Tuesday, December 21, 2010

जुस्तजू थी दो पल ज़िन्दगी की,

जुस्तजू थी दो पल ज़िन्दगी की,
ज़िन्दगी को दिल से लगा बैठा
खोज रहा था अपनी पहचान,
आईने को अपना अस्तित्वा बना बैठा
आंखों को मीचे देखा था सूरज को एक दिन,
किरणों को अपना इरादा बना बैठा,
छुप के बादलों से देख रहा था चंदा,
अँधेरी रातों को मैं दुश्मन बना बैठा
नही जाते थे गली के उस मोड़ कभी,
उस मोड़ पर अश्याना बना बैठा,
जिस हवा की ज़रूरत कभी थी होती,
आज उसे चिर मैं ख़ुद की पहचान बना बैठा
आज अपने ही दामान को मैं छोड़,
किसी और के ख्वाब खुदके बना बैठा

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