शामको जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
किसीको घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई,
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में मां आई
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.
है ज़िन्दगी कमीज़ का टूटा हुआ बटन
बिँधती हैं उँगलियाँ भी जिसे टाँकते हुए.
एक जू-ए-दर्द दिल से जिगर तक रवाँ है आज
पिघला हुआ रगों में इक आतिश-फ़िशाँ है आज
कैसे कह दूँ कि मुलाकात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
आ के अब तस्लीम कर लें तू नहीं तो मैं सही
कौन मानेगा के हम में बेवफ़ा कोई नहीं
हमारे ऐब हमें उन्गलियों पे गिनवाओ,
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हरसाल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है, कभी तिरपाल कटता है
दिखाते हैं पड़ौसी मुल्क़ आँखें, तो दिखाने दो
कभी बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है
सरक़े का कोई शेर ग़ज़ल में नहीं रक्खा
हमने किसी लौंडी को महल में नहीं रक्खा
मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
मिट्टी को किसी ताजमहल में नहीं रक्खा
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