एक अनाम संबंध
मध्यान्ह का सूर्य चमक रहा था, धरती तप रही थी, गरम हवा चल रही थी। मैंने घर के सब दरवाजे बन्द कर दिये थे, परदे लगा दिये थे, कूलर चल रहा था। खाने पीने का तथा अनेकानेक घर के अन्य कामों को निपटाकर मसालेदार फिल्मी पत्रिका लेकर लेटी तो याद आया, टी वी में खूब नई चटपटी पिक्चर आनेवाली थी। यों तो हम लोग पुस्तक, पत्रिकाओं पर व्यर्थ पैसा खर्च नहीं करते पर कभी कभार मैं फिल्मी पत्रिका या महिलाओं की पत्रिका खरीद लेती हूं।
अलस भाव से पिक्चर की प्रतीक्षा करते साबुन, मंजन के विज्ञापन देखते पत्रिका के पृष्ठ पलट रही थी कि जोरों से कॉलबेल बज उठी। लेटे-लेटे ही पूछा कौन है ताकि कोई अवांछित व्यक्ति हो तो लौटा दूं पर कोई उत्तर न मिला, बल्कि दुबारा वही घंटी की आवाज आई। बडे अनमने से उठकर द्वार खोला, देखकर जानते हुये भी, कुढक़र, मुडक़र कहा- ''क्या है?''
''जी, चाय है, बडी क़डक जायकेदार, आप एक बार इस्तेमाल करके देखें।'' उसने विनीत स्वर में कहा,
''नहीं चाहिये, दुपहरी में भी चैन नहीं, जब देखो, पहुंच जायेगी, हमारी हमदर्द बनकर।''
मेरे बडबडाने का कोई असर नहीं, ''मॅडम आप एक बार लेकर तो देखिये... क़ुछ भी लीजिये, बडा पेकेट है, छोटे भी हैं, हर पेकेट के साथ-साथ गिफ्ट है... देखिये कितनी सुन्दर प्लेट है, पीछे के ब्लाक में सबने दो-दो, तीन-तीन लिये हैं।''
''मुझे नहीं चाहिये कहा तो पर मेरा भी मन ललचा उठा था, मन को समझाते हुये दृढता से कहा,
''जिस ब्राण्ड की चाय हम वर्षों से पी रहे हैं, तुम्हारे लिये क्यों छोड दें।''
''जी कुछ तो ले लीजिये''
''जब इतने घरों में बेच चुकी हो तो एक मेरे ही न लेने से क्या हो जायेगा कहते हुये मैंने जोर से द्वार बन्द किया।''
ऐसे ही करना पडता है, कभी चिढक़र, कभी बिगडक़र, कभी हंसकर। तीन चार दिन बीते होंगे, मैं कहीं बाहर जाने की तैयारी में थी। मुझे देर हो चुकी थी, अतः जो भी हो उससे जल्दी ही क्षमा मांगना होगी। कौन होगा सोचते हुये द्वार खोला तो बडे से जूट के झोले में झांकते हुये साबुन पाउडर के डब्बों के पास थकी- थकी बैठी थी वही सेल्स गर्ल।
अब इनसे बहस करनी पडेग़ी, बारबार कहूंगी कि मुझे नहीं चाहिये और ये है कि टलने का नाम नहीं लेंगी। मेरे दो रूपये बचाने का पुण्यकार्य जो करना है इन्हें। मैंने जोर देकर कहा - ''आप जाइये, मुझे साबुन पाउडर नहीं चाहिये।'' वह विनयपूर्ण जिरह करती रही कि उसका साबुन सबसे सस्ता भी पडेग़ा, कपडे भी खूब साफ हो जायेंगे।
मैंने खीझ कर कहा, इतनी गर्मी में पैदल घर-घर घूम रही हो, तुम कोई काम और क्यों नहीं कर लेती?
''जी मुझे घर-घर जाना है इसलिये कोई सवारी भी तो ले नहीं सकती, देखिये मेरी लिस्ट देखिये, यहां कितने घरों में गई हूं, सब गृहिणियों के नाम लिखें हैं।''
''और देखिये नौकरी के लिये प्रयत्न भी कर रही हूं, कई जगह आवेदन किया है।''
कई सेल्स गर्ल्स आया करती थी जिन्हे टालने के लिये मैं तरह-तरह के नुस्खे आजमाया करती, कभी किसी से कह दिया, अभी लिया हैं, किन्तु तब उनका आग्रह होता, छूट और उपहार लेने के लिये लेने का। सामने न पडी तो कहला दिया कि मैं घर में नहीं हूं। इससे पहचान हो गयी थी, कई बार आ चुकी है सलौनी छरहरी सी लडक़ी बाईस तेईस ही आयु रही होगी। प्रायः ढीला ढाला - प्रिन्ट का खादी का सलवार सूट पहने रहती, उसी प्रिन्ट की चुन्नी ओढती जिसमें पीछे गांठ डाल लेती। कन्धों से नीचे तक के बाल क्लिप में बंधे रहते। कुछ लेने का आग्रह इतना तीव्र रहता कि अस्वीकार कठिन हो जाता। पर करना भी पडता है। हम भी तो क्या करें किसी की खुशी के लिये व्यर्थ में साबुन, क्रीम आदि कहां तक लें, हमारा भी तो सीमित बजट हैं, मैं अपने को सांत्त्वना देती हूं।
और ये जिन्हें हम सेल्स गर्ल्स कहते हैं - अठारह से अडतालिस वर्ष तक की महिलाऐं, कन्धों पर बेग लटकाये कभी किसी कम्पनी का कभी किसी कम्पनी का माल ले कर घर में बेखटक बेचने चली आती है, साबुन, चाय, क्रीम, मंजन, अगरबत्ती, प्रसाधन की विविध वस्तुयें और न जाने क्या क्या ले कर जिन्हें कभी बिगड क़र, कभी उदासीन हो कर, कभी हंस कर मना करना पडता है, कभी कभी उनके गिफ्ट का प्रलोभन इतना तीव्र होता है कि सारी फटकार, सारा निश्चय धरा रह जाता है।
प्रथमबार उस नवयौवना से झुर्रियां मिटाने की क्रीम लेने का अनुरोध सुन आघात लगा था वैसे ही जैसे दीदी, भाभी सुनने के आदी कान, पति के नौजवान सहकर्मी से अपने लिये आंटी सुनना। पहला झटका आघात लगता है फिर तो हम उसके आदी हो जाते हैं।
मेरी छोटी बेटी यूनिवर्सिटी गई हुयी थी, बेटा अपनी नई नई पोस्टिंग पर दूसरे शहर में, बडी ससुराल में, फिर भी-
उस पर रोष हो आया, फटकार दिया था। ''आंटी, आप ले कर तो देखिये.. प्रतिष्ठित कंपनी की है।'' उसके विनय पर या क्रीम पर मन ललचा गया, ''तुम दीदी कह लो मुझे... यह आंटी वांटी पसंद नहीं, ...और देखो ऐसे कहो कि इससे त्वचा में निखार आयेगा ..ये सही है।''
वह हर्षित हो गयी थी, दीदी बडी शीशी ले लीजिये, उनके साथ प्लास्टिक का जार मुफ्त मिलेगा और दीदी कुछ नहीं।
पैसे लेकर उसने कागज आगे कर दिया, नाम पता सब लिखना था तब से वह कभी कभी आया करती। एक बार कागज देखते पढते चकित हो कर कहा था, ''अरे क्या लीला मास्टरनी के घर भी गयी थी, तीन घर आगे तिमंजिले पर....क्या क्या लिया उन्होंने?''
''नेलपालिश और लिपिस्टिक़.... साबुन भी। यह सब वह क्या करेगी? सादी वेशभूषा, हल्के प्रिंट की सफेद जमीन की सूती या अधिकतर सिंथेटिक साडियां पहनने वाली तुम्हारी आंटी अधिक से अधिक एक साबुन या शैम्पू ले लेगी।''
'' मुझे भी जिज्ञासा हुई थी।'' उसने कहा था।
''जिज्ञासा।'' यह सेल्स गर्ल, यह दर-दर सामान बेचने वाली लडक़ी जिज्ञासा कह रही है जैसे कोई बडी विदुषी हो। मैंने व्यंग से कहा, ''अच्छा तुम्हें जिज्ञासा हुई, क्यों?''
''यही कि आंटी क्या करेगी इन सब श्रृंगार प्रसाधनों का ।''
फिर एक दिन साहस कर के पूछ लिया कि ''आंटी आप सब किसके लिये लेती हैं? घर में कोई और मेरी दीदी या भाभी?''
वह हंसी थी, मैं संकुचित हो उठी थी, फिर कहा -
''आप तो इन को प्रयोग में नहीं लाती, किसी से पूछा हैं?'' मैं आम बोली में यूज या इस्तमाल की अभ्यस्त थी, एक मामूली साबुन, मंजन बेचने वाली, घर-घर घूमनेवाली ऐसे शब्दों का प्रयोग करें, मुझे कुछ विचित्र सा लगा।
आंटी ने कहा था, ''वह अपने लिये नहीं लेती, उनकी भांजी, भतीजियां हैं उन्हें उपहार दे देती हैं।'' पर जब भी मैं जाती हूं, वह सदैव कुछ न कुछ ले लेती है, कभी खाली हाथ नहीं लौटाती।
मुझे हीनता सी लगी, कहा - ''अच्छा है, तुम्हारा बडा ख्याल रखती है तभी न तुम काफी देर तक वहां बैठी रहती हो, वैसे तुम्हे घर-घर जाते डर नहीं लगता? ''
''सबके घर अंदर नहीं जाती, बाहर से ही बुला लेती हूं।''
''आंटी बैठने को कहती है, उनके पास बहुत सारी पुस्तकें हैं, दो-एक अच्छी पत्रिकाएं भी रहती हैं।''
मेरी हाथ में सस्ती मनोरंजन की पत्रिका थी, मुझे उसका कथन चुभन सा लगा।
मुझे चिढाना हुआ सा लगा तभी वह बोली, ''आंटी मुझे पढने को भी देती हैं।''
''अच्छा ।'' मुझे इर्ष्या ने आ घेरा, पूछा - ''घर ले जाने को भी देती हैं? ''
''जी हां''
''इतना विश्वास है? ''
'' जी, आंटी बहुत अच्छी हैं।''
जिसके घर न कोई उत्सव, न कोई आनेवाला न जानेवाला, जिसे मनहूस समझते हैं हम, उसकी स्तुति कर रही हैं। कुढक़र कहा- ''उनको करना ही क्या है, अपने आगे पीछे कोई दिखता नहीं, आगे नाथ न पीछे पगहा, बस जो मिल गया उसी को एक प्याली चाय की लालच दे बैठा लेंगी, आखिर समय बिताने कोई साथ तो चाहिये न। रिश्ते के लोग दूरी रखते होंगे, कहीं बुढापे में उन पर भार न बन जायें।''
''दीदी, कई लोग तो एक घूंट पानी के लिये भी कह देंगे, आगे जाओ नल लगा है.... घर में कोई है नहीं.... हमसे उठना नहीं होगा..... उन्हें डर रहता है कि वह पानी लेने जायें, हम कुछ उठा न लें ।''
वह तो जैसे मुझे दर्पण दिखा रही थी। अपना झोला समेट वह उठ खडी हुई। झोले में पालीथिन के बैग में दो पुस्तकें थी, सस्ते उपन्यास होंगे और क्या पढेग़ी। देखा तो एक हजारी प्रसाद द्विवेदी का उपन्यास पुर्ननवा और दूसरी रामधारी सिंह दिनकर की कृति थी संस्कृति के चार अध्याय।
जिसको मैंने कितनी ही बार फटकार दिया था, समय असमय कालबेल बजाने पर, उसके काम की हंसी उडाते हुये कहा था - ''सब्जी भाजी बेचने आती है तो शान से खडी रहती हैं, लेना हैं तो लो नहीं तो चलें। पर ये सेल्सगर्ल तो अडक़र ही बैठ जाती है, चाहे जैसे हो गांठ के पैसे लेकर ही छोडेग़ी'', वह सुनकर हंस दी थी, ''आप का विश्लेषण ठीक ही है दीदी, पर हमारी नौकरी यही हैं ना।''
आज सोचने लगी कैसी लगन हैं, कैसे रूचि है इस लडक़ी की। पुर्ननवा - द्विवेदी जी का संस्कृतनिष्ठ इतिहास और पुराण समेटे गंभीर प्रकृति का उपन्यास जिसके दस बीस पृष्ठ भी हम नहीं पढ पाये और संस्कृति के चार अध्याय ? वह जैसे चार कहानियां पढ रही हो। संस्कृति के नाम पर हम कल्चरल प्रोग्राम नाचगान उछलकूद को ही जानते हैं।
'इन्हें पढ लिया - कैसी लगी? ''
''जी, बहुत अच्छी, आप पढ क़र देखिये न... आप कुछ लीजिये दीदी, जल्दी घर जाना चाहती हूं।''
''घर या कहीं और.. '' मैंने थाह लेनी चाही। आज उसने चटक और नया सलवार कुर्ता पहना हुआ था।
''बहन के घर जाना है, भांजे का जन्मदिन हैं।''
''तो एक दिन अपना भ्रमण छोड देती।''
वह विवशता भरी दृष्टि डाल कर चली गयी। कई महिने बीत गये वह सेल्स गर्ल नीरा नहीं आयी। दूसरी कई आती रही पर उनसे उसके विषय में कुछ ज्ञान न हो सका, आती तो प्रायः लौटाना पडता कभी चिढक़र कभी बिगडक़र कभी हंसकर।
इस बीच लीला मास्टरनी बीमार पडी अपने तिमंजिले के घर से उतरती, रिक्शा ले डाक्टर के पास जाती, पावभर दूध हमारा दूधवाला दे आता था। उससे ही मालूम हुआ कि मास्टरनी कभी कभी डबलरोटी मंगवा लेती है उससे। पडोस के फर्ज में देखने गई, दूसरे नीरा उनकी प्रशंसा करती थी, मेरा कौन सा नीरा से संबंध था पर कुछ था जो दोनों को बांध गया। मेरी देखा देखी पडोस की दूसरी महिलाएं निकली। जिगर के कैंसर की रोगिणी पर ईश्वर ने दया की थी, वह अधिक समय दीन हीन अवस्था में पडी नहीं रही थी।
मकान मालिक सेल्स गर्ल नीरा की खोज में थे। उसे देख क्षणभर में कई विचार मन में उठें जिनमें प्रमुख था, क्या वह लीला के घर से कुछ चुरा ले गई थी जो उसके मृत्यु के बाद आई है।
उसे साथ ले तीसरे घर के तिमंजिले पर पहुंची हूं तमाशा देखने, किन्तु स्तब्ध रह गई, काठ सा मार गया - ''लीला मास्टरनी अपनी सब कुछ तुम्हारे नाम कर गई है, है ही क्या, किताबों भरी अलमारी, एक पतली सी सोने की चेन, नन्हें नन्हें कानों के टाप्स, घडी, यह प्रिय पेड, मेज, क़ुर्सी, बैंक में कुछ रूपया। चेक पर हस्ताक्षर कर दिया था। क्रिया कर्म पर जो खर्च हो बीमारी में लगे , उसमें से ले लिया जाय, जो बचे तुम्हारा है यह पत्र ही वसीयत है, हम तुम्हें खोज रहे थे, अच्छा है तुम आ गई।''
''इसमें उनके कपडे है जो न ले जाना चाहो, गरीबों को बांट दो कहते हुये अलमारी का पट खोल दिया मकान मालकिन ने ।''
अब तक काठ बनी नीरा अरे आंटी कहकर बिलख कर रो उठी है। उससे ली हुयी सभी वस्तुएं वहां करीने से रखी हुई थी। केवल उसका मन रखने के लिये आंटी ने कहा था कि उनके भतीजियां हैं।
''है तो बेटे पर क्या वह इन मामूली वस्तुओं का प्रयोग करेगे? ''
स्टेटस् में रहने वाले भाई जिनके लिये लीला ने विवाह नहीं किया था, सूचना पा कर कह दिया सुविधा होगी तो आ जायेंगे, जनरल वार्ड में भेज दें ।
मैने बार बार रोती नीरा को अंक में समेट लिया, आज उससे जाने को न कह सकूंगी न चिढक़ार न बिगडक़र न हंसकर।
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