Wednesday, June 4, 2008

उर्दू शायरी

न कत्ल करते हैं, न जीने की दुआ देते हैं,
लोग किस जुर्म की आखिर ये सज़ा देते है ।
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यूं तो मंसूर बने फिरते हैं कुछ लोग,
होश उड जाते हैं जब सिर का सवाल आता है ।
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मुझे तो होश नही, तुमको खबर हो शायद ,
लोग कहते है कि तुम ने मुझ को बर्बाद कर दिया ।
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आखिर काम कर गए लोग ,
सच कहा और मर गए हम लोग ।
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बस्ती मे सारे लोग लहू मे नहा गए,
लह्ज़ा नए खीताब का कितना अजीब था ।
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देखिए गौर से रुक कर किसी चौराहे पर,
जिंदगी लोग लिए फिरते हैं लाशों के तरह ।
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इस नगर मे लोग फिरते है मुखौटे पहन कर,
असल चेहरों को यहां पह्चानना मुमकिन नही ।
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कुछ लोग ज़माने ऐसे भी तो होते हैं ,
महफिल में जो हंसते हैं, तन्हाई मे रोते हैं ।

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