ज़ाम जब पी ही लिया है तो सँभलना कैसा?
समंदर सामने है फ़िर अपना तरसना कैसा?
ख़ुलके जी लेते है वों फ़ुल भी कुछ पल के लिये।
हम भी जी लें ये बहारों में सिमटना कैसा?
ख़ुदको चट्टान की मजबूती से तोला था कभी !
तो क्यों ये मोम बने तेरा पिघलना कैसा?
सामने राह खुली है तो चलो मंजिल तक।
कारवाँ बनके बया बाँ में भटकना कैसा?
न कोइ भूल ना गुनाह हुवा है तुज़से,
देखकर आईना तेरा ये लरजना कैसा?
दस्तखत कोइ नहिं जिंदगी के पन्नों पर।
”राज़” दिल ये तो बता तेरा धड़कना कैसा?
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