बच्चा - Hindi Story
गेट खुलने की आवाज़-सी आई। मैंने एक पल के लिए अपना ध्यान आवाज़ पर केंद्रित किया। मैं कमरे में था - किताब पढ़ता हुआ। गर्मी के दिन थे। गली वीरान थी। लोग घरों में थे। मैं अपने कमरे में। मैंने जाली वाला दरवाज़ा बंद कर रखा था। चिटखनी नहीं लगाई थी। जाली वाले दरवाज़े का डोर क्लोज़र दरवाज़े को बंद होने की स्थिति में ला खड़ा करता था।
मेरा ध्यान अब भी गेट की तरफ़ था। गेट खुलने की आवाज़ आई ज़रूर थी। शायद साथ वाले पड़ोसी के घर का गेट खुला हो - मैंने सोचा। दोनों के एक जैसे गेट हैं। आवाज़ें भी कमोबेश एक जैसी।
अचानक जाली वाला दरवाज़ा खुला। एक बच्चे ने दरवाज़े को आधा खोलते हुए और उसमें से अपने चेहरे को निकालते हुए मुझे देखा। मुझे देखकर मुस्कराया। मैंने उसे देखा। हैरान होकर देखा। लेकिन वह मुस्कराया, तो मैं भी मुस्कराया। वैसे मुस्कराने जैसा मेरे पास कुछ था नहीं। फिर भी मैं मुस्कराया। शायद बच्चे को देखकर। फिर वह झीनी-सी मुस्कान लोप हो गई। हैरान रह गई। मेरी हैरानी समझदार थी। सयानी भी। उस बच्चे की मुस्कान मासूम थी। मैं कुछ कहता कि वह बड़ी प्यारी-सी आवाज़ में बोला, "हम आ जाएँ?"
जैसे घंटियाँ-सी बज उठी हों। उसके इस छोटे-से प्रश्न में कशिश थी, संगीत था, आदाब था। वह अंदर आने के लिए पूछ रहा था। आज्ञा ले रहा था। लेकिन उसने आज्ञा की प्रतीक्षा नहीं की। शर्माता-लजाता, छोटे-छोटे कदम रखता कमरे में चला आया था। उसकी आँखों में कुतूहल था। अजनबीयत का अहसास और थोड़ा-सा भय। वह आहिस्ता से चलता हुआ आया। मुझे देखता-सा। दीवारों को देखता-सा। शेल्फ़, घड़ी, दरवाज़े, किताबें सबको देखता-सा। शायद इनमें किसी को भी न देखता-सा। सिर्फ़ अपनी दुनिया - अपने बचपन की सतरंगी दुनिया के साथ चलता-सा।
वह मेरे सामने वाले सोफ़े पर थोड़ा टिक-सा गया। उसे बैठना नहीं कहेंगे। शायद पराए घरों में अजनबी बच्चे इसी तरह बैठते हों।
वह मुझे देखने लगा- शर्माते हुए। मुस्कराते हुए। मैंने कहा, "बेटे आराम से बैठ जाओ।"
"बैठा हुआ तो हूँ।" उसने मेरी ग़लती में सुधार किया। उसके वाक्य में बालसुलभ कॉन्फिडेंस था। लेकिन अपनी बात कहकर वह तुरंत उठ खड़ा हुआ। बोला, "देखो, अंकल, अब खड़ा हूँ। और अब. . ." पुन: बैठते हुए बोला, "अब बैठ गया। बैठ गया न?" उसने मेरा समर्थन चाहा।
मैंने 'हाँ' में सिर हिलाया। कुछ क्षण यों ही गुज़र गए। इस बीच वह कई बार मुस्कराया। शायद उसका मुस्कराना कोई संवाद हो। या फिर मुस्करा इसलिए रहा हो कि चुप रहने से मुस्कराने की स्थिति बेहतर हो। या फिर इसलिए कि मुस्कराते हुए वह दोस्ती का माहौल पैदा करना चाहता हो।
मेरी चुप से उसकी मुस्कान टकराती रही। मेरी चुप हारती रही। एक बच्चे की मुस्कान की ताक़त का अहसास मुझे हो रहा था। मैंने मुस्कराने की कोशिश की।
मैं बहुत कम हँसता हूँ। मुस्कराता भी कम ही हूँ। हमेशा संजीदा। सोच में मुब्तिला। परीशाँ-परीशाँ। ग़मगीन। मेरे दोस्त कहते हैं कि मैं अपनी ज़िंदगी की मुस्कान गिरवी रख चुका हूँ। पता नहीं यह जुमला है या मेरी ज़िंदगी का सच। पर मेरी ज़िंदगी का सच कुछ और है। मुझे लगता है, चुटकुलों की सारी किताबें पुरानी पड़ चुकी हैं। यह वह नामाकूल दौर है, जिसमें लतीफ़ेबाज़ जब मिलते हैं, तो बा-चश्मेनम मिलते हैं।
मुझे लगा, बच्चे से कुछ बोलना चाहिए। क्या बोलूँ? वही पुराना ढर्रा। बच्चे से बातचीत करनी हो, तो सबसे पहले उससे उसका नाम पूछो। फिर पापा का नाम। फिर पोयम, स्कूल, फ्रेंडस।
मैंने पूछा, "बेटे, आपका नाम क्या है?"
"गुद बॉय!" उसने कहा।
"गुड बॉय?"
"हाँ, गुद बॉय!"
"गुड बॉय कोई नाम होता है?" मैंने सवाल किया।
"तो क्या बैद बॉय नाम होता है?" उसने कहा। उसका तर्क़ वाजिब था। मैं हँस पड़ा। मुझे हँसते देख वह भी हँसने लगा। वह चाहता था कि मैं हँसू। न हँसता हुआ मैं शायद उसे डरावना लगता था। हँसता हुआ मैं शायद उसे उस तरह का लग रहा था, जिस तरह का वह चाहता था।
उसके छोटे-मोटे सफ़ेद दाँत चमक रहे थे। गालों में गड्ढ़े उभर आए थे। आँखें थोड़ी मुँद गई थीं। हँसते हुए वह बहुत भोला, बहुत सुंदर लग रहा था - किसी झरने जैसा।
वह, पता नहीं, तीन-साढ़े तीन या चार साल का होगा। गोरा-चिट्टा, करीने से सेट किए बाल, अच्छी ड्रेस, शूज और निक्कर के साथ लटकती हैंकी।
वह शायद पड़ोस के किसी घर से चला आया होगा। यहाँ मेरे पास। कमरे में। अजनबीयत को तोड़ते हुए। बच्चों में यही तो खूबी होती है - वे पूरे संसार को अपना समझते हैं।
लेकिन बड़े लोग दायरे और परिधियाँ ईजाद कर लेते हैं।
"तुम्हारा यह नाम गुड बॉय किसने रखा?"
मैंने कुछ देर चुप रहने के बाद संवाद जारी रखने की कोशिश की।
"मम्मी ने।" उसने कहा।
"और पापा?"
"वो तो हैं नई।"
"कहाँ गए?" मैंने पूछा। लेकिन पूछकर अफ़सोस हुआ। बच्चे से यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था।
"पता नईं।" फिर रुककर उसने समझाने वाले लहजे में कहा, "मम्मी कहती हैं कि वो भगवान जी के पास चले गए।"
बच्चा समझदार था। जो नहीं था, वह उसकी बात नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने बात बदलते हुए निक्कर के साथ बँधा हैंकी दिखाते हुए कहा, "अंकल, मेरी हैंकी! मम्मी लाई थीं।"
मैंने उसके हैंकी को देखा। उसने रहस्य से परदा हटाते हुए कहा, "मम्मी जेब में रूमाल रखती हैं, तो मैं गुम कर देता हूँ। इसलिए मम्मी यहाँ पे बाँध देती हैं। नाक साफ़ करने के लिए है मेरी हैंकी।"
"वेरी गुड!"
"वेरी गुद क्यों, अंकल? नोजी आ जाए, तो कोई वेरी गुद होता है?" उसने तर्क पेश किया। मैं निरुत्तर हो गया। फिर उसने अपनी छोटी-सी नाक को खोलते-सिकोड़ते हुए, अपनी उँगली से नाक की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, "अंकल, नाक में नोज़ी नई है न?"
"नहीं, बिलकुल साफ़ है।" मैंने कहा।
"वेरी गुद!" वह बोला। थोड़ा हँसा। उसके 'वेरी गुद' कहने पर मुझे भी हँसी आ गई। वह शायद मुझे समझाना चाहता था कि 'वेरी गुड' कहाँ बोलना चाहिए।
नाक को सिकोड़ना, ठुड्डी को ऊपर उठाना, शूं-शूं, फूं-फूं की आवाज़ें निकालना - मुझे लगा, वह कोई खेल खेल रहा है। मैंने उसकी इन हरकतों को देखते हुए कहा, "नॉटी बॉय!"
वह मेरी तरफ़ देखने लगा। उसने शूं-शूं, फूं-फूं बंद कर दी। थोड़ा तनकर खड़ा हो गया। बनावटी गुस्सा उसके चेहरे पर उतर आया। मैं थोड़ा डर-सा गया। अचानक क्या हो गया है इस बच्चे को?
"अंकल, मैंने आपका गिलास नईं तोड़ा न?" उसने पूछा। उसकी आवाज़ में बालसुलभ गुस्सा था। यह गिलास तोड़ने की बात कहाँ से आ गई? मैं सोचने लगा। इसके बावजूद मैंने उसकी बात का जवाब दिया, "नहीं।"
"कप?" उसने पूछा।
"नहीं, वो भी नहीं तोड़ा।" मैंने कहा।
"प्लेट?"
"वो भी नहीं।"
"काग़ज़ फाड़े?"
"नहीं।"
"दीवार पर कुच्च लिक्का?"
"नहीं।"
"अंकल, फिर आपने मुझे नॉटी बॉय क्यों कहा? जब मैंने कोई शरारत नईं की, फिर तो मैं गुद बॉय हुआ।"
उसके तर्क, उसके सवालों ने मुझे मुग्ध-सा कर दिया। मैं ठहाके लगाकर हँसा। वह भी हँसा। हम दोनों हँसे। लेकिन उसका हँसना खूबसूरत था - झरने की कलकल जैसा। जुगनु की चमक जैसा। किसी हरियाली जैसा। वह हँस रहा था। सोफे से उठकर, तालियाँ बजाकर। उसके साथ मैं भी हँस रहा था। लेकिन मेरी हँसी उस पुराने पोस्टर जैसी थी, जो ज़िंदगी की दीवार पर चस्पां होने के बावजूद अपनी चमक और खुशनुमा रंगत खो चुका हो।
वक्त धीरे-धीरे तमाम अच्छी चीज़ें छीन लेता है। यहाँ तक कि हँसने का सुरीलापन भी।
बच्चा हँस रहा था। बहुत देर तक हँसते रहने से उसकी आँखों से पानी आ गया था। पानी आँखों में चमकने लगा था। लेकिन वह बेपरवाह था। तालियाँ बजा रहा था और हँस रहा था। वह शायद हँसने की मूल वजह भूल गया था। बस, हँस रहा था। उसके साथ मैं भी हँस रहा था। उसकी हँसी निरंतर और निश्छल हँसी थी। मेरी हँसी में वक्त की ख़राशें थीं।
मुझे लगा, मेरे चुपज़दा कमरे में कोई चला आया है - आवाज़ों का छोटा-सा टापू। या रोशनी का छोटा-सा सूरज। या मासूमियत का आकाश, जिसमें उड़ान के हज़ारों परिंदे हैं। या वह समंदर, जो अपनी छाती पर मल्लाहों के गीतों की कश्तियाँ लिए फिरता है।
फिर वह उठा। उसने कमरे का चक्कर लगाया। मुझे लगा, वह दूसरे कमरे में जाना चाहता है। मेरा सोचना ठीक था। वह बिलकुल आहिस्ता-आहिस्ता, हवा की तरह दबे पाँव, थोड़ा सकुचाते हुए, एक कमरे से दूसरे कमरे में गया। खड़ा रहा। देखता-सा। पता नहीं, क्या ढूँढ़ रहा था। फिर वह आँगन में चला गया। फिर गमलों के पास।
फिर वह लौट आया। वैसे ही थोड़ा-सा टिककर बैठ गया। लेकिन इस बार पहले वाले सोफ़े पर नहीं, दूसरे सोफ़े पर, जो मेरी बगल में था।
"अंकल, भौत सारे फ्लावर हैं न बाअर?"
"आपको चाहिए?" मैंने कहा।
"नईं अंकल, आपको पता नईं, फूल तोड़ने से पाप चढ़ता है?"
"अरे, ये बात तो मुझे पता नहीं थी।"
"अंकल, आप इतने बड्ड़े हो, आपको ये बात भी पत्ता नईं? मेरी मम्मी को सब पता है, जी!"
वह जब अपनी मम्मी की बात करता, उसके चेहरे पर गर्व-सा दिपदिपाने लगता।
"वो कहती हैं. . ." उसने कुछ कहना चाहा। लेकिन उससे पहले एक ज़रूरी सूचना उसने सुनाई, "मेरी मम्मी भौत अच्छी है। भौत अच्छी हैं, जी!" फिर अपनी पुरानी बात पर लौटते हुए बोला, "वो कहती हैं, फूल तोड़ो तो फूलों को उई हो जाती है।"
मैं उसकी तरफ़ देख रहा था। "फूलों को उई?" उसने जैसे बड़े ज्ञान की बात बताई हो। मैं उसके 'ज्ञान' से प्रभावित हो रहा था।
फिर अचानक उसे कुछ याद आया। बोला, "कल मेरे दाँत में उई हो गई थी।" उसने मुँह खोलकर किसी दाँत पर अपनी सुकोमल उँगली रखते हुए कहा। उसकी उँगली कई सारे दाँतों पर घूमती चली गई।
मैंने कहा, "चॉकलेट खाई होगी?"
"थोड़ी-सी खाई थी।" उसने मुँह बिचकाते हुए दो उँगलियों को मिलाकर बताने की कोशिश की कि कितनी चॉकलेट खाई।
"कौन-सी खाई थी?" मैंने पूछा।
वह सोचने लगा, जैसे अपनी स्मृति पर ज़ोर दे रहा हो, "मैंने कौन-सी खाई थी? मैंने कौन-सी चॉकलेट खाई थी? अमूल नो! कैडबरी नो! फाइव स्टार नो! मैंने खाई थी पर्क नो। किटकैट नो! नेछले की. . .।"
"अरे, तुम्हें तो बहुत सारी चॉकलेटों के नाम पता हैं?" मैंने उसकी प्रशंसा की। वह शरमा-सा गया। लेकिन मेरी प्रशंसा उसे अच्छी लगी।
"मेरे को भौत सारी आइसक्रीमों के नाम पता है, मैंने सब खाई है।" उसने कहा। वह बताना चाहता था कि उसे सिर्फ़ चॉकलेटों के ही नहीं, और भी बहुत-सी चीज़ों के बारे में पता है।
"कौन-कौन-सी आइस्क्रीमें खाई हैं तुमने?"
वह उठ खड़ा हुआ। एक बार सोफ़े के पास घूम गया। मुझे लगा, मेरा सवाल उसे बोर कर गया है। उसने सोफ़े के आसपास दो-तीन चक्कर लगाए। जेब से कोई सीटी जैसी चीज़ निकाली। मुँह में रखकर बजाने की कोशिश की। बजी नहीं। नहीं बजी तो न सही। वह खुद मुँह से पीं-पीं की आवाज़ निकालता हुआ दूर तक चला गया। पीं-पीं करता जैसे गया था, वैसे ही लौट आया। उसने अपनी ख़राब सीटी को मुँह से निकालकर देखा। उसको हाथों में घुमाता-फिराता रहा। जैसे मुआयना कर रहा हो। ख़राबी तलाश रहा हो। सीटी को उसने जेब में रखा। मेरे सोफ़े के पास आकर बोला, "आपने लेज खाया है कब्बी?"
"नहीं।"
"कुरकुरे?"
"नहीं, वो भी नहीं खाए।"
"अंकल चिप्स?"
"वो भी नहीं।" मैंने कहा।
"आपने कुच्च भी नईं खाया। मैंने तो सब खाए हैं। मम्मी लेके देती हैं। मैंने चुइंगम भी खाई है। सेंटल फरेस। और एल्पेनलीबे भी खाई है, एक्लेयर भी खाई है, कॉफी बाइट भी खाई है।"
"बहुत सारी चीज़ें खाई हैं तुमने तो!" मैंने हैरानी-सी जताई।
"और नईं तो क्या! मैंने भौत सारी चीज़ें खा रखी हैं।"
"शकरकंदी खाई है कभी?"
"हट! छी-छी!" उसने मुँह बिचकाते हुए कहा।
अचानक मुझे ध्यान आया, बच्चे ने पानी नहीं पिया बहुत देर से। इसे प्यास लगी होगी। मैंने पूछा, "नींबू पानी पियोगे?"
"रसना पिऊँगा।" उसने कहा। उसका इस तरह सपाट-सा उत्तर देना मुझे अच्छा लगा। शुक्र था, मैंने रसना का पैकेट ला रखा था। मैंने रसना के दो गिलास बनाए। आइसट्रे से बर्फ़ के क्यूब मिलाने लगा, तो वह झटपट बोला, "अंकल, एक कूब मुझे दे दो।"
"क्या करोगे?"
"खेलूँगा।"
"बर्फ़ से भी कोई खेलता है?"
"मैं खेलता हूँ मम्मी के साथ।"
"कैसे?"
"मम्मी के पीछे जाकर चुपचाप आइस कूब डाल देता हूँ। मम्मी डर जाती हैं। भौत मज़ा आता है। अंकल, मेरे को एक आइस कूब दे दो।"
मैंने एक क्यूब उसे दे दिया। मैंने सोच लिया था, जब तक यह क्यूब नहीं पिघलेगा तब तक यह बच्चा मेरी ऐसी-तैसी करता रहेगा। रसना पड़ा रहेगा, पिएगा नहीं।
उसने वही तो किया, जो मैं सोच रहा था। वह बर्फ़ के क्यूब को मुठ्ठी में दबाता, फिर खोलता। क्यूब को अपने गालों के आसपास घुमाता। क्यूब को स्टापू-सा बनाते हुए फ़र्श पर फेंकता। क्यूब फिसलता चला जाता। वह उसके पीछे भागता, पकड़ता। फिर कोई नया खेल।
मैं धीरे-धीरे रसना पी रहा था। उसका गिलास मेज़ पर रखा था। मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि आइस क्यूब जल्दी पिघल जाए। भगवान से भी कई बार कितनी छोटी प्रार्थनाएँ करनी पड़ जाती हैं। फिलहाल मेरी मन्नत यह थी कि आइस क्यूब पिघल जाए। वह पिघल नहीं रहा था।
इस बीच कमरे में शांति-सी छा गई। मुझे लगा, बच्चा बाहर आँगन की तरफ़ चला गया होगा। बाहर का फ़र्श गरम होगा। क्यूब जल्दी पिघल जाएगा।
अचानक मैं चौंक-सा गया। एकदम सिहर उठा। कुछ ठंडा-ठंडा-सा लगा। एकदम झुरझुरी-सी हुई। मैंने पलटकर देखा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा। हँसता चला गया। यह उसकी शैतानी थी, जो सफल रही। उसका अभियान था, जो कामयाब रहा। मैं सोच रहा था, वह आँगन में होगा। लेकिन वह मेरे पीछे छिपकर खड़ा था। सोफे के पास रखे स्टूल पर चढ़कर उसने मेरी गर्दन के पास, कॉलर के नीचे आइस क्यूब की बूँदें टपका दीं। मैं चौंक गया। वह किलकारी मारकर हँसा। मैं झेंप-सा गया।
आइस क्यूब पिघल गया था। आइस क्यूब का खेल समाप्त हो गया था। बच्चा अब सोफे पर टिक-सा गया। रसना का गिलास उठाया, पीने लगा। पीते हुए वह कई सारी आवाज़ें निकालता, कभी फुर्र-फुर्र, कभी लंबी साँसें, कभी सुरड़-सुरड़ की आवाज़ें।
वह अपनी हर अदा में अच्छा लगता, अपनी हर शैतानी में प्यारा।
उसने आधा गिलास पिया - रख दिया। बोला, "बाद में पिऊँगा। मेरा डिड्डू भर गया।" फिर मेरी तरफ़ देखते हुए बोला, "अंकल, आपको पता है, डिड्डू क्या होता है?" अपने पेट पर हाथ फेरते हुए बोला, "इसे डिड्डू कैते हैं। मेरा यई डिड्डू रसना से भर गया।"
मैं मन ही मन मुस्कराया। अचानक कुछ सोचते हुए मैंने पूछा, "किधर रहते हो तुम?"
"वो. . ., उदर, उदर. . .।" उसने खड़े होकर तर्जनी घुमाते हुए कहा। उसकी तर्जनी दसों दिशाओं में घूमती चली गई। छोटे बच्चे शायद अपने घर का पता इसी तरह बताते हों।
अचानक उसने अपना हाथ निक्कर की जेब में डाला। पाँच का सिक्का निकालते हुए बोला, "अंकल, मम्मी को मत बताना, इसकी मैं हाजमोला कैंडी लूँगा।"
उसने मुझे अपना राज़दाँ बनाया। मैं मन ही मन मुस्करा रहा था। उसे मुग्ध भाव से देख रहा था। कहते हैं, समंदर और बच्चा कभी स्थिर नहीं होते। यह बच्चा भी ऐसा ही था। जब से आया, कुछ न कुछ करता हुआ नज़र आया। उसकी अपनी दुनिया थी- सरगर्म, तपिश भरी, रंगीन, खिलखिलाती, चहल-पहल से भरी, मासूम, बेबाक, कुछ-कुछ नाटकीय, कुछ-कुछ संकोची, कुछ-कुछ रहस्यमयी।
उसके आने के बाद से मैंने किताब नहीं खोली थी। जो मेरे सामने था, वह भी एक किताब जैसा था। एक ऐसी किताब, जिसे मैंने कभी नहीं पढ़ा था। वह बच्चा किताब भी नहीं था, ज़िंदगी की किताब से निकला कोई अक्स था, कोई इबारत, कोई तहरीर, कोई नग़मा, कोई सिंफनी
अचानक उसने निक्कर की जेब में हाथ डाला। कई सारी चीज़ें निकालीं - शार्पनर, पेंसिल, रबड़, स्टिकर्स, टैटू, एल्पेनलीबे टॉफियाँ। उन सब चीज़ों को उसने सोफ़े के किनारे रखा। फिर सोफ़े पर पड़े कपड़े के नीचे छिपा-सा दिया। फिर मेरी ओर देखते हुए बोला, "अंकल, बताओ, मैंने अपना सामान क्यों छिपाया?"
मैं उसकी तरफ़ देखने लगा। अजीब सवाल था। क्या जवाब दूँ?
"पता नईं न आपको?"
"नईं, मुझे बिल्कुल पता नईं।" मैंने उसके लहजे में कहा।
"अंकल, मैंने अपना सामान इसलिए छिपाया है कि कोई बच्चा मेरी चीज़ों को चुरा न ले।" उसने समझाने वाले लहजे में कहा।
फिर पेंसिल उठाकर मेज़ पर पड़े अख़बार पर कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने लगा।
"क्या लिख रहे हो तुम?" मैंने पूछा।
उसने बिना सर उठाए मेरी बात का जवाब दिया, "ए फॉर एपल, बी फॉर बैट, सी फॉर कैट लिख रहा हूँ।"
"वेरी गुड!" मैंने उसकी हौसलाअफ़ज़ाई की।
उसने अपने ज़रूरी काम को स्थगित करते हुए और मेरी हौसलाअफ़ज़ाई पर राख डालते हुए पूछा, "अंकल, टी फॉर क्या होता है?"
"टी फॉर. . .।" मैं सोचने लगा। सोचते हुए बोला, "टी फॉर टेबल।"
"नो! टी फॉर होता है टेलीविजन!" उसने सख़्ती से कहा, जैसे वह मेरा अध्यापक हो और मुझे पढ़ा रहा हो।
"अंकल, जे फॉर क्या होता है?" उसने फिर पूछा।
मुझे लगा, अब उसने फिर मुझे फँसा दिया है। मैंने जे फॉर जग बोला, तो उसने मेरा मज़ाक-सा उड़ाया, "मेरे को मालूम था जी, आप नईं बता पाओगे। जे फॉर होता है जस्सी जैसी कोई नईं. . ."
मेरी हँसी छूट पड़ी। मुझे हँसते देख पहले तो वह हैरान हुआ। फिर किलकारी मारकर हँसने लगा।
उसने फिर अजीब-सा सवाल किया, "अंकल, आपको गुदगुदी होती है?"
"पहले होती थी।" मैंने कहा।
"मेरे को तो होती है।" उसने गर्व से कहा। फिर अपने पेट को गुदगुदाते हुए बोला, "देका, होती है न गुदगुदी?"
मैं उसकी मासूमियत पर भावविभोर होता कि उसने मुझे एक और संकट में डाल दिया, "अंकल, आपको गुदगुदी करूँ?"
इससे पहले कि मैं हाँ या ना में जवाब देता, वह मेरे सामने सोफ़े पर चढ़ गया। जैसे उसने मुझ पर चढ़ाई कर दी हो। फिर वह मेरे पेट को गुदगुदाने लगा। मैं हँसने लगा। वह भी हँसने लगा।
एक अपरिचित बच्चा मुझे गुदगुदा रहा था। मैं हँस रहा था। खुलकर हँस रहा था। लगातार हँस रहा था। इतना ज़्यादा मैं कभी नहीं हँसा था। मुझे लगता था, मेरे पास सब कुछ है, हँसी नहीं है। यह हँसी पता नहीं कहाँ से आई थी, जो मैं हँस रहा था। मेरे साथ अपरिचित बच्चा भी हँस रहा था। लगता था जैसे हम दो बच्चे हों। बहुत सालों से एक-दूसरे को जानते हों।
हँसते-हँसते उसकी साँस फूल गई। साँस मेरी भी कुछ-कुछ असामान्य हो गई थी। वह सोफ़े पर पहले की तरह टिककर बैठ गया। कुछ देर यों ही बैठा रहा। फिर इधर-उधर देखते हुए बोला, "अंकल, आपकी मम्मी कहाँ हैं?"
"नहीं हैं।"
"मेरी तो हैं।"
"अच्छा! क्या करती हैं तुम्हारी मम्मी?"
"मेरे को प्यार करती हैं।" उसने कहा।
उसके चेहरे पर चमक-सी पैदा हुई। मम्मी के बारे में वह कुछ और बताता कि बगीचे से उड़कर एक तितली ड्रॉइंगरूम में चली आई। उसने दो-तीन चक्कर काटे। एक बार तो वह कुर्सी की हत्थी पर भी बैठी। बच्चे की नज़र तितली पर पड़ी। वह उसके पीछे भागा। तितली भी जैसे यही चाहती थी, खेल खेलना बच्चे के साथ। जैसे उड़ते हुए उसने बच्चे को चुनौती दी हो - हिम्मत है तो मुझे पकड़कर दिखा!
बच्चा तितली के पीछे। तितली कभी शेल्फ पर, कभी परदे के ऊपर, कभी दीवार पर, कभी दीवार पर टँगी घड़ी पर। कभी मेज़ की टाँग के साथ, कभी वॉशबेसिन की टोंटी पर, कभी हवा में तैरती, कभी बैठती। बच्चा उसके पीछे, जिधर तितली उधर बच्चा। मैं घबराया-सा, हैरान-परेशान-सा। घर में तितली, घर में बच्चा। घर में हंगामा, घर में ऊधम। बच्चे की आवाज़ें, भागने की, जूतों की, रुकने की, चलने की, छलाँग लगाने की आवाज़ें।
ताज्जुब था, मैं घर में था, लेकिन बच्चे को मेरी परवाह नहीं थी। जैसे वह मेरे घर में नहीं, अपने घर में हो।
आख़िर तितली उड़कर कहीं बाहर चली गई। बच्चा अपने अभियान में असफल होकर, थोड़ा थककर लौट आया। वह हाँफ रहा था। पसीना-पसीना हो गया था। फिर सोफ़े पर टिकते हुए उसने कहा, "भाग गई। कल आएगी। कल पकड़ लूँगा, जाएगी कहाँ बच के।"
मुझे महसूस हुआ कि बच्चे को प्यास लगी है। मैं उठा, किचन में गया। फ्रिज से पानी की बोतल निकाली। गिलास में पानी डाला। वापस ड्राइंगरूम में आया। अवाक-सा रह गया मैं। बच्चा जा चुका था। मैं जब किचन में था, मुझे गेट के खुलने की आवाज़ आई ज़रूर थी, पर मैंने सोचा था, किसी दूसरे का गेट होगा।
मैं पानी का गिलास लिए जाने क्या-क्या सोचता रहा। फिर वही सन्नाटा था - बासी, उबाऊ। थका हुआ। सारी सरगोशियाँ समाप्त हो गई थीं। बच्चा अपने संसार के साथ आया था और अपने चपल-चंचल संसार को लेकर चला गया था।
अचानक मेरी नज़र सोफ़े पर पड़ी। स्टिकर्स, शार्पनर, पेंसिल, टैटू, एल्पेनलीबे की टॉफी और पाँच का सिक्का। वह सब चीज़ें छोड़कर चला गया था। मैंने पानी का गिलास मेज़ पर रखा। उसकी सारी चीज़ें उठाई। बाहर गली में आ गया। वह दूर तक कहीं नज़र नहीं आया। पता नहीं कहाँ गया होगा। न उसने मकान का नंबर बताया था न मम्मी का नाम। मैं इधर-उधर भागता फिरता रहा।
मैंने कई लोगों से पूछा। बच्चे को किसी ने नहीं देखा था। मैं बच्चे का हुलिया बताता। लोग नाम पूछते। नाम. . .? मैं याद करता। उसने अपना नाम 'गुद बॉय' बताया था। लोग हँसते। मैं झेंप जाता।
मैं दूर तक हो आया था। साथ वाली गली में और पार्क के साथ वाली गली में भी। एक नज़र मैंने पार्क में भी डाली। बच्चा कहीं नहीं था।
उसका कीमती सामान मेरे हाथ में था। मेरे मन में व्याकुलता थी, बेचैनी और विचलन!
मैं वापस लौट आया। सोचने लगा - बच्चे के पास कितनी सारी आवाज़ें थीं। वह सारी आवाज़ें लेकर चला गया था। बच्चे के पास कितनी सारी मासूमियत थी! वह अपनी सारी मासूमियत लेकर चला गया था। और अपना कीमती सामान छोड़ गया था।
मैंने सोफ़े के किनारे, बिलकुल उसी जगह बच्चे का सामान छिपाकर रख दिया है। मुझे उम्मीद है, वह कल फिर आएगा। अपना कीमती सामान लेने या फिर तितली पकड़ने या फिर मुझे गुदगुदाने या फिर मुझे हँसाने या फिर. . .। मुझे उम्मीद है, वह कल आएगा।
No comments:
Post a Comment