एक छोटी सी कहानी--
नौ-लक्खा--1
किसी ने कहा है के औरतों में अमीर ग़रीब, धरम या समझ का कोई भी और फरक नही होता. औरतों को एक दूसरे से जुदा करती है तो सिर्फ़ एक चीज़, सुंदरता, खूबसूरती. सिर्फ़ एक ही रॅंकिंग सिस्टम होता है, सुंदर, आम और बदसूरत.
एक लड़की भले एक झोपड़ी में पैदा हुई हो पर अगर वो बला की खूबसूरत है
और अपनी खूबसूरती का सही इस्तेमाल जानती है तो झोपड़ी से महल तक का सफ़र उसके लिए कोई मुश्किल बात नही.
पर ये बात शायद उसके लिए सही साबित नही हुई. वो बचपन से ही सबसे जुदा थी, बहुत खूबसूरत. इतनी खूबसूरत के प्यार से उसे हर कोई परी कह कर बुलाता था. और यही हाल जवानी में भी रहा. जब वो सड़क पर निकलती तो हर नज़र जैसे बस उसपर ही आकर ठहर जाती.
एक बड़ा सा बंगलो, बहुत सारे नौकर, महेंगी गाड़ियाँ, आलीशान कमरे, मखमली चादरें और पर्दे, बेश-कीमती कपड़े और ज़ेवर और ना जाने इस तरह के उसके कितने और सपने उस दिन टूट कर बिखर गये जब उसकी शादी एक सरकारी दफ़्तर में काम करने वाले बाबू से करा दी गयी. और बचपन से ही एक महेल में जाकर रहने की तैय्यार करने वाली लड़की एक सिंगल बेडरूम फ्लॅट में शिफ्ट हो गयी.
उसकी आदतें और टेस्ट्स बहुत ही सिंपल थे पर इसकी वजह उसकी सादगी नही उसकी ग़रीबी थी. सिंपल और सादी लाइफस्टाइल से ज़्यादा वो कभी एफ्फोर्ड कर ही नही पाई थी और यही ट्रेंड शादी के बाद भी कायम रहा. कभी कभी जब वो अपने पति की तरफ देखती तो ऐसा लगता जैसे उसने अपने स्टॅंडर्ड से नीचे शादी कर ली हो.
शादी के बाद उसकी मजबूरियाँ जैसे और बढ़ गयी थी और ज़िंदगी के हर सहूलत के लिए वो और भी ज़्यादा तरसने लगी थी.
वो अपने घर की ग़रीबी से परेशान थी, बेरंग दीवारों से परेशान थी, बद्रंग
पर्दों से परेशान थी. ये सारी चीज़ें जो शायद जिनसे उसके क्लास यानी सुंदर क्लास की बाकी लड़कियाँ अंजान थी उसको दिन रात सताया करती थी, जैसे उसकी बे-इज़्ज़ती करती थी.
उसके घर में जो 12-15 साल की लड़की काम करने आती थी, उसको देख देख कर उसका दिल जैसे और बैठ जाता था.
उसके ख्वाबों में अब भी अक्सर वो बड़े बड़े बंगलो, आलीशान कमरे, बड़ी बड़ी गाड़ियाँ और बेशक़ीमती कपड़े आते थे. अब भी कभी कभी वो सपनो में अपने महल-नुमा घर के आके बड़े से हरे लॉन में कुर्सियाँ डाले अपने सहेलियों से बातें करती थी.
जब वो उस पुरानी सी टेबल पर जो एक पुराने से कपड़े से ढाकी हुई थी अपने पति के साथ खाने बैठा करती और जब उसका पति सामने पतीले में रखे खाने को देख कर खुश होता और कहता "डाल चावल, वाह. खुश्बू तो बड़ी अच्छी आ रही है" तो उसका दिल करता के टेबल को उठा कर उलट दे. उसकी टेबल पर डाल चावल नही बल्कि अच्छे स्वादिष्ट खाने होने चाहिए थे. सामने स्टील के बर्तन नही बल्कि महेंगी चाँदी के प्लेट चम्मच होने चाहिए थे.
कपड़ो और ज़ेवरों का तो जैसे उसके पास अकाल सा पड़ गया था और बस यही वो चीज़ें थी जिनसे उसे बे-इंतेहाँ मोहब्बत थी. जिनकी उसे दिल-ओ-जान से हसरत थी. उसे लगता था के वो इन्ही चीज़ों के लिए बनी है. हमेशा से उसकी यही ख्वाहिश थी के वो बन ठनकर जहाँ भी जाए, हर किसी के दिल में बस एक उसी की चाहत हो, उसकी की तमन्ना हो.
दिन रात वो अपने ग़रीबी और मजबूरी पर रोना जैसे उसकी ज़िंदगी बन चुका था. मायूसी और बेबसी में वो इस कदर खो गयी थी के अपनी बचपन की दोस्त पल्लवी से भी उसने मिलना जुलना बंद कर दिया था. वजह थी के पल्लवी एक अमीर घर से थी और वो उससे मिलकर उसे ये अपनी ग़रीबी का एहसास नही दिलाना चाहती थी.
फिर एक शाम उसके पति ने ऑफीस से आते ही उसके हाथ में एक बड़ा सा एन्वेलप थमा दिया.
"क्या है ये?" उसने बेदिली से पूछा
"खोलकर देखो" मुस्कुराते हुए उसके पति ने जवाब दिया.
उसने लिफ़ाफ़ा फाड़ कर खोला और अंदर से एक इन्विटेशन कार्ड निकला. सवालिया नज़र से उसने अपने पति की तरफ देखा.
"ऑफीस की तरफ से एक पार्टी रखी जा रही है. हमारी ऑफीस के सब बड़े लोग पार्टी में आएँगे. उसी का इन्विटेशन है"
बजाय खुश होने के, जिसकी उसके पति को बहुत उम्मीद थी, उसने वो इन्विटेशन कार्ड कमरे में रखी टेबल पर पटक दिया.
"तो मैं क्या करूँ इसका?"
"ऐसा क्यूँ कहती हो. मुझे लगा तुम्हें खुशी होगी. तुम कभी कहीं बाहर नही जाती और ये एक बहुत आलीशान पार्टी है. सब बड़े बड़े लोग शामिल होते हैं और ये इन्विटेशन भी सबको नही मिलता. मैने बड़ी मुश्किल से हासिल किया है"
उसने गुस्से भरी नज़र से अपने पति को ऐसे घूरा जैसे अभी उसे खा जाएगी.
"और तुम्हें क्या लगता है के इतनी बड़ी पार्टी में मैं क्या पहेन कर जाऊंगी?"
उसके पति को एकदम जवाब नही सूझा. इस बात की तरफ उसका बिल्कुल ध्यान नही गया था.
"पहेन लो कुच्छ भी" वो हकलाते हुए बोला "काफ़ी सारे कपड़े हैं तो तुम्हारे पास और उनमें से कुच्छ ...."
कहता कहता वो अचानक रुक गया. सामने खड़ी उसकी बीवी अब रो रही थी. बड़ी बड़ी आँखों से मोटे मोटे आँसू बहकर उसके गाल पर लुढ़क रहे थे.
"क्या हुआ?" वो फ़ौरन उसके करीब आता हुआ बोला
जितनी अचानक से उसने रोना शुरू किया था वैसे ही वो अचानक चुप हो गयी और अपने चेहरे से आँसू पोन्छ्ते हुई बोली,
"कुच्छ नही. मेरे पास पहेन्ने के लिए ढंग का कुच्छ भी नही है इसलिए मैं इस पार्टी में नही जा सकती. ये इन्विटेशन अपने किसी दोस्त को दे दो जिसकी बीवी के पास ढंग का एक जोड़ी कपड़ा तो हो"
शकल देख कर ही मालूम होता था के उसकी बात से उसका पति को काफ़ी दुख हुआ था.
"अच्छा दिल छ्होटा मत करो" वो उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला "कितने तक की आ जाएगी एक ड्रेस जो तुम ऐसी पार्टी में पहेन सको?"
वो एक पल के लिए चुप होकर सोचने लगी. उसके दिमाग़ में अलग अलग ब्रांड के कपड़े दौड़ने लगे और वो एक ऐसी कीमत का अंदाज़ा लगाने लगी जो इतनी कम ना हो के वो अपने पसंद का कपड़ा ना ले सके पर इतनी ज़्यादा भी ना हो के उसका पति सुनते ही इनकार कर दे.
"4-5 हज़ार से क्या कम होगा" कुच्छ देर सोचने के बाद वो बोली.
कीमत सुनते ही पतिदेव की आँखें हैरत से फेल गयी और चेहरा सफेद हो चला. एक पल के लिए उसे लगा के वो ज़्यादा कीमत बोल गयी.
"ठीक है. मैं 5 हज़ार देता हूँ. तुम अपने लिए एक अच्छी सी ड्रेस ले आओ"
पार्टी का दिन धीरे धीरे नज़दीक आता जा रहा था और उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. वो अपने लिए अपनी पसंद की एक ड्रेस ले आई थी मगर .....
"क्या बात है?" एक शाम उसके पति ने कहा "देख रहा हूँ के पिच्छले कुच्छ दिन से काफ़ी बेचैन सी हो?"
"मैं पार्टी में नही जा रही?" उसने जवाब दिया
"क्यूँ?"
"एक ढंग की ज्यूयलरी नही है मेरे पास. ज़ेवर के नाम पर पहेन्ने को कुच्छ भी नही"
"तुम्हारी शादी के कुच्छ गहने हैं तो. वही डाल लो"
उसने गुस्से में अपने पति को घूरा.
"मैं पार्टी में जा रही हूँ, फिर से शादी करने नही जा रही"
"तो ऐसे ही चल लो" उसके पति ने धीरे से कहा
"वहाँ कितनी अमीर अमीर औरतें होंगी. उनके बीच तुम्हारी बीवी ऐसे बिना किसी ज़ेवर के अच्छी लगेगी?"
कुच्छ देर के लिए कमरे में खामोशी हो गयी.
"तुम्हारी वो दोस्त है ना" कुच्छ देर बाद उसका पति बोला "पल्लवी जिसके बारे में तुम हमेशा बताती हो. उससे ले आओ एक रात के लिए कुच्छ"
उसके चेहरे पर अचानक खुशी की लहर दौड़ गयी.
"हां ये तो मैने सोचा ही नही था" पल्लवी उसकी काफ़ी करीबी दोस्त थी और वो जानती थी के वो उसे मना नही करेगी.
क्रमशः....................
NAU-LAKKHA--1
Kisi ne kaha hai ke auraton mein ameer gareeb, dharam ya samajh ka koi bhi aur farak nahi hota. Auraton ko ek doosre se juda karti hai toh sirf ek cheez, sundarta, khoobsurati. Sirf ek hi ranking system hota hai, sundar, aam aur badsoorat.
Ek ladki bhale ek jhopdi mein paida hui ho par agar vo bala ki khoobsurat hai
aur apni khoobsurati ka sahi istemaal jaanti hai toh jhopdi se mehal tak ka safar uske liye koi mushkil baat nahi.
Par ye baat shayad uske liye sahi saabit nahi hui. Vo bachpan se hi sabse juda thi, bahut khoobsurat. Itni khoobsurat ke pyaar se use har koi pari keh kar bulata tha. Aur yahi haal jawani mein bhi raha. Jab vo sadak par nikalti toh har nazar jaise bas uspar hi aakar thehar jaati.
Ek bada sa bungalow, bahut saare naukar, mehengi gaadiyan, aalishan kamre, makhmali chadaren aur parde, besh-keemti kapde aur zewar aur na jaane is tarah ke uske kitne aur sapne us din toot kar bikhar gaye jab uski shaadi ek sarkari daftar mein kaam karne wale babu se kara di gayi. Aur bachpan se hi ek mehel mein jakar rehne ki taiyyar karne wali ladki ek single bedroom flat mein shift ho gayi.
Uski aadaten aur tastes bahut hi simple the par iski vajah uski saadgi nahi uski gareebi thi. Simple aur saadi lifestyle se zyada vo kabhi efford kar hi nahi paayi thi aur yahi trend shaadi ke baad bhi kaayam raha. Kabhi kabhi jab vo apne pati ki taraf dekhti toh aisa lagta jaise usne apne standard se neeche shaadi kar li ho.
Shaadi ke baad uski majbooriyan jaise aur badh gayi thi aur zindagi ke har sahoolat ke liye vo aur bhi zyada tarasne lagi thi.
Vo apne ghar ki gareebi se pareshan thi, berang deewaron se pareshan thi, badrang
pardon se pareshan thi. Ye saari cheezen jo shayad jinse uske class yaani sundar class ki baaki ladkiyan anjaan thi usko din raat sataya karti thi, jaise uski be-izzati karti thi.
Uske ghar mein jo 12-15 saal ki ladki kaam karne aati thi, usko dekh dekh kar uska dil jaise aur beth jata tha.
Uske khwabon mein ab bhi aksar vo bade bade bungalow, aalishan kamre, badi badi gaayian aur beshkeemti kapde aate the. Ab bhi kabhi kabhi vo sapno mein apne mehal-numa ghar ke aake bade se hare lawn mein kursiyan daale apne saheliyon se baaten karti thi.
Jab vo us purani si table par jo ek purane se kapde se dhaki hui thi apne pati ke saath khaane betha karti aur jab uska pati saamne pateele mein rakhe khaane ko dekh kar khush hota aur kehta "Daal Chawal, vaah. Khushbu toh badi achhi aa rahi hai" toh uska dil karta ke table ko utha kar ulat de. Uski table par daal chawal nahi balki achhe swadisht khaane hone chahiye the. Saamne steel ke bartan nahi balki mehengi chaandi ke plate chammach hone chahiye the.
Kapdo aur zewaron ka toh jaise uske paas akaal sa pad gaya tha aur bas yahi vo cheezen thi jinse use be-intehan mohabbat thi. Jinki use dil-o-jaan se hasrat thi. Use lagta tha ke vo inhi cheezon ke liye bani hai. Hamesha se uski yahi khwahish thi ke vo ban thankar jahan bhi jaaye, har kisi ke dil mein bas ek usi ki chahat ho, uski ki tamanna ho.
Din raat vo apne gareebi aur majboori par rona jaise uski zindagi ban chuka tha. Mayusi aur bebasi mein vo is kadar kho gayi thi ke apni bachpan ki dost Pallavi se bhi usne milna julna band kar diya tha. Vajah thi ke Pallavi ek ameer ghar se thi aur vo usse milkar use ye apni gareebi ka ehsaas nahi dilana chahti thi.
Phir ek shaam uske pati ne office se aate hi uske haath mein ek bada sa envelope thama diya.
"Kya hai ye?" Usne bedili se puchha
"Kholkar dekho" Muskurate hue uske pati ne jawab diya.
Usne lifafa phaad kar khola aur andar se ek invitation card nikla. Sawaliya nazar se usne apne pati ki taraf dekha.
"Office ki taraf se ek party rakhi ja rahi hai. Hamari office ke sab bade log party mein aayenge. Usi ka invitation hai"
Bajay khush hone ke, jiski uske pati ko bahut ummeed thi, usne vo invitation card kamre mein rakhi table par patak diya.
"Toh main kya karun iska?"
"Aisa kyun kehti ho. Mujhe laga tumhein khushi hogi. Tum kabhi kahin bahar nahi jaati aur ye ek bahut aalishan party hai. Sab bade bade log shaamil hote hain aur ye invitation bhi sabko nahi milta. Maine badi mushkil se haasil kiya hai"
Usne gusse bhari nazar se apne pati ko aise ghoora jaise abhi use kha jaayegi.
"Aur tumhein kya lagta hai ke itni badi party mein main kya pehenkar jaoongi?"
Uske pati ko ekdam jawab nahi soojha. Is baat ki taraf uska bilkul dhyaan nahi gaya tha.
"Pehen lo kuchh bhi" Vo haklate hue bola "Kaafi saare kapde hain toh tumhare paas aur unmein se kuchh ...."
Kehta kehta vo achanak ruk gaya. Saamne khadi uski biwi ab ro rahi thi. Badi badi aankhon se mote mote aansoo behkar uske gaal par ludhak rahe the.
"Kya hua?" Vo fauran uske kareeb aata hua bola
Jitni achanak se usne rona shuru kiya tha vaise hi vo achanak chup ho gayi aur apne chehre se aansoo ponchhte hui boli,
"Kuchh nahi. Mere paas pehenne ke liye dhang ka kuchh bhi nahi hai isli main is party mein nahi ja sakti. Ye invitation apne kisi dost ko de do jiski biwi ke paas dhang ka ek jodi kapda toh ho"
Shakal dekh kar hi maalum hota tha ke uski baat se uska pati ko kaafi dukh hua tha.
"Achha dil chhota mat karo" Vo uska haath pakadta hua bola "Kitne tak ki aa jaayegi ek dress jo tum aisi party mein pehen sako?"
Vo ek pal ke liye chup hokar sochne lagi. Uske dimag mein alag alag brand ke kapde daudne lage aur vo ek aisi keemat ka andaza lagane lagi jo itni kam na ho ke vo apne pasand ka kapda na le sake par itni zyada bhi na ho ke uska pati sunte hi inkaar kar de.
"4-5 hazar se kya kam hoga" Kuchh der sochne ke baad vo boli.
Keemat sunte hi patidev ki aankhen hairat se phel gayi aur chehra safed ho chala. Ek pal ke liye use laga ke vo zyada keemat bol gayi.
"Theek hai. Main 5 hazar deta hoon. Tum apne liye ek achhi si dress le aao"
Party ka din dheere dheere nazdeek aata ja raha tha aur uski bechaini badhti ja rahi thi. Vo apne liye apni pasand ki ek dress le aayi thi magar .....
"Kya baat hai?" Ek shaam uske pati ne kaha "Dekh raha hoon ke pichhle kuchh din se kaafi bechain si ho?"
"Main party mein nahi ja rahi?" Usne jawab diya
"Kyun?"
"Ek dhang ki jewellery nahi hai mere paas. Zewar ke naam par pehenne ko kuchh bhi nahi"
"Tumhari shaadi ke kuchh gehne hain toh. Vahi daal lo"
Usne gusse mein apne pati ko ghoora.
"Main party mein ja rahi hoon, phir se shaadi karne nahi ja rahi"
"Toh aise hi chal lo" Uske pati ne dheere se kaha
"Vahan kitni ameer ameer auraten hongi. Unke beech tumhari biwi aise bina kisi zewar ke achhi lagegi?"
Kuchh der ke liye kamre mein khamoshi ho gayi.
"Tumhari vo dost hai na" Kuchh der baad uska pati bola "Pallavi jiske baare mein tum hamesha batati ho. Usse le aao ek raat ke liye kuchh"
Uske chehre par achanak khushi ki lehar daud gayi.
"Haan ye toh maine socha hi nahi tha" Pallavi uski kaafi kareebi dost thi aur vo jaanti thi ke vo use mana nahi karegi.
kramashah....................
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नौ-लक्खा--1
किसी ने कहा है के औरतों में अमीर ग़रीब, धरम या समझ का कोई भी और फरक नही होता. औरतों को एक दूसरे से जुदा करती है तो सिर्फ़ एक चीज़, सुंदरता, खूबसूरती. सिर्फ़ एक ही रॅंकिंग सिस्टम होता है, सुंदर, आम और बदसूरत.
एक लड़की भले एक झोपड़ी में पैदा हुई हो पर अगर वो बला की खूबसूरत है
और अपनी खूबसूरती का सही इस्तेमाल जानती है तो झोपड़ी से महल तक का सफ़र उसके लिए कोई मुश्किल बात नही.
पर ये बात शायद उसके लिए सही साबित नही हुई. वो बचपन से ही सबसे जुदा थी, बहुत खूबसूरत. इतनी खूबसूरत के प्यार से उसे हर कोई परी कह कर बुलाता था. और यही हाल जवानी में भी रहा. जब वो सड़क पर निकलती तो हर नज़र जैसे बस उसपर ही आकर ठहर जाती.
एक बड़ा सा बंगलो, बहुत सारे नौकर, महेंगी गाड़ियाँ, आलीशान कमरे, मखमली चादरें और पर्दे, बेश-कीमती कपड़े और ज़ेवर और ना जाने इस तरह के उसके कितने और सपने उस दिन टूट कर बिखर गये जब उसकी शादी एक सरकारी दफ़्तर में काम करने वाले बाबू से करा दी गयी. और बचपन से ही एक महेल में जाकर रहने की तैय्यार करने वाली लड़की एक सिंगल बेडरूम फ्लॅट में शिफ्ट हो गयी.
उसकी आदतें और टेस्ट्स बहुत ही सिंपल थे पर इसकी वजह उसकी सादगी नही उसकी ग़रीबी थी. सिंपल और सादी लाइफस्टाइल से ज़्यादा वो कभी एफ्फोर्ड कर ही नही पाई थी और यही ट्रेंड शादी के बाद भी कायम रहा. कभी कभी जब वो अपने पति की तरफ देखती तो ऐसा लगता जैसे उसने अपने स्टॅंडर्ड से नीचे शादी कर ली हो.
शादी के बाद उसकी मजबूरियाँ जैसे और बढ़ गयी थी और ज़िंदगी के हर सहूलत के लिए वो और भी ज़्यादा तरसने लगी थी.
वो अपने घर की ग़रीबी से परेशान थी, बेरंग दीवारों से परेशान थी, बद्रंग
पर्दों से परेशान थी. ये सारी चीज़ें जो शायद जिनसे उसके क्लास यानी सुंदर क्लास की बाकी लड़कियाँ अंजान थी उसको दिन रात सताया करती थी, जैसे उसकी बे-इज़्ज़ती करती थी.
उसके घर में जो 12-15 साल की लड़की काम करने आती थी, उसको देख देख कर उसका दिल जैसे और बैठ जाता था.
उसके ख्वाबों में अब भी अक्सर वो बड़े बड़े बंगलो, आलीशान कमरे, बड़ी बड़ी गाड़ियाँ और बेशक़ीमती कपड़े आते थे. अब भी कभी कभी वो सपनो में अपने महल-नुमा घर के आके बड़े से हरे लॉन में कुर्सियाँ डाले अपने सहेलियों से बातें करती थी.
जब वो उस पुरानी सी टेबल पर जो एक पुराने से कपड़े से ढाकी हुई थी अपने पति के साथ खाने बैठा करती और जब उसका पति सामने पतीले में रखे खाने को देख कर खुश होता और कहता "डाल चावल, वाह. खुश्बू तो बड़ी अच्छी आ रही है" तो उसका दिल करता के टेबल को उठा कर उलट दे. उसकी टेबल पर डाल चावल नही बल्कि अच्छे स्वादिष्ट खाने होने चाहिए थे. सामने स्टील के बर्तन नही बल्कि महेंगी चाँदी के प्लेट चम्मच होने चाहिए थे.
कपड़ो और ज़ेवरों का तो जैसे उसके पास अकाल सा पड़ गया था और बस यही वो चीज़ें थी जिनसे उसे बे-इंतेहाँ मोहब्बत थी. जिनकी उसे दिल-ओ-जान से हसरत थी. उसे लगता था के वो इन्ही चीज़ों के लिए बनी है. हमेशा से उसकी यही ख्वाहिश थी के वो बन ठनकर जहाँ भी जाए, हर किसी के दिल में बस एक उसी की चाहत हो, उसकी की तमन्ना हो.
दिन रात वो अपने ग़रीबी और मजबूरी पर रोना जैसे उसकी ज़िंदगी बन चुका था. मायूसी और बेबसी में वो इस कदर खो गयी थी के अपनी बचपन की दोस्त पल्लवी से भी उसने मिलना जुलना बंद कर दिया था. वजह थी के पल्लवी एक अमीर घर से थी और वो उससे मिलकर उसे ये अपनी ग़रीबी का एहसास नही दिलाना चाहती थी.
फिर एक शाम उसके पति ने ऑफीस से आते ही उसके हाथ में एक बड़ा सा एन्वेलप थमा दिया.
"क्या है ये?" उसने बेदिली से पूछा
"खोलकर देखो" मुस्कुराते हुए उसके पति ने जवाब दिया.
उसने लिफ़ाफ़ा फाड़ कर खोला और अंदर से एक इन्विटेशन कार्ड निकला. सवालिया नज़र से उसने अपने पति की तरफ देखा.
"ऑफीस की तरफ से एक पार्टी रखी जा रही है. हमारी ऑफीस के सब बड़े लोग पार्टी में आएँगे. उसी का इन्विटेशन है"
बजाय खुश होने के, जिसकी उसके पति को बहुत उम्मीद थी, उसने वो इन्विटेशन कार्ड कमरे में रखी टेबल पर पटक दिया.
"तो मैं क्या करूँ इसका?"
"ऐसा क्यूँ कहती हो. मुझे लगा तुम्हें खुशी होगी. तुम कभी कहीं बाहर नही जाती और ये एक बहुत आलीशान पार्टी है. सब बड़े बड़े लोग शामिल होते हैं और ये इन्विटेशन भी सबको नही मिलता. मैने बड़ी मुश्किल से हासिल किया है"
उसने गुस्से भरी नज़र से अपने पति को ऐसे घूरा जैसे अभी उसे खा जाएगी.
"और तुम्हें क्या लगता है के इतनी बड़ी पार्टी में मैं क्या पहेन कर जाऊंगी?"
उसके पति को एकदम जवाब नही सूझा. इस बात की तरफ उसका बिल्कुल ध्यान नही गया था.
"पहेन लो कुच्छ भी" वो हकलाते हुए बोला "काफ़ी सारे कपड़े हैं तो तुम्हारे पास और उनमें से कुच्छ ...."
कहता कहता वो अचानक रुक गया. सामने खड़ी उसकी बीवी अब रो रही थी. बड़ी बड़ी आँखों से मोटे मोटे आँसू बहकर उसके गाल पर लुढ़क रहे थे.
"क्या हुआ?" वो फ़ौरन उसके करीब आता हुआ बोला
जितनी अचानक से उसने रोना शुरू किया था वैसे ही वो अचानक चुप हो गयी और अपने चेहरे से आँसू पोन्छ्ते हुई बोली,
"कुच्छ नही. मेरे पास पहेन्ने के लिए ढंग का कुच्छ भी नही है इसलिए मैं इस पार्टी में नही जा सकती. ये इन्विटेशन अपने किसी दोस्त को दे दो जिसकी बीवी के पास ढंग का एक जोड़ी कपड़ा तो हो"
शकल देख कर ही मालूम होता था के उसकी बात से उसका पति को काफ़ी दुख हुआ था.
"अच्छा दिल छ्होटा मत करो" वो उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला "कितने तक की आ जाएगी एक ड्रेस जो तुम ऐसी पार्टी में पहेन सको?"
वो एक पल के लिए चुप होकर सोचने लगी. उसके दिमाग़ में अलग अलग ब्रांड के कपड़े दौड़ने लगे और वो एक ऐसी कीमत का अंदाज़ा लगाने लगी जो इतनी कम ना हो के वो अपने पसंद का कपड़ा ना ले सके पर इतनी ज़्यादा भी ना हो के उसका पति सुनते ही इनकार कर दे.
"4-5 हज़ार से क्या कम होगा" कुच्छ देर सोचने के बाद वो बोली.
कीमत सुनते ही पतिदेव की आँखें हैरत से फेल गयी और चेहरा सफेद हो चला. एक पल के लिए उसे लगा के वो ज़्यादा कीमत बोल गयी.
"ठीक है. मैं 5 हज़ार देता हूँ. तुम अपने लिए एक अच्छी सी ड्रेस ले आओ"
पार्टी का दिन धीरे धीरे नज़दीक आता जा रहा था और उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. वो अपने लिए अपनी पसंद की एक ड्रेस ले आई थी मगर .....
"क्या बात है?" एक शाम उसके पति ने कहा "देख रहा हूँ के पिच्छले कुच्छ दिन से काफ़ी बेचैन सी हो?"
"मैं पार्टी में नही जा रही?" उसने जवाब दिया
"क्यूँ?"
"एक ढंग की ज्यूयलरी नही है मेरे पास. ज़ेवर के नाम पर पहेन्ने को कुच्छ भी नही"
"तुम्हारी शादी के कुच्छ गहने हैं तो. वही डाल लो"
उसने गुस्से में अपने पति को घूरा.
"मैं पार्टी में जा रही हूँ, फिर से शादी करने नही जा रही"
"तो ऐसे ही चल लो" उसके पति ने धीरे से कहा
"वहाँ कितनी अमीर अमीर औरतें होंगी. उनके बीच तुम्हारी बीवी ऐसे बिना किसी ज़ेवर के अच्छी लगेगी?"
कुच्छ देर के लिए कमरे में खामोशी हो गयी.
"तुम्हारी वो दोस्त है ना" कुच्छ देर बाद उसका पति बोला "पल्लवी जिसके बारे में तुम हमेशा बताती हो. उससे ले आओ एक रात के लिए कुच्छ"
उसके चेहरे पर अचानक खुशी की लहर दौड़ गयी.
"हां ये तो मैने सोचा ही नही था" पल्लवी उसकी काफ़ी करीबी दोस्त थी और वो जानती थी के वो उसे मना नही करेगी.
क्रमशः....................
NAU-LAKKHA--1
Kisi ne kaha hai ke auraton mein ameer gareeb, dharam ya samajh ka koi bhi aur farak nahi hota. Auraton ko ek doosre se juda karti hai toh sirf ek cheez, sundarta, khoobsurati. Sirf ek hi ranking system hota hai, sundar, aam aur badsoorat.
Ek ladki bhale ek jhopdi mein paida hui ho par agar vo bala ki khoobsurat hai
aur apni khoobsurati ka sahi istemaal jaanti hai toh jhopdi se mehal tak ka safar uske liye koi mushkil baat nahi.
Par ye baat shayad uske liye sahi saabit nahi hui. Vo bachpan se hi sabse juda thi, bahut khoobsurat. Itni khoobsurat ke pyaar se use har koi pari keh kar bulata tha. Aur yahi haal jawani mein bhi raha. Jab vo sadak par nikalti toh har nazar jaise bas uspar hi aakar thehar jaati.
Ek bada sa bungalow, bahut saare naukar, mehengi gaadiyan, aalishan kamre, makhmali chadaren aur parde, besh-keemti kapde aur zewar aur na jaane is tarah ke uske kitne aur sapne us din toot kar bikhar gaye jab uski shaadi ek sarkari daftar mein kaam karne wale babu se kara di gayi. Aur bachpan se hi ek mehel mein jakar rehne ki taiyyar karne wali ladki ek single bedroom flat mein shift ho gayi.
Uski aadaten aur tastes bahut hi simple the par iski vajah uski saadgi nahi uski gareebi thi. Simple aur saadi lifestyle se zyada vo kabhi efford kar hi nahi paayi thi aur yahi trend shaadi ke baad bhi kaayam raha. Kabhi kabhi jab vo apne pati ki taraf dekhti toh aisa lagta jaise usne apne standard se neeche shaadi kar li ho.
Shaadi ke baad uski majbooriyan jaise aur badh gayi thi aur zindagi ke har sahoolat ke liye vo aur bhi zyada tarasne lagi thi.
Vo apne ghar ki gareebi se pareshan thi, berang deewaron se pareshan thi, badrang
pardon se pareshan thi. Ye saari cheezen jo shayad jinse uske class yaani sundar class ki baaki ladkiyan anjaan thi usko din raat sataya karti thi, jaise uski be-izzati karti thi.
Uske ghar mein jo 12-15 saal ki ladki kaam karne aati thi, usko dekh dekh kar uska dil jaise aur beth jata tha.
Uske khwabon mein ab bhi aksar vo bade bade bungalow, aalishan kamre, badi badi gaayian aur beshkeemti kapde aate the. Ab bhi kabhi kabhi vo sapno mein apne mehal-numa ghar ke aake bade se hare lawn mein kursiyan daale apne saheliyon se baaten karti thi.
Jab vo us purani si table par jo ek purane se kapde se dhaki hui thi apne pati ke saath khaane betha karti aur jab uska pati saamne pateele mein rakhe khaane ko dekh kar khush hota aur kehta "Daal Chawal, vaah. Khushbu toh badi achhi aa rahi hai" toh uska dil karta ke table ko utha kar ulat de. Uski table par daal chawal nahi balki achhe swadisht khaane hone chahiye the. Saamne steel ke bartan nahi balki mehengi chaandi ke plate chammach hone chahiye the.
Kapdo aur zewaron ka toh jaise uske paas akaal sa pad gaya tha aur bas yahi vo cheezen thi jinse use be-intehan mohabbat thi. Jinki use dil-o-jaan se hasrat thi. Use lagta tha ke vo inhi cheezon ke liye bani hai. Hamesha se uski yahi khwahish thi ke vo ban thankar jahan bhi jaaye, har kisi ke dil mein bas ek usi ki chahat ho, uski ki tamanna ho.
Din raat vo apne gareebi aur majboori par rona jaise uski zindagi ban chuka tha. Mayusi aur bebasi mein vo is kadar kho gayi thi ke apni bachpan ki dost Pallavi se bhi usne milna julna band kar diya tha. Vajah thi ke Pallavi ek ameer ghar se thi aur vo usse milkar use ye apni gareebi ka ehsaas nahi dilana chahti thi.
Phir ek shaam uske pati ne office se aate hi uske haath mein ek bada sa envelope thama diya.
"Kya hai ye?" Usne bedili se puchha
"Kholkar dekho" Muskurate hue uske pati ne jawab diya.
Usne lifafa phaad kar khola aur andar se ek invitation card nikla. Sawaliya nazar se usne apne pati ki taraf dekha.
"Office ki taraf se ek party rakhi ja rahi hai. Hamari office ke sab bade log party mein aayenge. Usi ka invitation hai"
Bajay khush hone ke, jiski uske pati ko bahut ummeed thi, usne vo invitation card kamre mein rakhi table par patak diya.
"Toh main kya karun iska?"
"Aisa kyun kehti ho. Mujhe laga tumhein khushi hogi. Tum kabhi kahin bahar nahi jaati aur ye ek bahut aalishan party hai. Sab bade bade log shaamil hote hain aur ye invitation bhi sabko nahi milta. Maine badi mushkil se haasil kiya hai"
Usne gusse bhari nazar se apne pati ko aise ghoora jaise abhi use kha jaayegi.
"Aur tumhein kya lagta hai ke itni badi party mein main kya pehenkar jaoongi?"
Uske pati ko ekdam jawab nahi soojha. Is baat ki taraf uska bilkul dhyaan nahi gaya tha.
"Pehen lo kuchh bhi" Vo haklate hue bola "Kaafi saare kapde hain toh tumhare paas aur unmein se kuchh ...."
Kehta kehta vo achanak ruk gaya. Saamne khadi uski biwi ab ro rahi thi. Badi badi aankhon se mote mote aansoo behkar uske gaal par ludhak rahe the.
"Kya hua?" Vo fauran uske kareeb aata hua bola
Jitni achanak se usne rona shuru kiya tha vaise hi vo achanak chup ho gayi aur apne chehre se aansoo ponchhte hui boli,
"Kuchh nahi. Mere paas pehenne ke liye dhang ka kuchh bhi nahi hai isli main is party mein nahi ja sakti. Ye invitation apne kisi dost ko de do jiski biwi ke paas dhang ka ek jodi kapda toh ho"
Shakal dekh kar hi maalum hota tha ke uski baat se uska pati ko kaafi dukh hua tha.
"Achha dil chhota mat karo" Vo uska haath pakadta hua bola "Kitne tak ki aa jaayegi ek dress jo tum aisi party mein pehen sako?"
Vo ek pal ke liye chup hokar sochne lagi. Uske dimag mein alag alag brand ke kapde daudne lage aur vo ek aisi keemat ka andaza lagane lagi jo itni kam na ho ke vo apne pasand ka kapda na le sake par itni zyada bhi na ho ke uska pati sunte hi inkaar kar de.
"4-5 hazar se kya kam hoga" Kuchh der sochne ke baad vo boli.
Keemat sunte hi patidev ki aankhen hairat se phel gayi aur chehra safed ho chala. Ek pal ke liye use laga ke vo zyada keemat bol gayi.
"Theek hai. Main 5 hazar deta hoon. Tum apne liye ek achhi si dress le aao"
Party ka din dheere dheere nazdeek aata ja raha tha aur uski bechaini badhti ja rahi thi. Vo apne liye apni pasand ki ek dress le aayi thi magar .....
"Kya baat hai?" Ek shaam uske pati ne kaha "Dekh raha hoon ke pichhle kuchh din se kaafi bechain si ho?"
"Main party mein nahi ja rahi?" Usne jawab diya
"Kyun?"
"Ek dhang ki jewellery nahi hai mere paas. Zewar ke naam par pehenne ko kuchh bhi nahi"
"Tumhari shaadi ke kuchh gehne hain toh. Vahi daal lo"
Usne gusse mein apne pati ko ghoora.
"Main party mein ja rahi hoon, phir se shaadi karne nahi ja rahi"
"Toh aise hi chal lo" Uske pati ne dheere se kaha
"Vahan kitni ameer ameer auraten hongi. Unke beech tumhari biwi aise bina kisi zewar ke achhi lagegi?"
Kuchh der ke liye kamre mein khamoshi ho gayi.
"Tumhari vo dost hai na" Kuchh der baad uska pati bola "Pallavi jiske baare mein tum hamesha batati ho. Usse le aao ek raat ke liye kuchh"
Uske chehre par achanak khushi ki lehar daud gayi.
"Haan ye toh maine socha hi nahi tha" Pallavi uski kaafi kareebi dost thi aur vo jaanti thi ke vo use mana nahi karegi.
kramashah....................
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