Friday, August 21, 2009

कल आने की कहकर





कल आने की कहकर चल पड़े थे उस दिन चुपचाप
बरसो बीत गए है उस वादे को आज
आज भी कान उतने ही सतर्क है बरसो बाद
इंतज़ार करते कब हो दरवाज़े पे दस्तक की आवाज़
थक चुकी हैं आँखे रास्ता दूर तक देखकर
पर दिल नहीं थका गिनते एक एक पल प्यार

कितनी बसंत आई खिलाई अनेक बहार
पर फुल हमेशा रहा ग़मगीन गिनते इंतज़ार के पल
अनेक भवरोने लुभाना चाहा सुनाकर प्यारका दुलार
असमर्थ रहे वोह लाने फुल पे बहार की मुस्कान

पतझड़ के मौसम में बिखर गए पत्ते हज़ार
फुल ने सिमटकर संभाला अपना दामन
निर्जन पत्तो के बीच रही फुल की जान अडग
प्यार के अंकुर पे ना आने दी उसने कभी आंच

कहते है एहसास नहीं बुझते हो बसंत या पतझड़
चाहे बीते एक पल या सेंकडो पल बिन साथ
शायद इसीलिए लुभा ना पाए उसे भवरे हज़ार
ना ही बुझा पायी पतझड़ प्यार की लौ एक भी बार













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