एक कहानी ख़ौफ़--पार्ट-1
मुझे वक़्त का कोई अंदाज़ा नही था.
रात के बारे में जो बात मेरे ख्याल से सबसे ज़्यादा क़ाबिल-ए-गौर है वो ये है के रात में हर छ्होटी से छ्होटी आवाज़ सुनाई देती है. आइ मीन दिन में आपके पड़ोसी जितना भी लड़ें झगड़े, चाहे जितना चिल्लाएँ आपको सुनाई नही देगा पर रात में हर कोई ज़रा संभाल कर बोलता है क्यूंकी यहाँ आवाज़ थोड़ी ऊँची हुई नही के
पूरे मोहल्ले को पता चल जाएगा के आपके घर में लड़ाई हो रही है.
शायद इसी वजह से घरेलू झगड़े ज़्यादातर शायद दिन में ही होते होंगे.
पर अपने मोम डॅड को तो मैने कभी दिन में भी लड़ते नही सुना?
शायद वो बहुत हल्की आवाज़ में झगड़ते होंगे ताके मैं सुन ना सकूँ. और मेरा कमरा भी तो उनके कमरे से थोड़ा हटके था इसलिए लड़ते भी होंगे तो उनकी आवाज़ मुझे कहाँ सुनाई देती होगी?
पर आज रात तो दी थी.
हां तो आज रात वो लड़ थोड़े ही रहे थे. जो मुझे सुनाई दी वो तो चीखने की आवाज़ थी.मेरी माँ की चीख.
क़ाबिल-ए-गौर बात ये भी है के ये चीख मेरे अलावा और किसी ने नही सुनी. रात को आपके अगले घर में कोई औरत चीखे और आप उठकर देखने ना जाएँ? ऐसा कैसे हो सकता है.
पर ऐसा हुआ. मेरा माँ पूरे ज़ोर से चिल्लाई थी पर फिर भी अब तक कोई आया नही था.
क्या किसी ने चीख सुनी नही?
नही नही ऐसा कैसे हो सकता है. रात के सन्नाटे में शर्तिया वो चीख तो पूरे मोहल्ले में सुनाई दी होगी.
तो कोई आया क्यूँ नही फिर अब तक?
चीख किसी ने सुनी नही या कोई सुनना नही चाहता था? वैसे भी आजकल मदद किसी की करना कौन चाहता है? वो तो पुराने ज़माने की बातें हैं के पड़ोसी पड़ोसी के काम आता था, हर कोई हर किसी के गम और खुशी में शरीक होता था. अब कौन ऐसा करता है. अब तो हर किसी के अपने सर पे इतनी मुसीबत पड़ी रहती है के दूसरे
की मुसीबत को देख कर भी अनदेखा कर दिया जाता है.
कहाँ गयी इंसानियत?
मुझे अब भी वक़्त का कोई अंदाज़ा नही था. आँखें बंद किए, साँस रोके मैं एक ही करवट पर कब्से पड़ा था मैं नही जानता था. रात का सन्नाटा अपने पूरे शबाब पर था और हर बारीक से बारीक आवाज़ भी सुनाई दे रही थी.
या शायद उस वक़्त, उस सिचुयेशन में होने की वजह से मेरे सेन्सस मुझे धोखा दे रहे थे.
शायद मुझे ही उस वक़्त हर आवाज़ सुनाई दे रही थी. जो भी था, उस वक़्त तो ऐसा लग रहा था जैसे अपने दिल की धड़कन भी एक शोर है.
साला अगर मुझे पता होता के आज रात ऐसा कुच्छ होने वाला है तो मैं सुनील की बात मान लेता. कहा था उसने के रुक जा आज रात मेरे ही घर पर, मज़े करेंगे. पर नही, मुझे तो अपने ही घर आना था. अब भुग्तो.
कमरे में अब भी मुझे सिर्फ़ 4 आवाज़ें सुनाई दे रही थी.
एक अपनी साँस की आवाज़, अपने दिल की धड़कन, उसकी साँस की आवाज़ और कुच्छ रगड़ने या घिसटने जैसी आवाज़.
ड्रॉयिंग रूम से हमारी बाबा आदम के ज़माने की आंटीक घाटे की टिक टोक टिक टोक की आवाज़ सुनाई दे रही थी.
मेरा कोशिश पूरी तरह से यही थी के मैं अपनी आँखों को ज़्यादा ना हिलाओं. आप किसी की आँख देख कर बता सकते हैं के वो सो रहा है या सोने का नाटक कर रहा है. आइ मीन अगर बंद पलकों के नीचे पुतलियाँ हिल रही हों तो इसका मतलब के इंसास सिर्फ़ सोने का नाटक कर रहा है क्यूंकी जो इंसान हक़ीआत में सो रहा होगा उसकी पुतलियाँ आराम से रुकी होगी, पलकों के नीचे हिल रही नही होंगी.
या अगर किसी ने अपनी पलकों को कस कर या ज़्यादा ज़ोर से बंद कर रखा हो तब भी आप देख कर बता सकते हैं के वो सिर्फ़ सोने का नाटक कर रहा है. क्यूंकी जो असल में सो रहा होगा, उसकी पलकें आराम से बंद होगी. उसकी आँखें एकदम शांत होगी जैसे किसी शांत झील का ठहरा हुआ पानी.
इसलिए ही मैने ना तो अपनी पल्को को ज़्यादा ज़ोर से बंद कर रखा था ना अपनी आँखों को पलकों के नीचे ज़्यादा हिला रहा था ताकि उसे ऐसा ही लगे के मैं सो रहा हूँ.
तभी ड्रॉयिंग रूम से टन टन टन की आवाज़ आई. आंटीक घंटे ने रात के 3 बजाए.
यानी मुझे साँस थामे एक ही करवट पर पड़े पड़े 2 घंटे से ज़्यादा हो चुके थे.
ख़ौफ़ भी एक अजीब चीज़ होती है. एक अजीब सा एमोशन. मैने कहीं पढ़ा था के 3 चीज़ें इंसान के अंदर के जानवर को बाहर ले आती हैं. सेक्स, गुस्सा और ख़ौफ्फ यानी के डर. इंसान अपने असली चेहरे पर चाहे कितने नक़ाब लगा ले, कितना भी दिखावे के चादर में अपनी हक़ीकत को च्छूपा ले ये 3 चीज़ें उसकी हक़ीकत को बाहर ले आती हैं.
बेडरूम में कपड़े उतारने के बाद इंसान सिर्फ़ बाहरी तौर पर नंगा नही होता. वो असल में नंगा हो जाता है.
शरम के पर्दे हटाने के बाद जब दो जिस्म आपस में वासना का नंगा नाच खेलते हैं तब उन कुच्छ पल के लिए चेहरे पर कोई नक़ाब नही होता. वासना के तपिश में तपते हुआ वो चेहरा असली होता है. वहाँ उन कुच्छ पलों के बर्ताव से आप इंसान की असलियत का बहुत हद तक अंदाज़ा लगा सकते हैं. उस वक़्त बाहर आता है अंदर का जानवर.
ऐसा ही कुच्छ हाल तब होता है जब इंसान के सर पर गुस्सा सवार हो. विनाश काले विपरीत बुद्धि जिसने भी कहा है सही है. गुस्से में सबसे पहले दिमाग़ काम करना बंद कर देता है और उसके बाद इंसान जो कदम बिना सोचे समझे उठता है वो उसका असली चेहरा होता है. समझदार, डरपोक, क़ायर, बुद्धिजीवी, हत्यारा या वो जो कुच्छ भी हो, गुस्से में वो बिना सोचे समझे अपने प्रकरातिक व्यवहार यानी नॅचुरल इन्स्टिंक्ट्स को ही फॉलो करेगा.
और ऐसा ही कुच्छ मेरे साथ हुआ था. बस फरक इतना था के मैं वासना या गुस्से के बजाय तीसरी भावना का शिकार था. आ विक्टिम ऑफ दा थर्ड एमोशन. ख़ौफ़, डर, फियर. पिच्छले कुच्छ घंटो में मैने पहचाना था के बाहर से मैं जो कुच्छ भी था, चाहे कितनी भी बड़ी बातें करता था पर अंदर से एक डरपोक था. इस वक़्त बिस्तर पर पड़े हुए, आँखें बंद किए मुझे अपना असली चेहरा दिखाई दे गया था, एक कायर का चेहरा.
और यही था मेरे अंदर का जानवर, एक डरपोक चूहा जो हल्की सी आहट पर अपनी जान बचा कर भाग लेता है.
ऐसा नही है के मैने कुच्छ सोचा नही था. मैने बहुत दिमाग़ लगाया था ये सोचते हुए के मैं क्या करूँ, या मैं क्या कर सकता हूँ पर कुच्छ समझ आया ही नही. और वैसे भी आँखें बंद किए पड़ा, सोने का नाटक करता हुआ डरा सहमा इंसान बिना सोचे कर भी क्या सकता है.
और अब मेरा सोचना समझना मेरे सिवा शायद और किसी के काम आ भी नही सकता था. मैं एक डरपोक कायर हूँ ये मैं समझ गया था. 3 घंटे पहले जब मैं उठकर अपने कमरे से बाहर निकला था अगर मैं उस वक़्त कुच्छ करता तो मैं कायर ना होता पर मैने कुच्छ भी नही किया था.
मैं रात में काई बार उठता था. ये मेरे बचपन की आदत थी. एक रात में कम से कम 3 बार तो मैं पेशाब करने के लिए उठता ही था. काई बार मुझे लगता था के ये एक बीमारी है जिसके लिए मुझे डॉक्टर को दिखाना चाहिए पर फिर सोचा तो समझ आया के बीमारी इसकी वजह नही थी. वजह थी मेरा हद से ज़्यादा चाइ पीना. एक ज़िम्मेदार हिन्दुस्तानी होते हुए मैं बखुबी ये फ़र्ज़ निभाता था के हर घंटे में कम से कम एक कप चाइ तो पीता ही था.
यानी मेरे दिन के 12-13 कप तो पक्के थे. और हद तो ये थी के मैं रात को सोने से पहले भी चाइ पीता था बल्कि बिना चाइ पिए तो मुझे नींद ही नही आती थी. है ना कमाल की बात? जहाँ लोग जागते रहने के लिए चाइ कॉफी पीते हैं, मुझे सोने के लिए एक कप चाइ चाहिए होता था.
दूसरी ज़रूरी बात ये के उस रात में कॉफ सरप पीकर सोया था. शराब पीने की मुझे आदत नही थी पर कॉफ सरप मुझ पर शराब जैसा काम करता था. एक घूंठ कॉफ सरप पीने के बाद मैं घंटो तक आराम से सो सकता था. और अगर 4-5 घूँट पी लूँ तो मुझ पर सोकर उठने के बाद भी ऐसा खुमार छाया रहता था जैसे मैने सोने से पहले जम कर शराब पी हो.
उस रात मुझे खाँसी चैन से सोने नही दे रही थी इसलिए मैने कॉफ सरप के लंबे लंबे 5-6 घूंठ पिए और घोड़े बेच कर सो गया.
खैर, आदत के मुताबिक इस रात भी जब मैं उठा तो मुझे लगा के मेरी आँख किसी आवाज़ की वजह से खुली ना कि पेशाब करने की ज़रूरत की वजह से. पर रात का 1 बज रहा था और मैं नींद में डूबा हुआ था. पेशाब करने के लिए मैं अपने कमरे से बाहर निकल कर आँखें आधी बंद किए दीवार के सहारे लड़खदाता हुआ बाथरूम की तरफ चला.
क्रमशः....................................................
KHAUFF--1
Mujhe waqt ka koi andaza nahi tha.
Raat ke baare mein jo baat mere khyaal se sabse zyada qabil-e-gaur hai vo ye hai ke raat mein har chhoti se chhoti aawaz sunai deti hai. I mean din mein aapke padosi jitna bhi lade jhagde, chahe jitna chillayen aapko sunai nahi dega par raat mein har koi zara sambhal kar bolta hai kyunki yahan aawaz thodi oonchi hui nahi ke
poore mohalle ko pata chal jaayega ke aapke ghar mein ladai ho rahi hai.
Shayad isi vajah se gharelu jhagde zyadatar shayad din mein hi hote honge.
Par apne Mom Dad ko toh maine kabhi din mein bhi ladte nahi suna?
Shayad vo bahut halki aawaz mein jhagadte honge taake main sun na sakoon. Aur mera kamra bhi toh unke kamre se thoda hatke tha isliye ladte bhi honge toh unki aawaz mujhe kahan sunai deti hogi?
Par aaj raat toh di thi.
Haan toh aaj raat vo lad thode hi rahe the. Jo mujhe sunai di vo toh cheekhne ki aawaz thi.Meri maan ki cheekh.
Qabil-e-gaur baat ye bhi hai ke ye cheekh mere alawa aur kisi ne nahi suni. Raat ko aapke agle ghar mein koi aurat cheekhe aur aap uthkar dekhne na jaayen? Aisa kaise ho sakta hai.
Par aisa hua. Mera maan poore zor se chillayi thi par phir bhi ab tak koi aaya nahi tha.
Kya kisi ne cheekh suni nahi?
Nahi nahi aisa kaise ho sakta hai. Raat ke sannate mein shartiya vo cheekh toh poore mohalle mein sunai di hogi.
Toh koi aaya kyun nahi phir ab tak?
Cheekh kisi ne suni nahi ya koi sunna nahi chahta tha? Vaise bhi aajkal madad kisi ki karna kaun chahta hai? Vo toh purane zamane ki baaten hain ke padosi padosi ke kaam aata tha, har koi har kisi ke gham aur khushi mein shareek hota tha. Ab kaun aisa karta hai. Ab toh har kisi ke apne sar pe itni museebat padi rehti hai ke doosre
ki museebat ko dekh kar bhi andekha kar diya jata hai.
Kahan gayi insaaniyat?
Mujhe ab bhi waqt ka koi andaza nahi tha. Aankhen band kiye, saans roke main ek hi karwat par kabse pada tha main nahi janta tha. Raat ka sannata apne poore shabab par tha aur har baareek se baareek aawaz bhi sunai de rahi thi.
Ya shayad us waqt, us situation mein hone ki vajah se mere senses mujhe dhokha de rahe the.
Shayad mujhe hi us waqt har aawaz sunai de rahi thi. Jo bhi tha, us waqt toh aisa lag raha tha jaise apne dil ki dhadkan bhi ek shor hai.
Sala agar mujhe pata hota ke aaj raat aisa kuchh hone wala hai toh main Sunil ki baat maan leta. Kaha tha usne ke ruk ja aaj raat mere hi ghar par, maze karenge. Par nahi, mujhe toh apne hi ghar aana tha. Ab bhugto.
Kamre mein ab bhi mujhe sirf 4 aawazen sunai de rahi thi.
Ek apni saans ki aawaz, apne dil ki dhadkan, uski saans ki aawaz aur kuchh ragadne ya ghisatne jaisi aawaz.
Drawing room se hamari Baba Aadam ke zamane ki antique ghate ki tik tok tik tok ki aawaz sunai de rahi thi.
Mera koshish poori tarah se yahi thi ke main apni aankhon ko zyada na hilaaon. Aap kisi ki aankh dekh kar bata sakte hain ke vo so raha hai ya sone ka natak kar raha hai. I mean agar band palkon ke neeche putliyan hil rahi hon toh iska matlab ke insaas sirf sone ka natak kar raha hai kyunki jo insaas haqeeat mein so raha hoga uski putliyan aaram se ruki hogi, palkon ke neeche hil rahi nahi hongi.
Ya agar kisi ne apni palkon ko kas kar ya zyada zor se band kar rakha ho tab bhi aap dekh kar bata sakte hain ke vo sirf sone ka natak kar raha hai. Kyunki jo asal mein so raha hoga, uski palken aaram se band hogi. Uski aankhen ekdam shaant hogi jaise kisi shaant jheel ka thehra hua pani.
Isliye hi maine na toh apni palon ko zyada zor se band kar rakha tha na apni aankhon ko palkon ke neeche zyada hila raha tha taaki use aisa hi lage ke main so raha hoon.
Tabhi Drawing room se tan tan tan ki aawaz aayi. Antique ghante ne raat ke 3 bajaye.
Yaani mujhe saans thaame ek hi karwat par pade pade 2 ghante se zyada ho chuke the.
Khauff bhi ek ajeeb cheez hoti hai. Ek ajeeb sa emotion. Maine kahin pada tha ke 3 cheezen insaan ke andar ke janwar ko bahar le aati hain. Sex, Gussa aur Khauff yaani ke darr. Insaan apne asli chehre par chaahe kitne naqab laga le, kitna bhi dikhave ke chadar mein apni haqeeat ko chhupa le ye 3 cheezen uski haqeeat ko bahar le aati hain.
Bedroom mein kapde utarne ke baad insaan sirf bahari taur par nanga nahi hota. Vo asal mein nanga ho jata hai.
Sharam ke parde hatane ke baad jab do jism aapas mein vasna ka nanga naach khelte hain tab un kuchh pal ke liye chehre par koi naqab nahi hota. Vasna ke tapish mein tapte hua vo chehra asli hota hai. Vahan un kuchh palon ke bartav se aap insaan ki asliyat ka bahut hadh tak andaza laga sakte hain. Us waqt bahar aata hai andar ka janwar.
Aisa hi kuchh haal tab hota hai jab insaan ke sar par gussa sawar ho. Vinash kaale vipreet buddhi jisne bhi kaha hai sahi hai. Gusse mein sabse pehle dimag kaam karna band kar deta hai aur uske baad insaan jo kadam bina soche samjhe uthata hai vo uska asli chehra hota hai. Samajhdar, Darpok, Qayar, Buddhijeevi, Hatyara ya vo jo kuchh bhi ho, gusse mein vo bina soche samjhe apne prakratik vyavhaar yaani natural instincts ko hi follow karega.
Aur aisa hi kuchh mere saath hua tha. Bas farak itna tha ke main vasna ya gusse ke bajay teesri bhavna ka shikar tha. A victim of the third emotion. Khauff, Darr, Fear. Pichhle kuchh ghanto mein maine pehchana tha ke bahar se main jo kuchh bhi tha, chahe kitni bhi badi baaten karta tha par andar se ek darpok tha. Is waqt bistar par pade hue, aankhen band kiye mujhe apna asli chehra dikhayi de gaya tha, ek kaayar ka chehra.
Aur yahi tha mere andar ka janwar, ek darpok chooha jo halki si aahat par apni jaan bacha kar bhag leta hai.
Aisa nahi hai ke maine kuchh socha nahi tha. Maine bahut dimag lagaya tha ye sochte hue ke main kya karun, ya main kya kar sakta hoon par kuchh samajh aaya hi nahi. Aur vaise bhi aankhen band kiye pada, sone ka natak karta hua dara sehma insaan bina soche kar bhi kya sakta hai.
Aur ab mera sochna samajhna mere siva shayad aur kisi ke kaam aa bhi nahi sakta tha. Main ek darpok kayar hoon ye main samajh gaya tha. 3 ghante pehle jab main uthkar apne kamre se bahar nikla tha agar main us waqt kuchh karta toh main kaayar na hota par maine kuchh bhi nahi kiya tha.
Main raat mein kayi baar uthta tha. Ye mere bachpan ki aadat thi. Ek raat mein kam se kam 3 baar toh main peshab karne ke liye uthta hi tha. Kayi baar mujhe lagta tha ke ye ek bimari hai jiske liye mujhe doctor ko dikhana chahiye par phir socha toh samajh aaya ke bimari iski vajah nahi thi. Vajah thi mera hadh se zyada chaai pina. Ek zimmedar hindustani hote hue main bakhubhi ye farz nibhata tha ke har ghante mein kam se kam ek cup chaai toh pita hi tha.
Yaani mere din ke 12-13 cup toh pakke the. Aur hadh toh ye thi ke main raat ko sone se pehle bhi chaai pita tha balki bina chaai piye toh mujhe neend hi nahi aati thi. Hai na kamal ki baat? Jahan log jaagte rehne ke liye chaai coffee pite hain, mujhe sone ke liye ek cup chaai chahiye hota tha.
Doosri zaroori baat ye ke us raat mein cough syrup pikar soya tha. Sharab pine ki mujhe aadat nahi thi par cough syrup mujh par sharab jaisa kaam karta tha. Ek ghoonth cough syrup peene ke baad main ghanto tak aaram se so sakta tha. Aur agar 4-5 ghoont pi loon toh mujh par sokar uthne ke baad bhi aisa khumaar chhaya rehta tha jaise maine sone se pehle jam kar sharab pi ho.
Us raat mujhe khaansi chain se sone nahi de rahi thi isliye maine cough syrup ke lame lambe 5-6 ghoonth piye aur ghode bech kar so gaya.
Khair, aadat ke mutaabik is raat bhi jab main utha toh mujhe laga ke meri aankh kisi aawaz ki vajah se khuli na ki peshab karne ki zaroorat ki vajah se. Par raat ka 1 baj raha tha aur main neend mein dooba hua tha. Peshab karne ke liye main apne kamre se bahar nikal kar aankhen aadhi band kiye deewar ke sahare ladkhadata hua bathroom ki taraf chala.
kramashah....................................................
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