कुच्छ भी नहीं ....
दिल में अब दर्द-ए-मोहब्बत के सिवा कुच्छ भी नही,
ज़िंदगी मेरी अब तेरी चाहत के सिवा कुच्छ भी नही.........
दुल्हन के जोड़े में सजी वो बला की खूबसूरत लग रही है. और सच कहूँ तो मेरा ये कहना ही जैसे एक गुनाह जैसा है, उसके साथ मेरी ना-इंसाफी है. कहना तो ये चाहिए के उसके तंन पर सज कर वो दुल्हन का जोड़ा बहुत खूबसूरत लग रहा है. एक मामूली लाल रंग का कपड़ा आज उसका पेरहन बनकर बेश-कीमती हो गया है.
अब तो जैसे याद भी नही के मैं कब्से उसे चाहता हूँ, कब्से उसे पाने की तमन्ना दिल में लिए हुए हूँ.
जहाँ तक याद की हद जाती है, वहाँ तक बस एक उसकी ही सूरत नज़र आती है. ज़िंदगी शुरू उसके दामन से होती है इस ख्वाहिश के साथ के आखरी हिचकी भी उसके बाहों में आए और कफ़न भी उसका दामन बने.
"तुम हमेशा मेरे साथ क्यूँ खेलते हो?"
बचपन में जब वो मासूमियत से ये सवाल किया करती थी तो मुझसे जवाब देते नही बनता था. सच तो ये था के उसके सवाल का जवाब मेरे पास था ही नही. उस छ्होटे से मासूम लड़के को खुद ही ये कहाँ पता था के वो क्यूँ हर पल उस मासूम चेहरे को तकता रहता है.
क्यूँ बे-इख्तेयार उस मासूम सी गुड़िया के पास चला आता है और क्यूँ उसके गुड्डे गुड़िया के खेल में शामिल रहता है.
"तू लड़की हो गया है, गुड़िया से खेलता है. हम तेरे साथ नही खेलेंगे"
दोस्तों के मज़ाक बनाने का सिलसिला बचपन में ही शुरू हो गया था. और वो सिलसिला जो शुरू हुआ तो फिर कभी ख़तम हुआ ही नही, चलता ही रहा और उसके साथ चलता रहा मेरी दीवानगी का सिलसिला. बचपन जवानी में तब्दील हुआ तो ये समझ तो आ गया के मैं क्यूँ हर पल उसके साथ की ख्वाहिश, उसकी नज़दीकी की तलब रखता हूँ पर दिल से वो कसक कभी गयी नही.
उसकी चाहत रग रग में लहू बनकर दौड़ती रही और उसकी शकल एक तस्वीर
बनकर मेरे कमरे की दीवार के साथ मेरी नज़रों से होती मेरी रूह में जा बसी.
"जब हम बड़े होंगे तो मैं तुमसे शादी कर लूँगा फिर हम हमेशा साथ में गुड़िया से खेला करेंगे"
10 साल की उमर में मेरे लब से निकले वो अल्फ़ाज़ कब एक ख्वाब बनकर आँखों में जा बसे जैसे खबर ही नही हुई. गुड्डे गुड़िया का खेल तो ख़तम हो गया पर उस वक़्त कहे गये चंद अल्फ़ाज़ एक वादा बनकर हम दोनो को जोड़ गये, हमारे दिलों को जोड़ गये, धड़कन को जोड़ गये.
मैं तेरी बारः-गाह-ए-नाज़ में क्या पेश करूँ,
मेरी झोली में मोहब्बत के सिवा कुच्छ भी नहीं ......
"क्या कर सकते हो मेरे लिए?"
उसने मासूमियत से एक बार जो सवाल किया तो लफ्ज़ जैसे कम पड़ गये ये बताने के लिए के मैं उसके लिए क्या कुच्छ करना चाहता हूँ. समझ ही नही आया के कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ ख़तम. कैसे उन चीज़ों की फेहरिस्त बनाऊँ जो मैं उसके सुपुर्द करना चाहता हूँ.
कभी हाथ उठ गये फलक की तरफ ये इशारा करते हुए के वो कहे तो आफताब की रोशनी उसके गालों में भर दूँ, महताब की चाँदनी उसके आँचल में समेट लाऊँ, सियाह रात की सियाही उसकी आँखों के डोरे बना दूं और लाल सहर की लाली उसके लबों पर सज़ा दूं. तो कभी यूँ ख्वाहिश हुई के सीना चीर कर दिल उसके
हवाले कर दूं.
कभी चाहा के उसके पैरों तले हर फूल सज़ा दूं तो कभी खुद फूल बनार उसकी कदम-बोसी कर लूँ.
तेरी महफ़िल से जो उठू तो बता फिर कहाँ जाऊं,
मेरा काम तेरी इबादत के सिवा कुच्छ भी नहीं ......
बस अड्डे के पास कल्लू की चाई की दुकान आज भी वहीं हैं. वो 2 कुर्सियाँ और एक मेज़ उसी सलीके से रखी हुई है जिस सलीके से वो कभी हमारे इंतेज़ार में होती थी.
"परेशान करने को बुलाया है मुझे यहाँ? छेड़ रहे हो, भाग जाओ ....."
अदा से इठलाके वो उसका मुझसे वो शिकायत करना और उस गीले शिकवे में छुपि वो मासूमियत बार बार मुझे इस बात के लिए मजबूर करती के मैं आगे बढ़कर उसका माथा चूम लूँ, उसके हाथ थाम लूँ और फिर बयान करूँ, बताऊं उसे, के मैं किस क़दर उसे इश्क़ में फ़ना हूँ. बताऊं के मैं क्यूंकर बे- इख्तियार सा उसकी एक झलक पाने को दिल थामे उसकी राह में मुतज़ीर रहता हूँ.
समझाऊं उसे के उसके वजूद से मेरा वजूद क़ायम है और जो वो नही तो मेरी शख्सियत का कोई मतलब नही. के मेरी हर सहर उसके ताज़किरे से शुरू होती है और शाम तक का मेरा सफ़र उसकी आवाज़ सुनने की बेक़ारारी में गुज़रता है.
आए खुदा मुझसे ना ले मेरे गुनाहों का हिसाब,
मेरे पास अश्क़-ए-नदमत के सिवा कुच्छ भी नही ....
हर तरफ रंग बिरंगे कपड़े पहने, सजे धजे लोग खुशियाँ माना रहे थे. कुच्छ उसके अपने थे और कुच्छ यूँ ही बुलावे पर उसकी खुशी में शामिल होने आ गये थे.
आज उसकी शादी थी और दुल्हन बनी किसी गुड़िया की तरह सजी हुई वो मजलिस के ठीक बीच में बैठी थी. लोग आ रहे थे और उसके सामने अपना लाया तोहफा रख कर उसकी उस मुबारक दिन की मुबारकबाद दे रहे थे और उसकी आने वाली ज़िंदगी के लिए दुआ.
आज उसको देख कर ये एहसास हुआ के लाल रंग उसपर बहुत फबता था. जाने कैसे इतने लंबे अरसे में इस बात से मैं पूरी तरह गाफील रहा. क्या इस लिए के उसने कभी मेरे साथ मेरे सामने लाल रंग पहना नही या इसलिए के मुझे हर रंग में वो इस क़दर हसीन लगती थी के हर रंग की रंगत मेरी नज़र से पोषीदा रही, बे-असर रही.
और फिर एहसास हुआ के लाल रंग उसपर कितना फॅब रहा है. क्या इसलिए के इस लाल रंग में कुच्छ ख्वाबों का खून शामिल है, के ये लाल रंग कुच्छ बेकार उम्मीदों की अश्क़ो में भीगा हुआ है, के ये लाल रंग अपने आप में कुच्छ वादों का का जनाज़ा समेटे हुए है.
हाथ में फूलों का एक गुलदस्ता लिए मैं खामोशी से उसकी तरफ बढ़ा. मेरी शख्सियत से वहाँ हर कोई अंजान था. उस लोगों के हुजूम में जैसा मेरा होना या ना होना एक बराबर ही था.
"तू चाहे भी तो क्या दे सकता है उसको यार. क्या है क्या तेरे पास"
मेरे एक दोस्त ने एक बार मुझे समझाने की कोशिश की थी. और नसीब का खेल देखिए, आज उसकी ज़िंदगी के सबसे बड़े दिन भी मेरे पास उसे देने को कुच्छ भी नही. आज मैं उसकी खुशी में शरीक होने को आया भी तो हाथ में कुच्छ सुबह के मुरझाए फूल लिए.
खुदा से कहूँ, तुझसे कहूँ या खुद ही दिल को समझा लूँ,
लब पे मेरे अब एक शिकायत के सिवा कुच्छ भी नही ......
कमाल की बात है. जब भी मैं उसके करीब होता था तो दिल की धड़कन जाने क्यूँ अपने आप बढ़ जाती थी. उसके चेहरे की एक झलक, उसकी साँस की गर्मी, उसके जिस्म की खुश्बू और उसके हाथों की नर्मी, कुछ ऐसी कशिश, कुच्छ ऐसी तासीर थी उसकी के दिल बेकाबू होकर दीवानगर सा धड़कने लगता था.
आज फिर वैसा ही कुच्छ आलम है. अब इस नादान दिल को कैसे समझाऊं के आज वो मेरी नही, के आज वो किसी और की और हो रही है. कैसे इस दीवाने से कहूँ के आज यूँ फिर तेज़ी से धड़क कर कुच्छ हासिल नही होगा. के आज तो इसे धड़कन से किनारा कर लेना चाहिए और मुझसे इस बेकार ज़िंदगी से निजात दिला देनी हहिए.
हाथ में गुलदस्ता लेकर मैं उसके करीब आया और उसे देने के लिए आगे को झुका. नज़र उठा कर उसने शुक्रिया कहने के लिए मेरी तरफ देखा तो खबर हुई के दूर से नज़र आती उसकी वो खूबसूरती तो महज़ एक भरम थी. उस शाम पहली बार मुझ पर उसकी आँखों की वीरानी, उसके चेहरे की वहशत ज़ाहिर हुई.
खबर हुई के वो तो आज फिर वही गुड्डे गुड़िया का खेल खेल रही है बस आज गुड़िया की जगह उसने खुद को बैठा लिया. जिस्म है, रंगत है, पेरहन है, ज़ेवर है पर किसी गुड़िया की तरह ही ये सब होने के बाद भी कुच्छ नही है क्यूंकी जिस्म में जान नही है.
हां, उसकी आँखों ने मुझ पर ज़ाहिर किया के वो तो बस एक मुर्दा लाश की तरह वहाँ बैठी नकली हसी हस रही थी, मुस्कुरा रही थी.
मैं आज फिर खड़ा हूँ तेरे हुज़ूर में तेरा मुरीद होकर,
मेरे आँखों में इस हक़ीकत के सिवा कुच्छ भी नही ......
लाख मेरे चेहरे पर नक़ाब सही, नकली दादी मूँछछ सही. लाख मैने कोशिश की थी भेस बदलने की ताकि उसकी शादी में मुझे कोई पहचान ना सके पर उसकी नज़र धोखा कैसे खा सकती थी. उसकी नज़र मेरी नज़र से मिली और एक पल में ये पेगाम मुझ तक पहुँच गया के उसने मुझे पहचान लिया है.
आज फिर मुझे सामने देख कर वो मुस्कुराइ और मुझे लगा जैसे मेरा सब कुच्छ लूट गया हो. कहाँ गयी वो मुस्कुराहट, वो हसी जिसे पाकर मैं कभी इठलाता फिरता था. कहाँ गयी वो हसी जो कभी मुझे पूरा करती थी. कहाँ गयी वो हसी जिसे पाकर मैं सब कुच्छ पा लेता था. वो हसी जिसके बाद मुझे किसी और चीज़ की ज़रूरत ही नही पड़ती थी.
अपने होंठों पर आप इस पाकीज़ा हसी को यूँ ही सजाए रखना,
मेरी दौलत इस मुस्कुराहट के सिवा कुच्छ भी नही ......
और फिर मेरे हाथ में थामे फूल छूट कर उसकी झोली में जा गिरे और नुमाया हुई उन फूलों के पिछे च्छूपी रेवोल्वेर. वो रेवोल्वेर जिस में सिर्फ़ 2 ही गोलियाँ मौजूद थी. वो रेवोल्वेर जिसे मैं फूलों की आड़ में अब तक अपने हाथ में थामे हुए था.
हम दोनो पर अब भी किसी की नज़र नही है. सब अपने आप में मगन हैं और हम दोनो जैसे उन सबसे बेख़बर, दुनिया से पराए होकर एक दूसरे की नज़र में नज़र डाले एक दूसरे को देख रहे हैं. वो कभी मेरी तरफ तो कभी मेरे हाथ में थमी रेवोल्वेर की तरफ देख रही है. और हां वो अब मुस्कुरा रही है.
फिर वही मुस्कुराहट जो मैं देखना चाहता था. उसकी हसी अब फिर लौट आई है.
उसने मुस्कुरा कर अपनी आँखें मूंद ली जैसे आज फिर एक बार अपने आपको मेरे सुपुर्द कर रही हो. मैने अपने हाथ में थमी रेवोल्वेर पर एक नज़र डाली और फिर एक नज़र उसको देखा.
उसके मुँह से कुच्छ सफेद चीज़ सी निकल रही है, एक सफेद झाग. उसकी रंगत जो अब तक पीली थी, अब सफेद होती जा रही है.
और फिर नीचे बैठी बैठी वो एक तरफ निढाल होकर गिर पड़ी.
वो तो आज मर कर हमें मिल ही गयी राहत वारना,
ज़िंदगी रंज-ओ-मुसीबत के सिवा कुच्छ भी नहीं.......
सब लोग अब उसके चारों तरफ खड़े हुए हैं. खुशी का आलम अब चीख पुकार में तब्दील हो गया है.
किसी का ध्यान अब भी मेरी तरफ नही है और ना ही मेरी नज़र उन पर. मैं तो अपने हाथ में थामी उस रेवोल्वेर को देख रहा हूँ जिसका रुख़ मेरी तरफ है. जिस में अब भी 2 गोलियाँ मौजूद हैं पर ज़रूरत अब सिर्फ़ एक की है.
दिल में अब दर्द-ए-मोहब्बत के सिवा कुच्छ भी नही,
ज़िंदगी मेरी अब तेरी चाहत के सिवा कुच्छ भी नही.........
समाप्त
KUCHH BHI NAHIN ....paart--1
Dil mein ab dard-e-mohabbat ke siwa kuchh bhi nahi,
Zindagi meri ab teri chahat ke siwa kuchh bhi nahi.........
Dulhan ke jode mein saji vo bala ki khoobsurat lag rahi hai. Aur sach kahun toh mera ye kehna hi jaise ek gunah jaisa hai, uske saath meri na-insafi hai. Kehna toh ye chahiye ke uske tann par saj kar vo Dulhan ka joda bahut khoobsurat lag raha hai. Ek mamuli laal rang ka kapda aaj uska perhan bankar besh-keemti ho gaya hai.
Ab toh jaise yaad bhi ke main kabse use chahta hoon, kabse use paane ki tamanna dil mein liye hue hoon.
Jahan tak yaad ki had jaati hai, vahan tak bas ek uski hi soorat nazar aati hai. Zindagi shuru uske daman se hoti hai is khwahish ke saath ke aakhri hichki bhi uske baahon mein aaye aur kafan bhi uska daman bane.
"Tum hamesha mere saath kyun khelte ho?"
Bachpan mein jab vo masoomiyat se ye sawal kiya karti thi toh mujhse jawab dete nahi banta tha. Sach toh ye tha ke uske sawal ka jawab mere paas tha hi nahi. Us chhote se masoom ladke ko khud hi ye kahan pata tha ke vo kyun har pal us masoom chehre ko takta rehta hai.
Kyun be-ikhteyaar us masoom si gudiya ke paas chala aata hai aur kyun uske gudde gudiya ke khel mein shaamil rehta hai.
"Tu ladki ho gaya hai, gudiya se khelta hai. Ham tere saath nahi khelenge"
Doston ke mazak banane ka silsila bachpan mein hi shuru ho gaya tha. Aur vo silsila jo shuru hua toh phir kabhi khatam hua hi nahi, chalta hi raha aur uske saath chalta raha meri deewangi ka silsila. Bachpan jawani mein tabdeel hua toh ye samajh to aa gaya ke main kyun har pal uske saath ki khwahish, uski nazdeeki ki talab rakhta hoon par dil se vo kasak kabhi gayi nahi.
Uski chahat rag rag mein lahoo bankar daudti rahi aur uski shakal ek tasveer
bankar mere kamre ki deewar ke saath meri nazron se hoti meri rooh mein ja basi.
"Jab ham bade honge to main tumse shaadi kar loonga phir ham hamesha saath mein gudiya se khela karenge"
10 saal ki umar mein mere lab se nikle vo alfaaz kab ek khwaab bankar aankhon mein ja base jaise khabar hi nahi hui. Gudde gudiya ka khel toh khatam ho gaya par us waqt kahe gaye chand alfaaz ek wada bankar ham dono ko jod gaye, hamare dilon ko jod gaye, dhadkan ko jod gaye.
Main teri barah-gah-e-naaz mein kya pesh karun,
Meri jholi mein mohabbat ke siwaa kuchh bhi nahin ......
"Kya kar sakte ho mere liye?"
Usne masoomiyat se ek baar jo sawal kiya toh lafz jaise kam pad gaye ye batane ke liye ke main uske liye kya kuchh karna chahta hoon. Samajh hi nahi aaya ke kahan se shuru karun aur kahan khatam. Kaise un cheezon ki fehrist banaoon jo main uske supurd karna chahta hoon.
Kabhi haath uth gaye falak ki taraf ye ishara karte hue ke vo kahe toh aaftab ki roshni uske gaalon mein bhar doon, Mehtaab ki chandni uske aanchal mein samet laoon, siyaah raat ki siyahi uski aankhon ke dore bana doon aur laal sehar ki laali uske labon par saja doon. Toh kabhi yun khwahish hui ke seena cheer kar dil uske
hawale kar doon.
Kabhi chaha ke uske pairon tale har phool saja doon toh kabhi khud phool banar uski kadam-bosi kar loon.
Teri mehfil se jo uthoon toh bata phir kahan jaoon,
Mera kaam teri ibadat ke siwa kuchh bhi nahin ......
Bas adde ke paas Kallu ki chaai ki dukaan aaj bhi vahin hain. Vo 2 kursiyan aur ek mez usi saleeke se rakhi hui hai jis saleeke se vo kabhi hamare intezaar mein hoti thi.
"Pareshaan karne ko bulaya hai mujhe yahan? chhed rahe ho, bhaag jao ....."
Ada se ithlake vo uska mujhse vo shikayat karna aur us gile shikve mein chhupi vo masoomiyat baar baar mujhe is baat ke liye majboor karti ke main aage badhkar uska matha choom loon, uske haath thaam loon aur phir bayan karun, bataoon use, ke main kis qadar use ishq mein fana hoon. Bataoon ke main kyunkar be- ikhtiyaar sa uski ek jhalak paane ko dil thaame uski raah mein mutazir rehta hoon.
Samjhaoon use ke uske vajood se mera vajood qayam hai aur jo vo nahi toh meri shakhsiyat ka koi matlab nahi. Ke meri har sehar uske tazkire se shuru hoti hai aur shaam tak ka mera safar uski aawaz sunne ki beqarari mein guzarta hai.
Aey khuda mujhse na le mere gunahon ka hisaab,
mere paas ashq-e-nadamat ke sivaa kuchh bhi nahi ....
Har taraf rang birange kapde pehne, saje dhaje log khushiyan mana rahe the. Kuchh uske apne the aur kuchh yun hi bulaave par uski khushi mein shaamil hone aa gaye the.
Aaj uski shaadi thi aur dulhan bani kisi gudiya ki tarah saji hui vo majlis ke theek beech mein bethi thi. Log aa rahe the aur uske saamne apna laya tohfa rakh kar uski us mubarak din ki mubarakbaad de rahe the aur uski aane wali zindagi ke liye dua.
Aaj usko dekh kar ye ehsaas hua ke laal rang uspar bahut fabta tha. Jaane kaise itne lambe arse mein is baat se main poori tarah gaafil raha. Kya is liye ke usne kabhi mere saath mere saamne laal rang pehna nahi ya isliye ke mujhe har rang mein vo is qadar haseen lagti thi ke har rang ki rangat meri nazar se poshida rahi, be-asar rahi.
Aur phir ehsaas hua ke laal rang uspar kitna fab raha hai. Kya isliye ke is laal rang mein kuchh khwabon ka khoon shaamil hai, ke ye laal rang kuchh bekaar ummeedon ki ashqon mein bheega hua hai, ke ye laal rang apne aap mein kuchh wadon ka ka janaza samete hue hai.
Haath mein phoolon ka ek guldasta liye main khamoshi se uski taraf badha. Meri shakhsiyat se vahan har koi anjaan tha. Us logon ke hujoom mein jaisa mera hona ya na hona ek barabar hi tha.
"Tu chahe bhi toh kya de sakta hai usko yaar. Kya hai kya tere paas"
Mere ek dost ne ek baar mujhe samjhane ki koshish ki thi. Aur naseeb ka khel dekhiye, aaj uski zindagi ke sabse bade din bhi mere paas use dene ko kuchh bhi nahi. Aaj main uski khushi mein shareek hone ko aaya bhi toh haath mein kuchh subah ke murjhaye phool liye.
Khuda se kahun, tujhse kahun ya khud hi dil ko samjha loon,
Lab pe mere ab ek shikayat ke siwa kuchh bhi nahi ......
Kamal ki baat hai. Jab bhi main uske kareeb hota tha toh dil ki dhadkan jaane kyun apne aap badh jaati thi. Uske chehre ki ek jhalak, uski saans ki garmi, uske jism ki khushbu aur uske haathon ki narmi, kuch aisi kashish, kuchh aisi taaseer thi uski ke dil bekaabu hokar deewanagar sa dhadakne lagta tha.
Aaj phir vaisa hi kuchh aalam hai. Ab is nadan dil ko kaise samjhaoon ke aaj vo meri nahi, ke aaj vo kisi aur ki aur ho rahi hai. Kaise is deewane se kahun ke aaj yun phir tezi se dhadak kar kuchh haasil nahi hoga. Ke aaj toh ise dhadkan se kinara kar lena chahiye aur mujhse is bekaar zindagi se nijaat dila deni hahiye.
Haath mein guldasta lekar main uske kareeb aaya aur use dene ke liye aage ko jhuka. Nazar utha kar usne shukriya kehne ke liye meri taraf dekha toh khabar hui ke door se nazar aati uski vo khoobsurati toh mehaz ek bharam thi. Us shaam pehli baar mujh par uski aankhon ki veerani, uske chehre ki vehshat zaahir hui.
Khabar hui ke vo toh aaj phir vahi gudde gudiya ka khel khel rahi hai bas aaj gudiya ki jagah usne khud ko betha liya. Jism hai, rangat hai, perhan hai, zevar hai par kisi gudiya ki tarah hi ye sab hone ke baad bhi kuchh nahi hai kyunki jism mein jaan nahi hai.
Haan, uski aankhon ne mujh par zaahir kiya ke vo toh bas ek murda laash ki tarah vahan bethi nakli hasi has rahi thi, muskura rahi thi.
Main aaj phir khada hoon tere huzoor mein tera mureed hokar,
Mere aankhon mein is haqeeat ke siwa kuchh bhi nahi ......
Lakh mere chehre par naqab sahi, nakli daadi moonchh sahi. Lakh maine koshish ki thi bhes badalne ki taaki uski shaadi mein mujhe koi pehchan na sake par uski nazar dhokha kaise kha sakti thi. Uski nazar meri nazar se mili aur ek pal mein ye pegham mujh tak pahunch gaya ke usne mujhe pehchan liya hai.
Aaj phir mujhe saamne dekh kar vo muskurayi aur mujhe laga jaise mera sab kuchh lut gaya ho. Kahan gayi vo muskurahat, vo hasi jise pakar main kabhi ithlata phirta tha. Kahan gayi vo hasi jo kabhi mujhe poora karti thi. Kahan gayi vo hasi jise pakar main sab kuchh pa leta tha. Vo hasi jiske baad mujhe kisi aur cheez ki zaroorat hi nahi padti thi.
Apne honthon par aap is pakeeza hasi ko yun hi sajaye rakhna,
Meri daulat is muskurahat ke siwa kuchh bhi nahi ......
Aur phir mere haath mein thame phool chhut kar uski jholi mein ja gire aur numaya hui un phoolon ke pichhe chhupi revolver. Vo revolver jis mein sirf 2 hi goliyan maujood thi. Vo revolver jise main phoolon ki aad mein ab tak apne aath mein thaame hue tha.
Ham dono par ab bhi kisi ki nazar nahi hai. Sab apne aap mein magan hain aur ham dono jaise un sabse bekhabar, duniya se paraye hokar ek doosre ki nazar mein nazar daale ek doosre ko dekh rahe hain. Vo kabhi meri taraf toh kabhi mere haath mein thami revolver ki taraf dekh rahi hai. Aur haan vo ab muskura rahi hai.
Phir vahi muskurahat jo main dekhna chahta tha. Uski hasi ab phir laut aayi hai.
Usne muskura kar apni aankhen moond li jaise aaj phir ek baar apne aapko mere supurd kar rahi ho. Maine apne haath mein thami revolver par ek nazar daali aur phir ek nazar usko dekha.
Uske munh se kuchh safed cheez si nikal rahi hai, ek safed jhaag. Uski rangat jo ab tak peeli thi, ab safed hoti ja rahi hai.
Aur phir neeche bethi bethi vo ek taraf nidhal hokar gir padi.
Vo to aaj mar kar hamein mil hi gayi raahat varana,
Zindagi ranj-o-museebat ke sivaa kuchh bhi nahin.......
Sab log ab uske chaaron taraf khade hue hain. Khushi ka aalam ab cheekh pukaar mein tabdeel ho gaya hai.
Kisi ka dhyaan ab bhi meri taraf nahi hai aur na hi meri nazar un par. Main toh apne haath mein thaami us revolver ko dekh raha hoon jiska rukh meri taraf hai. Jis mein ab bhi 2 goliyaan maujood hain par zaroorat ab sirf ek ki hai.
Dil mein ab dard-e-mohabbat ke siwa kuchh bhi nahi,
Zindagi meri ab teri chahat ke siwa kuchh bhi nahi.........
samaapt
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