Monday, November 2, 2009

इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया

इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया

पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया
इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया

अब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट गया

हम मुन्तज़िर थे शाम से सूरज के, दोस्तो!
लेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया

गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर में
जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया

किससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें
फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया

सैलाब-ए-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर
वो शख़्स फिर अन्धेरे में मुझसे लिपट गया

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