मम्मी आपका फोन।''
बच्ची बेनिस्टर के सहारे खडी थी, हाथ में फोन झुलाती हुई। ऊपर का दरवाजा खुला और जीना हिलने लगा। कोई नीचे आ रहा था, फिर एक सिर लडक़ी के चेहरे पर झुका, गुंथा हुआ जूडा और फोन के बीच एक पूरा चेहरा उभर आया
'' किसका है?'' औरत ने अपने लटकते हुए जूडे क़ो पीछे धकेल दिया और लडक़ी के हाथ से फोन खींच लिया। आदमी कुर्सी से उठालडक़ी ने उसकी ओर देखा। '' हलो'' औरत ने कहा। '' हलो, हलो, औरत की आवाज ऊपर उठी और तब उसे पता चला कि यह उस स्त्री की आवाज है, जो उसकी पत्नी थी; वह उसे बरसों बाद भी सैकडों आवाजों की भीड में पहचान सकता था ऊंची पिच पर हल्के से कांपती हुई, हमेशा से सख्त, आहत, परेशान, उसकी देह की एकमात्र चीज ज़ो देह से परे आदमी की आत्मा पर खून की खरोंच खींच जाती थी। वह जैसे उठा था, वैसे ही बैठ गया।
लडक़ी मुस्कुरा रही थी।
वह हैंगर के आईने से आदमी का चेहरा देख रही थी - और वह चेहरा कुछ वैसा ही बेडौल दिखाई दे रहा था जैसे उम्र के आईने से औरत की आवाज - उल्टा, टेढा, पहेली सा रहस्यमय! वे तीनों व्यक्ति अनजाने में चार में बंट गये थे- लडक़ी, उसकी मां, वह और उसकी पत्नी घर जब गृहस्थी में बदलता है तो, अपने आप फैलता जाता है
'' तुम जेनी से बात करोगी?'' औरत ने लडक़ी से कहा और बच्ची जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी। वह उछल कर ऊपरी सीढी पर आ गई और मां से टेलीफोन ले लिया, '' हलो जेनी, इट इज मी!''
वह दो सीढियां नीचे उतरी; तब आदमी उसे पूरा का पूरा देख सकता था।
'' बैठो'' आदमी कुर्सी से उठ खडा हुआ। उसके स्वर में एक बेबस सा अनुनय था, मानो उसे डर हो कि कहीं उसे देख कर वह उल्टे पांव न लौट जाये।

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