सूरज हाथ से फिसल गया है आज का दिन भी निकल गया है तेरी सूरत अब भी वही है मेरा चश्मा बदल गया है ज़ेहन अभी मसरूफ़ है घर में जिस्म कमाने निकल गया है क्या सोचें कैसा था निशाना तीर कमां से निकल गया है जाने कैसी भूख थी उसकी सारी बस्ती निगल गया है नाज़िम नक़वी |
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