Thursday, December 2, 2010

पलकों पर किसे बिठाऊं मैं ?

 पलकों पर किसे बिठाऊं मैं ?
मैं बोलो किससे प्रेम करूं,
खुद ही पसंद कर ला दो न !
कैसे उससे व्यवहार करूं,
आता हो तो सिखला दो न !
किस तरह भरी जाती आहें,
किस तरह निगाहें मिलती हैं,
किस तरह भ्रमर मंडराते हैं,
तितली किस तरह मचलती है !
ये जान-बूझकर परवाने,
किस तरह शमा पर जलते हैं ?
क्यों मीठी नींद न सोते हैं,
करवट किसलिए बदलते हैं ?
दिल में परदेसी की कैसे
तसवीर उतारी जाती है ?
किस तरह प्रेम के चक्कर में
ये अक्कल मारी जाती है ?
अब किस 'अनदेखी' को बोलो,
सपनों की राह बुलाऊं मैं ?
सालियां भाभियां सब मोटी,
पलकों पर किसे बिठाऊं मैं ?
तुम जरा चली जाओ मैके,
अंदाज विरह का कर लूं मैं,
तारों से परिचय कर लूं मैं,
ठंडी सांसें कुछ भर लूं मैं !
तुम भी दिन में कुछ सो लेना,
जागेंगे रातों-रात प्रिये !
तारे ही तार बनेंगे तब,
कर लेंगे दो-दो बात प्रिये !


मैं तुम्हें लिखूंगा प्रेमपत्र,
तुम देना नहीं जवाब प्रिये !
दिल थोड़ा पत्थर कर लेना,
पहुंचेगा तुम्हें सबाब प्रिये !
फिर मैं चंदा में आंख फाड़
तेरा ही रूप निहारूंगा,
कोई भी आती-जाती हो,
तुझको ही समझ पुकारूंगा ।
कुछ रोऊंगा, कुछ गाऊंगा,
कुछ जीतूंगा, कुछ हारूंगा।
धीरे-धीरे थोड़े दिन में
मैं अपने कपड़े फाडूंगा।
खादी के ये मोटे कपड़े,
फटते हैं तो फट जाने दो,
आलोचक खाए जाते हैं,
मुझको भी अब 'फ़िट' आने दो।
मैं बहुत हंस चुका हूं संगिनि,
मुझको अब इन पर रोने दो,
बनने दो जरा मुझे भारी,
गंभीर मुझे कुछ होने दो !''
तुम इनकी बातों में आए ?
बकने दो इन बजमारों को !
इस प्रेम-व्रेम के चक्कर में
फंसने दो दाढ़ीजारों को !
ये खोटी नीयत वाले हैं,
इनकी सोहबत मत किया करो !
दफ्तर से छुट्टी होते ही
सीधे घर को चल दिया करो।''

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