Tuesday, August 9, 2011

कानों में गुनगुनातीं हैं वो माँ की लोरियाँ।

कानों में गुनगुनातीं हैं वो माँ की लोरियाँ।
बचपन में ले के जाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
लग जाये जो कभी किसी अनजान सी नज़र,
नजरें उतार जाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
भटकें जो राह हमारा कभी अपनों के साथ से,
आके हमें मिलाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
हो ग़मज़दा जो दिल कभी करता है याद जब,
हमको बड़ा हँसाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
अफ़्सुर्दगी कभी हो या तनहाई हो कभी,
अहसास कुछ दिलाती है वो माँ की लोरियाँ।
पलकों पे हाथ फ़ेरके ख़्वाबों में ले गइ,
मीठा-मधुर गाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
दुनिया के ग़म को पी के जो हम आज थक गये,
अमृत हमें पिलाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
माँ ही हमारी राहगीर ज़िंदगी की है,
जीना वही सिखाती है वो माँ की लोरियाँ।
अय “राज़” माँ ही एक है दुनिया में ऐसा नाम,
धड़कन में जो समाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

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