Tuesday, December 4, 2012

जी ढूंढ़ता है घर कोई दोनों जहां से दूर

   जी ढूंढ़ता है घर कोई दोनों जहां से दूर
इस आपकी जमीं से अलग, आसमां से दूर

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आती है किस तरह से मेरी कब्ज-ए-रूह को
देखूं तो मौत ढूंढ़ रही है बहाना क्या

सरे महशर यही पूछूंगा खुदा से पहले
तूने रोका भी था मुजरिम को खता से पहले

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न मेरे जख्म खिले हैं न तेरा रंग-ए-हिना
मौसम आए ही नहीं अब के गुलाबों वाले

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ये शबे फिराक ये बेबसी, हैं कदम-कदम पे उदासियां
मेरा साथ कोई न दे सका, मेरी हसरतें हैं धुआं-धुआ

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हमको तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया

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हर शम्आ बुझी रफ्ता रफ्ता हर ख्वाब लुटा धीरे – धीरे
शीशा न सही पत्थर भी न था दिल टूट गया धीरे – धीरे

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अय मौत, उन्हें भुलाए जमाने गुजर गए
आजा कि जहर खाए जमाने गुजर गए







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