Wednesday, March 2, 2011

अंगड़ाईयों ने आज फिर पुकारा है

जिस्म में ज़न्नत का नज़ारा है
अंगड़ाईयों ने आज फिर पुकारा है
 
निगाहों में वही डोरे, वही आलम
शाम की ज़ुल्फों में चॉद का सहारा है
 
पर्त दर पर्त उतरती है ज़िस्म से चादर
रेशे-रेशे को निगाहों ने क्या सँवारा है
 
कहीं पर फूल, कहीं शबनम, कही झील
बड़े फुरसत से ज़न्नत को उतारा है
 
पलक हिलती नहीं हिल गया जिस्म मेरा
अब कहीं और नहीं यही तो किनारा है.
 

 
Jism me jannat ka nazara hai
Angdayiyon ne aaj fir pukara hai
 
Nigahon me wahi dore wahi aalam
Sham ki julfon me chand ka sahara hai
 
Part dar part utarti hai jism se chadar
Reshe-reshe ko nigahon ne kya sanwara hai
 
Kahin per phool, kahin shabnam, kahin jheel
Bade fursat se jannat ko utara hai
 
Palak hilati nahin hil gaya jism mera
Ab kahin aur nahin yahi to kinara hai.

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