क्यों दौड रहा है किसी परछाइ के पीछे?
आगे तो ज़रा देख वो छाया तो नहीं है?
इतना तो न बन अँध, ओ नादान मुसाफिर !
क्या है ये हक़िकत या कि माया तो नहि है?
जिसको तु समज़ता है हमेंशा से ही अपना।
तेरा ही है या और-पराया तो नहिं है?
जुगनु की चमक देख के खिंचता चला है तु,
ये तुज़को दिखाने को सजाया तो नहिं है?
सहेरा में कहीं बहता है पानी अरे “राज ” !
धोख़ा है समज़ ये तो बहाया ही नहिं है?
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