Saturday, March 14, 2009

श्रीमद् शंकराचार्य द्वारा श्रीगणेश की स्तुति


श्रीमद् शंकराचार्य द्वारा श्रीगणेश की स्तुति

मुदा करात्तमोदकं सदा विमुक्तिसाधकं कलाधरावतंसकं विलासिलोकरञ्जकम्।
अनायकैकनायकं विनाशितेभदैत्यकं नताशुभाशुनाशकं नमामि तं विनायकम्॥
नतेतरातिभीकरं नवोदितार्कभास्वरं नमत्सुरारिनिर्जरं नताधिकापदुद्धरम्।
सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम्॥
समस्तलोकशंकरं निरस्तदैत्यकुञ्जरं दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्रमक्षरम्।
कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करं नमस्करं नमस्कृतां नमस्करोमि भास्वरम्॥
अकिंचनार्तिमार्जनं चिरंतनोक्तिभाजनं पुरारिपूर्वनन्दनं सुरारिगर्वचर्वणम्।
प्रपञ्चनाशभीषणं धनंजयादिभूषणं कपोलदानवारणं भजे पुराणवारणम्॥
नितान्तकान्त दन्तकान्तिमन्तकान्त कात्मजमचिन्त्य रूपमन्तहीनमन्तराय कृन्तनम्।
हृदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनां तमेकदन्तमेव तं विचिन्तयामि संततम्॥
महागणेशपञ्चरत्‍‌नमादरेण योऽवहं प्रगायति प्रभातके हृदि स्मरन् गणेश्वरम्।
अरोगतामदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रतां समाहितायुरष्टभूतिमभ्युपैति सोऽचिरात्॥ अर्थ :- जिन्होंने बडे आनन्द से अपने हाथ में मोदक ले रखे हैं; जो सदा ही मुमुक्षु-जनों की मोक्षाभिलाषा को सिद्ध करनेवाले हैं; चन्द्रमा जिनके भालदेश के भूषण हैं; जो भक्तिभाव से विलासित होनेवाले लोगों के मन को आनन्दित करते हैं; जिनका कोई नायक या स्वामी नहीं है; जो एकमात्र स्वयं ही सबके नायक हैं; जिन्होंने गजासुर का संहार किया है तथा जो नतमस्तक पुरुषों के अशुभ का तत्काल नाश करनेवाले हैं, उन भगवान् विनायक को मैं प्रणाम करता हूँ। जो प्रणत न होनेवाले-उद्दण्ड मनुष्यों के लिये अत्यन्त भयंकर हैं; नवोदित सूर्य के समान अरुण प्रभा से उद्भासित हैं; दैत्य और देवता-सभी जिनके चरणों में शीश झुकाते हैं; जो प्रणत भक्तों का भीषण आपत्तियों से उद्धार करनेवाले हैं, उन सुरेश्वर, निधियों के अधिपति, गजेन्द्रशासक, महेश्वर, परात्पर गणेश्वर का मैं निरन्तर आश्रय ग्रहण करता हूँ। जो समस्त लोकों का कल्याण करनेवाले हैं; जिन्होंने गजाकार दैत्य का विनाश किया है; जो लम्बोदर, श्रेष्ठ, अनिवाशी एवं गजराजवदन हैं; कृपा, क्षमा और आनन्द की निधि हैं; जो यश प्रदान करनेवाले तथा नमनशीलों को मन से सहयोग देनेवाले हैं, उन प्रकाशमान देवता गणेश को मैं प्रणाम करता हूँ। जो अकिंचन-जनों की पीडा दूर करनेवाले तथा चिरंतन उक्ति (वेदवाणी) के भाजन (व‌र्ण्य विषय) हैं; जिन्हें त्रिपुरारि शिव के ज्येष्ठ पुत्र होने का गौरव प्राप्त है; जो देव-शत्रुओं के गर्व को चूर्ण कर देनेवाले हैं; दृश्य-प्रपञ्च का संहार करते समय जिनका रूप भीषण हो जाता है; धनञ्जय आदि नाग जिनके भूषण हैं तथा जो गण्डस्थल से दान की धारा बहानेवाले गजेन्द्ररूप हैं, उन पुरातन गजराज गणेश का मैं भजन करता हूँ। जिनकी दन्तकान्ति नितान्त कमनीय है; जो अन्तक के अन्तक (मृत्युञ्जय) शिव के पुत्र हैं; जिनका रूप अचिन्त्य एवं अनन्त है; जो समस्त विघनें का उच्छेद करनेवाले हैं तथा योगियों के हृदय के भीतर जिनका निरन्तर निवास है, उन एकदन्त गणेश का मैं सदा चिन्तन करता हूँ।
जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल मन-ही-मन गणेश का स्मरण करते हुए इस महागणेश-पञ्चरत्‍‌न का आदरपूर्वक उच्चस्वर से गान करता है, वह शीघ्र ही आरोग्य, निर्दोषता, उत्तम ग्रन्थों एवं सत्पुरुषों का सङ्ग, उत्तम पुत्र, दीर्घ आयु एवं अष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।
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स्त्रोत :- श्रीगणेश पञ्चर स्तोत्र की रचना श्रीशंकराचार्य ने की थी।













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