Monday, March 24, 2008

ऐ समन्दर कभी उतर मुझमें

धड़कने डूब गईं सब्र का सन्नाटा है
ज़िन्दगानी थी जहाँ कब्र का सन्नाटा है
शोर बरपा है सुनाई नहीं देता कुछ भी
शोर भी गोया मेरे अस्र का सन्नाटा है
घुंघरुओं की वो सदाऐं तो कहीं डूब गईं
दिल में एक उजड़े हुए क़स्र का सन्नाटा है
लोग दुबके हुए बैठे हैं घरों में ‘‘शाहिद’’
आने वाले यह किसी हश्र का सन्नाटा है।

लेकिन शाहिद मीर का सबसे बड़ा वस्फ़ बयान की नुदरत है
यह रमज़िया इज़हार, इसतआरों, पैकरों और अलामतों में नज़र आता है :
‘चिलमन सी मोतियों की अन्धेरों पे डाल कर
गुज़री है रात ओस सवेरों पे डाल कर’
‘आख़िर तमाम सांप बिलों में समा गए
बद हालियों का ज़हर सपेरों पे डाल कर’’
‘उस अब्र ने लिखा लिया दरिया दिलों में नाम
क़तरे सुलगती रेत के ढैरों पे डाल कर’

या

‘उजले मोती हमने मांगे थे किसी से थाल भर
और उसने दे दिए आंसू हमें रुमाल भर’

‘बदकारियों के शहर में अपनी अना का हाल
एक बदहवाश शेर मचानों के दरमियां’

‘रोशनी सी कर गई कुरबत किसी के जिस्म की
रूह में खुलता हुआ मशरिक़ का दरवाज़ा लगा’
‘‘एक पल ठहरा न उड़ते बादलों का क़ाफ़िला
तिशना लब जंगल खड़े थे हाथ फैलाए हुए’’
‘जब से मौसम ने रंग बदला है
जी उठा है कोई शजर मुझमें’
‘ज़ख़्मे-जां खिल के आफ़ताब हुआ
दूर तक हो गई सहर मुझ में’

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