Saturday, January 14, 2012

एक कहानी ख़ौफ़--पार्ट-3

  एक कहानी ख़ौफ़--पार्ट-3



गतान्क से आगे...........

वो मुझे क्यूँ नही कुच्छ कह या कर रहा था, ये समझ नही आ रहा था.


और फिर जैसे एक एक पल भारी पड़ने लगा. हर लम्हा जैसे एक सदी के समान हो गया. शदीद डर, असीमित ख़ौफ्फ, इनटेन्स फियर का ये मेरा पहला मौका था और जैसे मेरा दिमाग़ शॉर्ट सर्क्यूट सा कर गया था. कोई भी सोच, कोई भी विचार, कोई भी थॉट प्रोसेस सॉफ नही था. जैसे मेरा दिमाग़ अचानक एक साथ हर दिशा में भागने की कोशिश कर रहा था.


गला सूखने लगा था और मुझे फिर पेशाब आने लगा था.


ओह नो !!!! आइ नीड टू गो टू दा बाथरूम, अगेन .......

ये ख्याल आते ही मैने अपने पेट को अंदर की तरफ खींचा और अपने टांगे सिकोड कर अपने आप पर काबू पाया.


और फिर आई कुच्छ घिसटने की आवाज़. बाहर ड्रॉयिंग रूम में किसी चीज़ को घसीटा जा रहा था. मेरी आँखें अब भी बंद थी और मुझे समझ नही आ रहा था के क्या करूँ. क्या आँखें खोल कर देखूं? पर अगर उसने देख लिया तो?


दिल ही दिल में मैं कहीं जानता था के देर सवेर वो लम्हा आएगा जब मुझे उस अंजान का सामना करना पड़ेगा. जब मेरा सोने का नाटक ख़तम होता और मेरा साथ जो होना है वो होगा. पर यूँ सोने का नाटक करते हुए शायद मैं उस पल को टाल रहा था. या ये उम्मीद कर रहा था के क्यूंकी मैं सो रहा हूँ तो मुझे छ्चोड़ दिया जाएगा.

क्यूंकी मैं तो सो रहा था, मैने तो कुच्छ देखा ही नही.


ठीक उस चिड़िया की तरह जो नीचे मिट्टी में अपना सर च्छूपा कर ये उम्मीद करती है के कोई उसे नही देख रहा.


मैं भी यूँ आँखें बंद किए उस अंधेरे में पड़ा पड़ा ये उम्मीद कर रहा था के मुझे अनदेखा कर दिया जाएगा.


अंधेरा.


और फिर मुझे ख्याल आया के कमरे में जिस जगह मेरा बिस्तर है वहाँ तो बिल्कुल अंधेरा है. तो अगर मैं अपनी आँखें ज़रा सी खोल लूँ तो बाहर से किसी को दिखाई नही देगा के मैं जाग रहा हूँ. और अपने दिल को ऐसी ही हज़ारों दिलसाएँ देते हुए मैने ज़रा सी अपनी आँख खोली.


वो दरवाज़े पर सामने ही खड़ा था. नाइट बल्ब की हल्की हल्की रोशनी उस पर पड़ रही थी और एक पल के लिए तो मुझे समझ ही नही आया के मैं देख क्या रहा हूँ. सही में कुच्छ देख रहा हूँ या मेरा दिमाग़ मुझे धोखा दे रहा है.


वो इंसान नही था. हां इंसान जैसा था पर इंसान नही था, हो ही नही सकता था. सबसे पहली चीज़ जिसपर मेरा ध्यान गया वो ये थी के उसके जिस्म पर कोई कपड़ा नही था. वो सर से पावं तक पूरा नंगा था. गंजा था.


नही असल में उसके पूरे शरीर पर ही बॉल नही थे. सर से पावं तक कहीं कोई बाल नही. सिर्फ़ चमड़ी जो लाल रंग की रोशनी में लाल ही लग रही थी. वो कद में मेरे से काफ़ी लंबा था पर बहुत झुक कर चल रहा था जिसकी वजह से मेरे बराबर ही चल रहा था.


और फिर मुझे उसके झुके होने की वजह दिखाई दी. वो कुबड़ा था. वो कमर से थोड़ा मुड़ा हुआ था और किसी ऊँट, कॅमल, की तरह उसकी कंधो के नीचे कमर कर एक गुंबद जैसा कुच्छ उठा हुआ था.


और एक ख़ास बात. उसकी हाथ काफ़ी बड़े बड़े थे जिनमें पकड़े वो कुच्छ घसीट कर मेरे कमरे में ला रहा था.


वो कुच्छ मेरे माँ बाप थे जिनके हाथ अपने हाथों में पकड़ कर वो घसीट रहा था. मेरे मोम डॅड दोनो ही उमर के हिसाब से काफ़ी मोटे थे, ख़ास तौर पर मेरी मम्मी, पर फिर भी वो बिना किसी तकलीफ़ के बड़े आराम से दोनो के हाथों को पकड़ कर ऐसे घसीट रहा था जैसे वो रबड़ के गुड्डे हों.


उन दोनो को धीरे धीरे घसीट कर वो मेरे कमरे में ले आया, मैं अब भी अपनी आँखें हल्की सी खोले हुए पड़ा था. मेरी आँखें अब अंधेरे की आदि हो गयी थी इसलिए कमरे की हल्की रोशनी में मुझे थोड़ा बेहतर दिखाई देना लगा था.


मैं अब भी समझ नही पा रहा था के वो इंसान था या नही या वो क्या करना चाह रहा था.

मेरी माँ को उसने कमरे के बीच लाकर वहीं छ्चोड़ दिया. उन दोनो के शरीर से अब भी खून बह रहा था और घसीटने के लाल रंग के निशान दरवाज़े पर सॉफ बने हुए थे. मेरी माँ को कमरे के बीच छ्चोड़ उसने मेरे डॅड को दोनो हाथों से पकड़ कर उठाया और मेरे बेड के नज़दीक घसीटा.


मैं इस कदर डर चुका था के मेरी इतनी भी हिम्मत नही पड़ी के अपनी आँखें बंद कर लूँ. किसी पुतले की तरह अपनी जगह पड़ा मैं बस चुप चाप देख रहा था.


मैं समझ नही पा रहा था के मेरे पापा ज़िंदा हैं या मर गये. उनके आँखें पूरी तरह खुली हुई थी पर क्या उन आँखों में ज़िंदगी बाकी थी या नही, ये एक बहुत बड़ा सवाल था.


वो मेरे पापा को खींच कर मेरे बिस्तर के करीब मेरे पैरों के पास लाया और उनको मेरे बेड के सहारे बैठा दिया.


वो कुच्छ इस तरह से बैठे थे के उनकी थोड़ी, चिन, मेरे बिस्तर के उपेर टिकी हुई थी और पूरा शरीर नीचे. एक पल को देख कर ऐसा लगता था जैसे वो थोड़ी बिस्तर पर टिकाए मुझे देखते हुए मुझसे बहुत ज़रूरी बात कर रहे हों.


फिर वो मेरी माँ के करीब गया और उनको उठाकर मेरे कमरे में रखी कुर्सी पर बैठा दिया. कुर्सी का रुख़ भी मेरी तरफ था और ऐसा लगता था जैसे माँ कुर्सी पर दोनो पावं उपेर किए बैठी मेरी तरफ देख रही हो, मुझसे बहुत ज़रूरी बात कर रही हो. उनकी भी दोनो आँखें खुली हुई थी पर ज़िंदा या मुर्दा, ये कह पाना मुश्किल था.


कमरे की सेट्टिंग ऐसी थी जैसे मैं बिस्तर पर लेटा हूँ, बिस्तर के पास नीचे पापा बैठे मेरी तरफ देख रहे हो और माँ कुर्सी पर बैठी हम दोनो की तरफ देख रही हो.जैसे एक फॅमिली साथ बैठी कुच्छ बात कर रही हो.


वो कमरे की दीवार के पास खड़ा था जैसे कमरे की सेट्टिंग का जायज़ा ले रहा हो. जैसे कोई पेंटर अपनी पैंटिंग बनाने के बाद कुच्छ दूर खड़ा ये सोच रहा हो के पैंटिंग कैसी बनी. ठीक बनी या ग़लत? अच्छी बनी या बुरी?


कहीं कुच्छ कमी तो नही रह गयी?


वो भी ऐसे ही खड़ा हमें देख रहा था. अपनी पैंटिंग को देख रहा था. उस
पैंटिंग को जिसमें एक बेटा अपने कमरे में बेड पर लेटा था, बाप नीचे बैठा था और माँ कुर्सी पर.


मैं अब भी कमरे के कोने में अंधेरे की तरफ था और क्यूंकी उसने ऐसी कोई हरकत नही की थी, मैं सिर्फ़ अंदाज़ा लगा रहा था के वो ये सोच रहा है के मैं अब भी सो रहा हूँ. साँस थामे मैं चुप चाप हल्की सी आँख खोले पड़ा रहा.


मेरे माँ बाप दोनो के ही शरीर से खून बह कर नीचे ज़मीन पर गिर रहा था. वो कुच्छ पल वैसे ही खड़े रहने के बाद आगे बढ़ा और उनके खून को अपने हाथों में उठाया. नही उठाया नही, बल्कि अपने हाथों को उनके खून में इस तरह डुबॉया जैसे कोई पेंटर अपने ब्रश को कलर में डालता है.


लाल रंग का खून ने उसके हाथों को ब्रश बना दिया जिन्हें आगे बढ़कर वो दीवार पर घिसटने लगा. मैं समझ नही पा रहा था के वो क्या कर रहा है पर कर उसी अंदाज़ में रहा था जैसे कोई पैंटिंग बना रहा हो.


उसका मास्टर पीस. उसकी इस कमरे की पैंटिंग की आखरी कड़ी.

तभी मेरी छाती में एक तेज़ तकलीफ़ उठी. मेरी खाँसी जो अब तक सामने नही आई थी अब फिर से उठ रही थी.


और खाँसी के साथ साथ मेरे पेट में फिर से उठी तकलीफ़ ने मुझे फिर याद दिलाया के मुझे बाथरूम में जाना है. मैने डर के मारे अपनी आँखें फिर बंद कर ली क्यूंकी मैं जानता था के खाँसने का मतलब है उसका ध्यान अपनी तरफ खींचना.


वो समझ जाएगा के मैं जाग रहा हूँ और फिर उसके बाद जो करेगा, उसके डर से मैने अपनी खाँसी को दबाया और अपनी आँखें बंद कर ली.


कमरे में बड़ी देर तक दीवार पर घिसटने की आवाज़ें आती रही पर मेरी फिर आँखें खोलने की हिम्मत नही हुई.


मैं बस चुप पड़ा इंतेज़ार करता रहा. किस चीज़ का, ये मैं खुद भी नही जानता था.


ऐसे ही लेटे लेटे मुझे 2 घंटे से ज़्यादा हो गये थे. ड्रॉयिंग रूम के आंटीक घंटे ने सुबह के 3 बजा दिए थे. कमरे में अब बस उसकी साँस लेने की आवाज़ सुनाई दे रही थी जिससे मुझे पता चल रहा था के वो अब भी कमरे में है. क्या कर रहा है, ये मैं नही जानता था.


मेरी तरह जैसे वो भी किसी बात का इंतेज़ार कर रहा था.


मुझे अब भी समझ नही आ रहा था के क्या करूँ. कमरे में खून की गंध फेली हुई थी और मुझे तो जैसे डर के मारे लकवा मार गया था. खाँसी और पेशाब, दोनो को मैने बड़ी मुश्किल से रोक राका था क्यूंकी मैं जानता था के जिस पल मैने ये जताया के मैं सो नही रहा हूँ, मैं उसी पल ख़तम हो जाऊँगा.


मैं यहीं मरूँगा और आस पास मुझे बचाने वाला कोई नही है.


इतनी देर सोचने के बाद भी मुझे बचाव का कोई रास्ता समझ नही आ रहा था. सिर्फ़ एक ही रास्ता था. उठकर अचानक बाहर दरवाज़े की तरफ भागु और ज़ोर ज़ोर से शोर मचाऊं. इस उम्मीद पर के पड़ोसी इस बार मेरी चीख सुन कर तो आ ही जाएँगे.


ख़तरा है पर बस यही एक रास्ता है मेरे पास. मैं उठकर अचानक भगा तो वो
मुझे पकड़ नही पाएगा क्यूंकी सोते हुए इंसान अचानक उठकर भाग नही लेते.


अगर यहाँ लेटा रहा तो पक्का मारा जाऊँगा क्यूंकी ये जो कुच्छ भी है, मेरे जागने का ही इंतेज़ार कर रहा है. इंतेज़ार कर रहा है के मैं जागूं, और इसकी पैंटिंग देखूं. खून से सना ये कमरा देखूं जिसके बाद ये मुझे मार कर अपनी पैंटिंग पूरी कर सके.


डरते डरते मैने अपनी फिर हल्की सी अपनी आँखें खोली. कमरे में अंधेरा था इसलिए एक पल के लिए तो कुच्छ नज़र ही नही आया पर फिर धीरे धीरे आँखें अंधेरे की आदि होने लगी और मुझे दिखाई देने लगा.


उसकी साँस की आवाज़ आ रही थी. मैं जानता था के वो कमरे में है पर नज़र नही आ रहा था. मैं कमरे में नज़र फिराने लगा इस उम्मीद के साथ के शायद वो अंधेरे में कहीं किसी कोने में दिख जाए तो मुझे पता हो के वो कहाँ हो.


तभी मेरी नज़र दीवार पर पड़ी जहाँ वो मेरे माँ बाप के खून से कुच्छ बना रहा था.


मुझे अब अंधेरे में दिखाई देने लगा था. वो उस वक़्त कुच्छ बना नही रहा था, लिख रहा था जिसे पढ़ने से पहले ही मैने अपनी आँखें बंद कर ली थी. लाल खून से सफेद दीवार पर बड़ा बड़ा लिखा हुआ था .....

"कब तक सोने का नाटक करेगा?"

समाप्त

KHAUFF--3

gataank se aage...........

Vo mujhe kyun nahi kuchh keh ya kar raha tha, ye samajh nahi aa raha tha.


Aur phir jaise ek ek pal bhaari padne laga. Har lamha jaise ek sadi ke saman ho gaya. Shadeed Darr, Aseemit Khauff, Intense fear ka ye mera pehla mauka tha aur jaise mera dimag short circuit sa kar gaya tha. Koi bhi soch, koi bhi vichar, koi bhi thought process saaf nahi tha. Jaise mera dimag achanak ek saath har disha mein bhaagne ki koshish kar raha tha.


Gala sookhne laga tha aur mujhe phir peshab aane laga tha.


OH NO !!!! I NEED TO GO TO THE BATHROOM, AGAIN .......

Ye khyaal aate hi maine apne pet ko andar ki taraf khincha aur apne taange sikod kar apne aap par kaabu paya.


Aur phir aayi kuchh ghisatne ki aawaz. Bahar drawing room mein kisi cheez ko ghasita ja raha tha. Meri aankhen ab bhi band thi aur mujhe samajh nahi aa raha tha ke kya karun. Kya aankhen khol kar dekhun? Par agar usne dekh liya toh?


Dil hi dil mein main kahin janta tha ke der sawer vo lamha aayega jab mujhe us anjaan ka samna karna padega. Jab mera sone ka natak khatam hota aur mera saath jo hona hai vo hoga. Par yun sone ka natak karte hue shayad main us pal ko taal raha tha. Ya ye ummeed kar raha tha ke kyunki main so raha hoon toh mujhe chhod diya jaayega.

Kyunki main toh so raha tha, maine toh kuchh dekha hi nahi.


Theek us chidiya ki tarah jo neeche mitti mein apna sar chhupa kar ye ummeed karti hai ke koi use nahi dekh raha.


Main bhi yun aankhen band kiye us andhere mein pada pada ye ummeed kar raha tha ke mujhe andekha kar diya jaayega.


Andhera.


Aur phir mujhe khyaal aaya ke kamre mein jis jagah mera bistar hai vahan toh bilkul andhera hai. Toh agar main apni aankhen zara si khol loon toh bahar se kisi ko dikhayi nahi dega ke main jaag raha hoon. Aur apne dil ko aisi hi hazaron dilasayen dete hue maine zara si apni aankh kholi.


Vo darwaze par saamne hi khada tha. Night bulb ki halki halki roshni us par pad rahi thi aur ek pal ke liye toh mujhe samajh hi nahi aaya ke main dekh kya raha hoon. Sahi mein kuchh dekh raha hoon ya mera dimag mujhe dhokha de raha hai.


Vo insaan nahi tha. Haan insaan jaisa tha par insaan nahi tha, ho hi nahi sakta tha. Sabse pehli cheez jispar mera dhyaan gaya vo ye thi ke uske jism par koi kapda nahi tha. Vo sar se paon tak poora nanga tha. Ganja tha.


Nahi asal mein uske poore shareer par hi baal nahi the. Sar se paon tak kahin koi baal nahi. Sirf chamdi jo laal rang ki roshni mein laal hi lag rahi thi. Vo kad mein mere se kaafi lamba tha par bahut jhuk kar chal raha tha jiski vajah se mere barabar hi chal raha tha.


Aur phir mujhe uske jhuke hone ki vajah dikhai di. Vo kubda tha. Vo kamar se thoda muda hua tha aur kisi oont, camel, ki tarah uski kandho ke neeche kamar kar ek gumbad jaisa kuchh utha hua tha.


Aur ek khaas baat. Uski haath kaafi bade bade the jinmein pakde vo kuchh ghasit kar mere kamre mein la raha tha.


Vo kuchh mere maan baap the jinke haath apne haathon mein pakad kar vo ghasit raha tha. Mere mom dad dono hi umar ke hisaab se kaafi mote the, khaas taur par meri mummy, par phir bhi vo bina kisi takleef ke bade aaram se dono ke haathon ko pakad kar aise ghaseet raha tha jaise vo rabad ke gudde hon.


Un dono ko dheere dheere ghasit kar vo mere kamre mein le aaya, Main ab bhi apni aankhen halki si khole hue pada tha. Meri aankhen ab andhere ki aadi ho gayi thi isliye kamre ki halki roshni mein mujhe thoda behtar dikhai dena laga tha.


Main ab bhi samajh nahi pa raha tha ke vo insaan tha ya nahi ya vo kya karna chah raha tha.

Meri maan ko usne kamre ke beech lakar vahin chhod diya. Un dono ke shareer se ab bhi khoon beh raha tha aur ghasitne ke laal rang ke nishan darwaze par saaf bane hue the. Meri maan ko kamre ke beech chhod usne mere dad ko dono haathon se pakad kar uthaya aur mere bed ke nazdeek ghasita.


Main is kadar dar chuka tha ke meri itni bhi himmat nahi padi ke apni aankhen band kar loon. Kisi putle ki tarah apni jagah pada main bas chup chap dekh raha tha.


Main samajh nahi pa raha tha ke mere papa zinda hain ya mar gaye. Unke aankhen poori tarah khuli hui thi par kya un aankhon mein zindagi baaki thi ya nahi, ye ek bahut bada sawal tha.


Vo mere papa ko khinch kar mere bistar ke kareeb mere pairon ke paas laya aur unko mere bed ke sahare betha diya.


Vo kuchh is tarah se bethe the ke unki thodi, chin, mere bistar ke uper tiki hui thi aur poora shareer neeche. Ek pal ko dekh kar aisa lagta tha jaise vo thodi bistar par tikaye mujhe dekhte hue mujhse bahut zaroori baat kar rahe hon.


Phir vo meri maan ke kareeb gaya aur unko uthakar mere kamre mein rakhi chair par betha diya. Kursi ka rukh bhi meri taraf tha aur aisa lagta tha jaise maan kursi par dono paon uper kiye bethi meri taraf dekh rahi ho, mujhse bahut zaroori baat kar rahi ho. Unki bhi dono aankhen khuli hui thi par zinda ya murda, ye keh pana mushkil tha.


Kamre ki setting aisi thi jaise main bistar par leta hoon, bistar ke paas neeche papa bethe meri taraf dekh rahe ho aur maan kursi par bethi ham dono ki taraf dekh rahi ho.Jaise ek family saath bethi kuchh baat kar rahi ho.


Vo kamre ki deewar ke paas khada tha jaise kamre ki setting ka jaayza le raha ho. Jaise koi painter apni painting banane ke baad kuchh door khada ye soch raha ho ke painting kaisi bani. Theek bani ya galat? Achhi bani ya buri?


Kahin kuchh kami toh nahi reh gayi?


Vo bhi aise hi khada hamen dekh raha tha. Apni painting ko dekh raha tha. Us
painting ko jismein ek beta apne kamre mein bed par leta tha, baap neeche betha tha aur maan kursi par.


Main ab bhi kamre ke kone mein andhere ki taraf tha aur kyunki usne aisi koi harkat nahi ki thi, main sirf andaza laga raha tha ke vo ye soch raha hai ke main ab bhi so raha hoon. Saans thaame main chup chap halki si aankh khole pada raha.


Mere maan baap dono ke hi shareer se khoon beh kar neeche zameen par gir raha tha. Vo kuchh pal vaise hi khade rehne ke baad aage badha aur unke khoon ko apne haathon mein uthaya. Nahi uthaya nahi, balki apne haathon ko unke khoon mein is tarah dubaya jaise koi painter apne brush ko color mein dalta hai.


Laal rang ka khoon ne uske haathon ko brush bana diya jinhen aage badhkar vo deewar par ghisatne laga. Main samajh nahi pa raha tha ke vo kya kar raha hai par kar usi andaz mein raha tha jaise koi painting bana raha ho.


Uska master piece. Uski is kamre ki painting ki aakhri kadi.

Tabhi meri chhati mein ek tez takleef uthi. Meri khaansi jo ab tak saamne nahi aayi thi ab phir se uth rahi thi.


Aur khaansi ke saath saath mere pet mein phir se uthi takleef ne mujhe phir yaad dilaya ke mujhe bathroom mein jana hai. Maine darr ke maare apni aankhen phir band kar li kyunki main janta tha ke khaansne ka matlab hai uska dhyaan apni taraf khinchna.


Vo samajh jaayega ke main jaag raha hoon aur phir uske baad jo karega, uske darr se maine apni khaansi ko dabaya aur apni aankhen band kar li.


Kamre mein badi der tak deewar par ghisatne ki aawazen aati rahi par meri phir aankhen kholne ki himmat nahi hui.


Main bas chup pada intezaar karta raha. Kis cheez ka, ye main khud bhi nahi janta tha.


Aise hi lete lete mujhe 2 ghante se zyada ho gaye the. Drawing room ke antique ghante ne subah ke 3 baja diye the. Kamre mein ab bas uski saans lene ki aawaz sunai de rahi thi jisse mujhe pata chal raha tha ke vo ab bhi kamre mein hai. Kya kar raha hai, ye main nahi janta tha.


Meri tarah jaise vo bhi kisi baat ka intezaar kar raha tha.


Mujhe ab bhi samajh nahi aa raha tha ke kya karun. Kamre mein khoon ki gandh pheli hui thi aur mujhe toh jaise darr ke maare lakwa maar gaya tha. Khaansi aur peshab, dono ko maine badi mushkil se rok raka tha kyunki main janta tha ke jis pal maine ye jataya ke main so nahi raha hoon, main usi pal khatam ho jaoonga.


Main yahin maroonga aur aas paas mujhe bachane wala koi nahi hai.


Itni der sochne ke baad bhi mujhe bachav ka koi rasta samajh nahi aa raha tha. Sirf ek hi rasta tha. Uthkar achanak bahar darwaze ki taraf bhaagun aur zor zor se shor machaoon. Is ummeed par ke padosi is baar meri cheekh sun kar toh aa hi Jaayenge.


Khatra hai par bas yahi ek rasta hai mere paas. Main uthkar achanak bhaga toh vo
mujhe pakad nahi paayega kyunki sote hue insaan achanak uthkar bhaag nahi lete.


Agar yahan leta raha toh pakka mara jaoonga kyunki ye jo kuchh bhi hai, mere jaagne ka hi intezaar kar raha hai. Intezaar kar raha hai ke main jaagun, aur iski painting dekhun. Khoon se sana ye kamra dekhun jiske baad ye mujhe maar kar apni painting poori kar sake.


Darte darte maine apni phir halki si apni aankhen kholi. Kamre mein andhera tha isliye ek pal ke liye toh kuchh nazar hi nahi aaya par phir dheere dheere aankhen andhere ki aadi hone lagi aur mujhe dikhai dene laga.


Uski saans ki aawaz aa rahi thi. Main janta tha ke vo kamre mein hai par nazar nahi aa raha tha. Main kamre mein nazar phirane laga is ummeed ke saath ke shayad vo andhere mein kahin kisi kone mein dikh jaaye toh mujhe pata ho ke vo kahan ho.


Tabhi meri nazar deewar par padi jahan vo mere maan baap ke khoon se kuchh bana raha tha.


Mujhe ab andhere mein dikhai dene laga tha. Vo us waqt kuchh bana nahi raha tha, likh raha tha jise padhne se pehle hi maine apni aankhen band kar li thi. Laal khoon se safed deewar par bada bada likha hua tha .....

"Kab tak sone ka natak karega?"

samaapt






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